सोमवार, 7 सितंबर 2020

उजाले और उम्मीद की राह दिखाती पुस्तक

 

पुस्तकों का इंसानी जिंदगी से गहरा रिश्ता रहा है | प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो इंसान का अक्षरों से किसी न किसी रूप मे सबंध हमेशा रहा है और यही कारण है प्राचीन सभ्भयताओं की खोज मे हमें शब्दों का अस्तित्व हमेशा मिलता है |आज भी हम पुस्तकों को इंसान का पथ प्रदर्शक मानते हैं |

     राजस्थान के अजमेर मे जन्मे व मनीला-फ़िलिपींस को अपने कर्म भूमि बनाने वाले श्री हीरो वाधवानी जी की नवीनतम पुस्तक “ मनोहर सूक्तियां “ एक ऐसी ही बहुमूल्य पुस्तक है जो हमें जीवन की सही राह दिखाती है | सूक्तियों के रूप मे इस पुस्तक मे वह अमृत है जिसका स्वाद इसे पढने के बाद ही समझा जा सकता है | यह पुस्तक सही अर्थों मे अनमोल मोतियों की एक खूबसूरत माला है जिसमे हर मोती की अपनी चमक है | एक ऐसी चमक जिसकी रोशनी मे आप जीवन की सही राह देख सकते हैं |

     वाधवानी जी ने संभवत: अपने रचना कर्म के लिये साहित्य की इस विधा का चयन बहुत सोच समझ कर किया होगा | कहानी, कविता जैसी विधाओं से हट कर सूक्तियों व विचारों का लेखन एक अलग किस्म का रचनाकर्म है | लेकिन कोई सदेह नही कि जनकल्याण की द्र्ष्टि से यह सबसे अधिक उपयोगी विधा है | जीवन के कठिन दिनों व मानसिक अवसाद के क्षणों मे यह पुस्तक आपको उजाले और उम्मीद की राह दिखाती है क्योंकि इसमे जीवन का सार है, क्पोल कल्पित कथा नही |  इसमे लेखक वाधवानी जी के जीवन का गहन अनुभव व मौलिक प्रतिभा का बेहतरीन निष्कर्ष है |

    इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ मे छपी सूक्तियों से ही पुस्तक की उपयोगिता का आभास हो जाता है | प्रत्येक सुक्ति लाखों रूपयों से भी ज्यादा मूल्यवान है | कुछ सुक्तियां इस प्रकार हैं –

·        असंयमी इंसान को शैतान शीघ्र वश मे कर लेता है |

·        ईश्वर ने योग्य समझ कर बुजुर्गों और बरगद के पेडों को अधिक समय दिया है, इनका सम्मान करो |

·        रेलगाडी पटरी पर होगी तो हजारों मील चलेगी, पटरी से उतर ग-ई तो एक इंच भी नही चलेगी |

·        मां के गर्भ मे रहने का किराया जीवन भर कमाए गए धन का दोगुना है |

·        गरीबी केवल त्योहार पर नही, रोजाना तंग करती है |

·        मोतियों से मिल कर धागा भी मूल्यवान हो जाता है |

ऐसी ही तमाम सूक्तियां जो जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुडी हैं और अधंकार मे सही दिशा का भान कराती हैं | जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नही जिसके बारे मे पुस्तक मे उल्लेख न हो |

     पुस्तक की सुंदर कंपोजिंग, मजबूत बाइडिंग, आकर्षक कवर तथा त्रुटिहीन छपाई इस पर चार चांद लगाती हैं |

     यह पुस्तक हर उम्र के लोगों के पाठकों के लिये उपयोगी है और इस दौर के हमारे बच्चों के लिये तो प्रकाशपुंज के समान है | उनके पास रामायण, गीता व वेदों के अध्धयन का न तो समय है और न ही सामाजिक परिवेश लेकिन एक या दो पंक्ति के यह अमृत विचार उन्हें जीवन मे अच्छे बुरे व नैतिक-अनैतिक का विवेक देने मे समर्थ हैं |

