रविवार, 7 अप्रैल 2019

चुनावी राजनीति का यह कैसा बदलता रंग



  चुनाव का शंखनाद बजते ही शुरू हो गया  है जयकारों का सिलसिला | और इसके साथ ही  शुरू हो गये वादों, दावों व घात- प्रतिघात की चुहा दौड जिसे अभी अपने चरम पर पहुंचना बाकी है | 

यही नही दिखने लगा है  भारतीय राजनीति का वह  चेहरा जो साल दर साल  कुरूप होता जा रहा है अब इस बात की संभावना कहीं नही दिखती कि  राजनीति  अपने पुराने दौर की तरफ वापसी कर सकेगी । वह दौर जो मूल्यों की राजनीति का सुनहरा दौर रहा है |  दर-असल वोट के माध्यम से जनसमर्थन जुटाने व सरकार बनाने  के महत्व ने ही इसे इस स्थिति मे ला खडा किया है


          क्या यह जानना अफसोसजनक नही कि वोटों के लिये हमारे कुछ राजनीतिक दल उन चेहरों को भी अपना पोस्टर ब्वाय बनाने लगे हैं जो देश के टुकडे टुकडे होने का सपना संजोये हुये हैं | इन दलों को इस बात से कोई फ़र्क नही पडता कि उनके स्वर देश हित मे हैं या उनसे देश्द्रोह की बू आती है | दुखद तो यह भी है कि देश मे उनके स्वर मे अपने  स्वर मिलाने वालों की भी कमी नही और मीडिया का एक वर्ग उनके एजेंडा को आगे बढाने का काम करने मे जुटा दिखाई देता है |

          वोट राजनीति के इस घिनौने चेहरे को क्या अब भारतीय जनमानस की बदलती सोच का एक संकेत मान लिया जाए या फिर खलनायकों को राजनीति मे महिमा मंडित कर हीरो बनाने की एक घृणित राजनीतिक सोच क्या अब भारतीय चुनावी राजनीति का दर्शन कुछ इस तरह से बदलने जा रहा है जिसमे राष्ट्र्हित को  अप्रासंगिक मान लेने की सोच् आकार लेती दिखाई दे रही है

          बदलते सामाजिक परिवेश मे शायद यह माना जाने लगा है कि आज के युवाओं के लिए गांधी या नेहरू यक़ फ़िर पटेल  सिर्फ इतिहास मे दर्ज एक किताबी आयकन बन कर रह गये हैं जिनकी युवा सोच मे कोई प्रासंगिकता नही रही युवाओं के लिए वह विद्रोही चरित्र आदर्श हैं जो पूरी मुखरता के साथ शासन -सत्ता के विरूध्द किसी भी  सीमा तक जा सकने का साहस रखते हैं । इसमे कोई फर्क नही पडता कि वह पारंपरिक मूल्यों व आदर्शों के विरूध्द है या फिर देश प्रेम की अवधारणा को ही खारिज कर रहे हैं । शायद यह मानते हुए ही गैर भाजपा राजनीतिक दल इन्हें अपनी चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा बनाने के प्रयोग से भी गुरेज नही कर रहे ।

          यह जानना समझना भी जरूरी है कि क्या केन्द्र मे गैर कांग्रेसी सत्ता का वर्चस्व दीगर राजनीतिक विचारधाराओं को पारंपरिक चुनावी सोच से हट कर कुछ अलग और नया करने को विवश कर रहा है अगर ऐसा है तो  यह उनके अंदर पनपी राजनीतिक असुरक्षा हाशिए पर चले जाने की चिंता को भी उजागर कर रहा है
            बहुत संभव है कि गत आम चुनावों मे जिस तरह से मोदी एक चमत्कारिक छवि के रूप मे पूरे देश को अपने मोह पाश मे बांध एक अकल्पनीय चुनावी जीत के नायक बने उसने गैर भाजपा राजनीतिक दलों मे राजनीतिक असुरक्षा की भावना को पैदा करने मे अहम भूमिका निभाई हो

                        लेकिन कारण कुछ भी हों, अगर चुनावी राजनीति का यह चेहरा सामने आता है तो शायद भविष्य मे देश के अंदर सच्चे हीरो बनने की नही बल्कि विलेन बनने की भी एक होड  आकार लेती दिखाई देगी और यह देश हित के नजरिये से ताबूत मे एक और कील  साबित होगी

         

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