    कारोबार के संबध मे  अपनी भूमि से दूर रहने के बाबजूद मनीला फ़िलिपींस मे रहते हुए   हिंदी की इस विधा मे , अपनी जमीन की सुगंध व मूल्यों को लिए ऐसी उपयोगी पुस्तक लिखने के लिये श्री वाधवानी जी निसंदेह साधुवाद  व शुभकामनाओं के पात्र हैं |

पुस्तक – मनोहर सूक्तियां

लेखक – हीरो वाधवानी

के बी एस प्रकाशन, ई मेल  - kbsprakashan.@gmail.com

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

सपनों को सच करने का नशा


 

बहुचर्चित सुशांत सिंह राजपूत  हत्याकांड ने आज सभ्यता के ऊंचे पायदान पर खडे हमारे समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है । दर-असल अपराध के नजरिये से देखें तो इसमें ऐसा कुछ भी नही जिसे देख या सुन कर कोई बहुत ज्यादा  हैरत मे पड जाए या जो कल्पना से परे लगे । यह ह्त्याकांड इसलिए भी खास नही कि इस कहानी की नायिका एक खूबसूरत बाला रिया चक्रवर्ती है जो सिल्वर स्क्रीन की दुनिया से ताल्लुक रखती है और  न ही इसलिए कि इस ह्त्या कथा के  जाल के पीछे  एक औरत है  जिसे भारतीय समाज मे अबला समझा जाता रहा है । दर-असल इस  हत्या कांड  ने हमारे समाज के उस चेहरे को उजागर किया है जिससे हम मुंह चुराते आए हैं । ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे भी अंधेरे की एक दुनिया आबाद रह सकती है, इस सच से हम रू-ब--रू हुए ।

इंसानी जिंदगी के चटक़ और भदेस रंगों को समेटे यह ह्त्या कांड  हमे उस दुनिया मे ले जाता  है जहां सतह पर ठहाकों की गूंज सुनाई देती है और थोडा अंदर जाने पर सबकुछ पा लेने की ऐसी हवस जिसके आगे कोई नैतिक अनैतिक का बंधन नही , बस पा लेने का नशा है |   एक रंगीन, चहकती और खुशियों मे मदहोस दुनिया के अंदर की परतों मे  प्यार के नाम पर इस कदर  फ़रेब का  अंधेरा होगा, भला कैसे सोचा जा सकता है । लेकिन यह भी एक सच है, इसे रिया चक्रवती  की इस पेचीदी कहानी ने पूरी शिद्दत से सामने रखा है ।

देखा जाए तो यह कहानी सिर्फ सुशांत राजपूत  की हत्या की कहानी नही है बल्कि यह कहानी है इंसानी महत्वाकांक्षाओं, सपनों और उडानों की । एक ऐसी लडकी की कहानी जिसने जिंदगी मे सबकुछ पा लेने की होड मे एक ऐसे इंसान को अपने फ़रेबी प्यार का शिकार बनाया , जिसने शायद क्कभी ऐसा सपने मे भी न सोचा हो|  

 महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार उस लडकी ने  सपनों सरीखी इस जिंदगी को जिन मूल्यों पर हासिल किया यही इस ह्त्याकांड का सबसे भयावह सच है । प्यार की  अवधारणा पर टिके समाज को जिस तरह उसने  ठेंगा दिखा कर प्यार को ही फ़रेब का हथियार बनाया,   इसने एक बडा सवाल हमारे सामाजिक मूल्यों पर भी उठाया है । आखिर हम किस दिशा की ओर बढने लगे हैं ।

दर-असल गौर करें तो इधर उपभोक्ता संस्कृर्ति ने एक ऐसे सामाजिक परिवेश को तैयार किया है जहां हमारे परंपरागत सामाजिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हुआ है । नैतिक-अनैतिक जैसे शब्द अपना महत्व खोने लगे हैं । महत्वाकांक्षाओं और सबकुछ पा लेने की होड मे अच्छे बुरे के भेद की लकीर न सिर्फ कमजोर बल्कि खत्म सी होती दिखाई देने लगी है ..............

अभी हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो  गिरते हुए मूल्यों की हकीकत को समझा जा सकता है ।

बात यहीं तक नही है । जिंदगी मे धन, दौलत, नाम ,यश व ग्लैमर  पाने की एक ऐसी होड भी जिसमे सबकुछ लुटा कर भी पाने का दुस्साहस दिखाई दे रहा है । इस तरह देखा जाए तो बात चाहे रिया चक्रवती की  जिंदगी की हो या फिर  महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढती उन सभी की जिन्हें  कहीं न कहीं बदले हुए उन मूल्यों ने ही डसा है जिनमे रिश्ते-नातों , प्यार-मोहब्बत का कोई मूल्य नही रह जाता । भावनाएं महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ जाती हैं | जैसा कि रिया के साथ हुआ |

यह वह मूल्य हैं जो उपभोक्ता संस्कृति से उपजे हैं । और जिनका नशा सर चढ कर बोलता है और अंतत: उस मोड पर आकर खत्म हो जाता है जहां जिंदगी अपना अर्थ खो देती है । दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस अंधेरे का घेरा हमारी जिंदगी मे कसता ही जा रहा है । हम इससे मुक्त हो सकेंगे या नही, यही एक बडा सवाल है ।

 

 

शनिवार, 25 जुलाई 2020

मुस्लिम आस्थाओं के नाम पर


     फ़िर एक बार असहमति के स्वर सुनाई देने लगे हैं | यह दीगर बात है कि कोरोना महामारी के चलते मुस्लिम मुल्ला मौलवियों का एक वर्ग जरूर बकरीद पर अपने समाज से सरकार को  सहयोग करने की अपील कर रहा है | लेकिन उन लोगों की संख्या कम नही जिन्हें कोरोना या दूसरे समाज की भावनाओं की जरा भी परवाह नही | उन्हें तो बस धर्म के नाम पर एक लीक पीटनी है | अभी हाल मे गायों की तस्करी के कुछ मामले भी पकडे गये हैं | इन गायों को कत्लखाने ले जाया जा रहा था | बकरीद के अवसर पर इस प्रकार से गायों की तस्करी आग मे घी डालने का काम कर रही है | गौर-तलब है कि उत्तर पूर्व के कुछ क्षेत्रों को छोड कर गोमांस पूरी तरह प्रतिबंधित है |

दर-असल एक कहावत है कि ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढता गया | देश मे धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को लेकर कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है | बल्कि सच तो यह है कि जिनके हितों के मदद्देनजर धर्मनिरपेक्षता का ढोल जोर जोर से पीटा जाता रहा है, वहीं से धर्म की चाश्नी मे लिपटे नारे सुनाई देने लगे हैं | आस्थाओं और रिवाजों के नाम पर कई बार तो उन बातों का भी विरोध किया जाने लगा है जिनका प्रत्यक्ष रूप से किसी धर्म विशेष की आस्था से कोई रिश्ता ही नही | लेकिन कोढ पर खाज यह कि जिस अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक हितों की चिंता को लेकर देश के अधिकांश सेक्यूलर नेता छाती पीटते और दिन रात चिंता मे डूबे नजर आते हैं और समाज का तथाकथित सेक्यूलर बौध्दिक जीव भी फ़्रिक मे दुबला होता दिखाई दे रहा हो, वही समाज अब देश हित के कैई फ़ैसलों मे   अपनी आस्था को खतरे मे पडता देख रहा है | किसी भी बात का तिल का ताड बनाने मे उसे कोई परहेज नही | चिंताजनक तो यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के एक वर्ग की इस दुर्भाग्यपूर्ण सोच पर अभी गंभीरता से सोचा जाना बाकी है |
      
          अब सवाल इस बात का है कि जिस धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान व उनके धार्मिक निजता को सुरक्षित रखे जाने के लिए इतना राजनीतिक घमासान दिखाई देता हो वही समुदाय बात बात पर तिल को ताड बनाते हुए अपनी धार्मिक पहचान को खतरे मे होने का बेवजह शोर नही मचा रहा |

     याद कीजिए  योग को लेकर भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था | इसे अपने धर्म विरूध्द मानते हुए इसमें भाग न लेने की बातों को जोर शोर से प्रचारित किया गया | वह तमाम बातें जिनका कोई तार्किक आधार नही था, योग के विरोध मे कही गईं | बेवजह उसे धर्म से जोडने के प्रयास हुए | यहां संतोष की बात यह रही कि मुस्लिम समाज के ही एक प्रगतिशील ,उदार वर्ग ने इसे नकार दिया |

     यही नही, समय समय पर राष्ट्र्गान व बंदे मातरम को लेकर भी मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने अपनी “ धार्मिक चिंताओं “ को बखूबी उजागर किया है | अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक फ़ैसलों व देशहित मे उठाये गये प्रशासनिक निर्णयों को धर्म और आस्था के चश्मे से देखना और फ़िर सहमति या असहमति प्रकट करना जरूरी समझा जाने लगा है | यहां गौरतलब यह है कि यह प्रवत्ति बहुसंख्यक समाज मे नही बल्कि अल्पसंख्यक समाज मे दिखाई दे रही है |

     इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय की गैरजरूरी धार्मिक आस्था की यह चिंता बहुसंख्यक समुदाय को भी कहीं न कहीं रास नही आ रही और एक ऐसे सामाजिक परिवेश को भी विकसित कर रही है जहां बहुसंख्यक समाज को अपनी उपेक्षा होती दिख रही है | ऐसे मे उसे अपने ही घर के कोने मे धकेले जाने की तुष्टिकरण जनित साजिश की भी बू आ रही है | अगर ऐसा होता है तो यह इस देश के कतई हित मे नही होगा | 
इसलिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक समुदाय धार्मिक पहचान व आस्था के सवाल पर भेडिया आया, भेडिया आया की मानसिकता से अपने को मुक्त करे |

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

ये जो मोहब्बत है ……………



धरती से विदा हो जाने वाले कभी लौट कर नही आते बस उनकी यादें शेष रह जाती हैं | और अगर बात एक ऐसे सितारे की हो जिसने पूरी एक पीढी को प्यार करना और प्यार मे जीना सिखाया हो , जिसके तरानों मे जिंदगी झूमती, गाती और इठलाती रही हो तो बात एक्दम अलग हो जाती है | राजेश खन्ना के नाम से सिनेमाई दुनिया के क्षितिज मे चमकने वाले इस सितारे ने कभी करोडों दिलों मे राज किया और अपने अभिनय के दिलकश अंदाज व सम्मोहित कर देने वाले सिनेमाई प्यार से एक ऐसी दुनिया रच डाली जो आज भी युवाओं के लिए सपनों सरीखी है लेकिन जिसे पा लेने की हसरतें आज भी युवा दिलों मे हिलोरें मारती है |

     अब जब मोहब्बत की दुनिया भी मतलब के रिश्तों मे तब्दील होने लगी है और प्यार की वह दीवानगी तो बस किताबी चीज बन कर रह गई , याद आ ही जाते हैं वह बोल जिन्हें बस महसूस ही किया जा सकता है .. .. ये जो मोहब्बत है उनका है काम, महबूब का जो बस लेते हुए नाम, मर जाएं, मिट जांए, हो जाएं बदनाम ..... । वाकई अब कहां है प्यार का यह जुनून । परदे की दुनिया का वह सितारा जिसने प्यार का यह फलसफा सिखाया अपनी सितारों की दुनिया मे धरती के बैरंग प्यार को देख मायूस ही होगा ।

मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू ...... .. , हर जवां दिल की आवाज को, जिसका जादू हर दौर मे सर चढ कर बोलता है, भला कैसे भुलाया जा सकता है । आज भी, कल भी जब हम आप भी इस दुनिया मे नहीं होंगे यह सपना जवां दिलों मे आबाद रहेगा । अपने प्यार को आवाज देकर बुलाने वाले इस सितारे की याद इसलिए भी सालती है कि अब प्यार की वह दुनिया दिखाई नही देती । दिल कहता है कि काका एक बार फिर आ ही जाओ प्यार की उस सपनीली दुनिया को बसाने , जवां दिलों को प्यार सिखाने जैसा उस दौर के युवादिलों को सिखाया लेकिन मेरी उम्र की वह पीढी अब बुढापे की राह पर है । अब कोई भी तो नही है जो इस दौर के युवा दिलों को प्यार करना सिखाये और प्यार मे मर मिटना भी ।

आज के ही दिन अपने नशीले प्यार और मदहोस कर देने वाले गीतों की विरासत को इस धरती पर छोड यह सितारा हमसे हमेशा के लिए विदा हो चला था | सिनेमा के परदे पर जिंदगी के हर रंग को जीवंत कर देने वाले इस सितारे ने अपनी ही एक फ़िल्म मे सिनेमाई अंदाज मे कहा था चांद सितारों के आगे भी एक दुनिया है और मुझे वहां जाना है “ ……………आज वह इस दुनिया मे नही हैं शायद सितारों के आगे की उस दुनिया मे कहीं जरूर होंगे ......और उस दुनिया मे भी उनके प्यार के तराने गूंजते होगें । हरदिल अजीज इस सितारे को हार्दिक श्रंध्दाजलि ।


मंगलवार, 14 जुलाई 2020

मुहल्ले का एक गुंडा बन जाता है माफ़िया डान


      
    

विकास दुबे के एनकाउंटर ने देश की राजनीति मे एक बार फ़िर उबाल ला दिया है | कमोवेश सभी राजनीतिक पार्टियां उससे अपना पल्ला झाड रही हैं और दूसरी पार्टी को उसके साथ जुडाव के लिये कटघरे मे खडा करने मे कोई कसर नही छोड रहीं | पुराने वीडियो देखे और दिखाये जा रहे हैं | मीडिया भी इस चुहा दौड मे कहीं पीछे नही |

 बहरहाल इतना अवश्य है कि आतंक का प्रर्याय बने विकास दुबे के एनकाउंटर  ने देश के लोकतंत्र, न्यायापालिका व सरकारी रवैये पर जरूर गंभीर सवाल उठाये हैं । यही नही, मौजूदा राजनीतिक संस्कृर्ति मे अपराध व अपराधियों के बढते वर्चस्व पर भी सोचने के लिए मजबूर किया है । हम स्वीकार करें या न करें इस घटना ने देश के राजनैतिक भविष्य की तस्वीर को भी सामने रखा है ।

     गौरतलब है कि आज  जिस विकास दुबे  को  एक माफ़िया  के रूप मे देखा गया  हैं, वह 80 के दशक मे छोटे मोटे अपराध करने वाला एक छुटभैय्या अपराधी भर था । लेकिन किस तरह राजनीति ने उसे अपराध की दुनिया मे एक चमकता सितारा बना दिया, उसकी एक अलग ही कहानी है । यह कहानी देश की राजनीति के उस कुरूप चेहरे को सामने लाती है जिसे अब स्वीकार कर लिया गया है । वोट राजनीति के लोभ ने एक साधारण अपराधी को रातों रात एक ऐसा ताकतवर माफ़िया बना दिया जिसके आगे पूरा प्रशासनिक तंत्र नतमस्तक हो गया । क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि  बडे बडे पुलिस अधिकारी उसे सलाम बजा कर अपनी नौकरी किया करते थे  । लेकिन विडंबना देखिए वही पुलिस उसके कोप का शिकार बनी और अकाल मृत्यु का ग्रास बनी |

          आज सवाल सिर्फ विकास दुबे  का नही है । ऐसे न जाने कितने अपराधी राजनीति की छतरी तले देश के प्रशासनिक तंत्र को चुनौती दे रहे है ।  आखिर क्यों हमारी ससंद व विधानसभाएं अपराधी तत्वों की शरणगाह बनती जा रही हैं । दरअसल हमने ईमानदारी से स्वंय के गिरेबां में झांकने का प्रयास कभी नही किया । कहीं ऐसा तो नही कि जाने- अनजाने इसमे हमारी भी भागीदारी रही हो ।
     दरअसल कई बार हम अपने स्वार्थ में व्यापक सामाजिक हितों की अनदेखी कर देते हैं । हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो जाती है कि हमे सिर्फ अपने जिले, शहर या मुहल्ले का ही हित दिखाई देता है और राबिनहुड जैसे दिखने वाले माफियों, गुंडों व बदमाशों को इसका लाभ मिलता है । अगर कोई अपराधी तत्व हमारे मुहल्ले की सड्कों व नालियों आदि का काम करवा लेता है और हमारे मुहल्ले का निवासी होने या किसी अन्य प्रकार के जुडाव से हमारे काम करवा लेता है तो हम उसके पक्ष मे आसानी से खडे हो जाते हैं । यहां हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज के हित मे इसे ससंद या विधानसभा के लिए चुनना इस लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक होगा । ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेगें जहां समाज की नजर मे एक अपराधी,  मोहल्ले या शहर का "भैय्या " बन चुनाव मे जीत हासिल कर लेता है । दरअसल अपने तक सीमित हमारी सोच ऐसे लोगों का काम आसान करती है ।

           हमारी इस सोच का इधर कुछ वर्षों मे व्यापक प्रसार हुआ है      राजनीतिक अपराधीकरण मे हमारी यही सोच कुछ गलत लोगों को ससंद व विधानसभाओं मे पहुंचाने मे सहायक रही है । यही कारण कि ऐसे कई नाम भारतीय राजनीति के क्षितिज पर हमेशा रहे हैं । जिन्हें समाज का एक बडा वर्ग तो अपराधी , माफिया या बदमाश मानता है लेकिन अपने क्षेत्र से वह असानी से जीत हासिल कर सभी को मुंह चिढाते हैं ।
          अब अगर हमे इन बाहुबलियों, माफियों, गुंडों व बदमाशों को रोकना है तो अपने संकीर्ण हितों की बलि देनी होगी । व्यक्ति का चुनाव समाज व देश के व्यापक हित मे सोच कर किया जाना चाहिए | अन्यथा एक दिन  विकास दुबे जैसे यह भैय्ये लोकतंत्र  के चेहरे को पूरी तरह से बदरंग बना देगें । 




रविवार, 12 जुलाई 2020

खुशियों के छ्लावे




      बहुत आगे निकल आये हम जिंदगी की राहों में, न जाने क्या कुछ पीछे छोड आए | अब तो इसकी भी सुध नही | हमने अपनी सुस्त सरल व सहज जिंदगी को छोड तेज रफ़्तार की दौड को चाह और हमारी कोशिशें भी रंग लाईं | हम एक नयी दुनिया मे आ गये जहां बहुत कुछ नया और अलग है | विकास और रंगनियों की रोशनी है | सबकुछ मनभावन है लेकिन भूल गये कि विकास और मानवीय मूल्य कभी साथ साथ नही चलते | इनका तो विरोधाभास सबंध रहा है |

       शायद इसीलिए विकास की रोशनी जब चौडी काली सडकों, शानदार माल्स , मल्टीफ्लैक्स और तिलिस्मी चकाचौंध के रूप मे जहां भी पहुंची उसने वहां की उन सभी चीजों की मासूमियत को डस लिया जिनमें कभी जिंदगी हंसती बोलती थी ।
      हम इस रंगीन चकाचौंध उजाले को देख खुश हुए, इतराये मानो हमे दुनिया-जहां की सारी खुशियां मिल गई हों । हमे यह उजाले पहले क्यों न मिले, इस पर मलाल करने लगे  लेकिन इन खुशियों के आगोश मे सिमटे हुए अंधेरों को न महसूस कर सके । आखिर करते भी तो कैसे हम तो मदहोशी की हालत मे जो पहुंच गये |
      घर घर मिट्टी के चूल्हों की कहावत को अंगूठा दिखाते हुए जब हमने रसोई गैस की नीली लौ मे अपने सुखों की तलाश की तो भूल गये कि चूल्हे की आग मे पके अन्न का सोंधापन और  पुरानी रसोई का अपनापन हमसे रूठने लगा है । हमें सभी सुविधाओं से लैस आधुनिक रसोई मिली जिसकी कभी हमने कल्पना भी न की थी लेकिन  पडोस से आग मांग कर चूल्हा जलाने की परंपरा ही खत्म हो गई । और  वह खुशियां हमसे रूठ गईं जो कभी चूल्हों और अंगीठियों से जुडी थीं ।
      पैसों की आमद ने जब अभावों की दुनिया को किनारा किया तो पडोस मे मुन्ना की मां के घर से चायपत्ती या चीनी मांगने का दस्तूर ही खत्म हो गया । महीने के आखिरी दिनों मे पडोसियों से उधारी की मजबूरियों से मुक्ति ने भी हमे बेइंतहा खुशियां दीं लेकिन यह खुशियां कब हमारे आपसी रिश्तों को डस गईं , पता ही नही चला ।
      भारी होती जेबों ने जब पहली तारीख के इंतजार की बेबसी से हमे छुटकारा दिलाया तो हम फिर खुशी से झूम उठे । लेकिन क्या पता था कि हमारी हमेशा यह भरी जेबें पहली तारीख से जुडी खुशियों की बराबरी न कर सकेंगी ।
      यही नही, शानदार शापिंग माल्स से रोज-ब-रोज खरीदे कपडों को पहन घमंड से इतराये तो जरूर लेकिन क्या पता था कि इन लकदक कपडों से जुडी खुशियां बहुत जल्द अपना दामन छुडा लेंगी और अभावों की दुनिया मे होली, दीवाली पर सिलाये गये कपडों से मिली खुशियां बरबस याद आयेंगी ।
      भरी जेबों के बल पर रोज खायी जाने वाली महंगी मिठाईयों और चटपटे व्यजनों ने तमाम बिमारियों को तो न्योता दे डाला लेकिन कभी तीज त्योहारों के अवसर पर ही नसीब होने वाली लड्डू-बर्फी से मिली उन खुशियों से हमारा नाता न जोड सकीं ।
      यही नही,  सरपट दौडती खूबसूरत कारों मे,   जिंदगी की  खुशियां तलाशने की कोशिश मे,  पगडंडियों पर साइकिल चलाने से मिली खुशियों को भी कहीं खो बैठे । कहां तक बयां करें दास्तानें उन मृगमरीचिकाओं की जिन्होने सिर्फ खुशियों के छ्लावे दिखाये । उन आंखों पर भी क्या तोहमत लगाएं जिन्होने फरेब को सच की तस्वीर माना । वक्त की बदली धारा ने मुट्ठी भर खुशियों की कीमत पर बेहिसाब  सच्ची खुशियों का सौदा किया ।


गुरुवार, 14 मई 2020

अब अलविदा कहने को है मिंट कैमरा



फोटोग्राफी की दुनिया अब काफी आगे निकल आई है । वह दिन गए जब किसी फोटो में अपना ही चेहरा तलाशना मुश्किल हो जाया करता था । आज फोटोग्राफी की दुनिया चमकदार ही नहीं तिलिस्मी भी हो गई है । कैमरे ने जो नहीं देखा वह भी फोटो मे दिखाया जा सकता है । लेकिन यह आज के दौर की बातें हैं । कुछ समय पहले तक यह संभव नहीं था । इसलिए फोटो खींचने का काम बडे जतन से किया जाता था । इस बीते दौर का गवाह है मिंट कैमरा । आज भी यह शहर के कुछ खास स्थानों पर दिखाई दे जाता है ।

लेकिन आज की तेज रफ्तार जिंदगी के बीच इसकी ' झटपट सेवा ' ने इसे जिंदा रखा हुआ है । अगर इसमें यह खूबी नहीं होती तो यह बहुत पहले ही दुनिया से अलविदा कह चुका होता । सच पूछिए तो स्कूल कालेजों के छात्रों, रोजगार की लाइन में लगे लोगों के लिए तो यह एक वरदान ही है ।

दर-असल मिंट शब्द मिनट शब्द का ही बिगडा हुआ रूप है । चंद मिनटों मे ही फोटो तैयार कर दिए जाने के कारण ही इसका नाम मिंट कैमरा पडा । यह एक बक्से की तरह लकडी से बना है और लकडी के ही स्टैंड पर टिका रहता है । लकडी के इस डिब्बे पर काले रंग का चमडा मढा होता है जिससे रोशनी अंदर न जा सके । इसके उपर ढ्क्कन लगा होता है । आगे वाले हिस्से मे कैमरे का लैंस होता है । यह लैंस एक 'बैलो ' से जुडा रहता है । इसे लैंस सहित आगे पीछे किया जा सकता है । लैंस के पीछे कैमरे के अंदर अलग अलग आकार के तीन या चार पीतल के फ्रेम बने रहते हैं । जब फोटोग्राफर फोटो लेता है तब वह अपने को व कैमरे को भी एक काले कपडे से ढक लेता है जिससे कैमरे के अंदर रोशनी न जा सके । खींचते समय वह लैंस के आगे लगा ढक्कन कुछ पलों के लिए हटा कर फिर लगा देता है । बस फोटो खिंच जाती है ।

आगे की पूरी प्रक्रिया कैमरे के ही अंदर पूरी की जाती है । फोटो डेवलेप करने से लेकर ' हाइपो ' के घोल मे डालने तक सब्कुछ अंदर ही कर लिया जाता है । फोटोग्राफर कैमरे के ऊपरी हिस्से में बने व्यूफाइंडर से भीतर देखता रहता है कि फोटो सही तरीके से बन रही है कि नहीं । यह सभी काम चंद मिनटों मे पूरे हो जाते हैं । यही इसकी खूबी है और इस खूबी के कारण ही इसकी उपयोगिता हमेशा रही है ।

यह अलग बात है कि इस कैमरे से निकली फोटो बहुत चमकदार और अच्छी तो नही होती लेकिन तात्कालिक जरूरत को पूरा कर लेती है । इसका उपयोग अंग्रेजी शासन काल से ही चला आ रहा है । देश के कई शहरों मे तो इन फोटोग्राफरों की अच्छी खासी संख्या रही है । दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों मे यह आज भी दिखाई देते हैं बेशक अब यह गिनती के रह गये हैं ।

शहर के कुछ खास स्थानों मे आज भी इन्हें देखा जा सक्ता है । विशेष रूप से कचहरी, आर.टी.ओ आफिस, भर्ती दफ्तर, रोजगार कार्यालयों जैसे जगह मे आज भी इनका अस्तित्व बचा हुआ है । लेकिन साल-दर-साल इन लोगों की संख्या कम होती जा रही है । एक पुराने फोटोग्राफर बताते हैं कि अब नई तकनीक आने से इसकी जरूरत नही रही । कम्प्यूटर ने सबकुछ संभव कर दिया है । अब इस पेशे से इतनी आय नहीं होती कि घर चलाया जा सके । खास बात यह है कि अब कोई भी इस काम को नही करना चाहता । जो थोडे से लोग हैं वह भी मजबूरी में बंधे हुए हैं ।

इस व्यवसाय से जुडे लोगों से बातचीत करने पर दम तोडते इस व्यवसाय का दर्द सामने आता है । यह सच है कि आधुनिक कैमरों व फोटोग्राफी ने इस व्यवसाय की कमर ही तोड दी है । रंगीन फोटोग्राफी ने भी कम नुकसान नहीं पहुंचाया । वैसे भी श्वेत-श्याम फोटो को अब कौन पसंद करता है । इन फोटोग्राफरों की नई पीढी इस काम को हरगिज करना नही चाहती । उन्हें इस काम मे कोई भविष्य नजर नहीं आता ।

लेकिन आधुनिकता के बीच इस पुरानी  चीज का  जिसका इतना लंबा जुडाव रहा है हमसे दूर हो जाना कहीं एक खालीपन तो देता ही है लेकिन अब देखना यह है कि मिंट कैमरों से जुडे चंद फोटोग्राफर कब तक इस व्यवसाय को जिंदा रख पाते हैं ।