इस
बार उरी
। सीमा
पर गोलियों
और बम
की आवाजों
से किसी
को सिहरन
नही होती
।लेकिन जब
यही आवाजें
घर के
अंदर जहां
हम अपने
को सबसे
ज्यादा सुरक्षित
समझते हैं
सुनाई देती
हैं तो
डरना स्वाभाविक
ही है
। हमारे
सुरक्षित समझे जाने वाले सैन्य
बेस पर चार
आतंकी आए
और फिर
हमे घाव
दे गये
। सोते
हुए हमारे 18
जवानों
को अकाल मृर्त्यु का ग्रास
बनना पडा । अब
तो लगता
है कि
हम इन
घावों के
अभ्यस्त से
होते जा
रहे हैं
। इन
घावों से
रिसते खून
को येनकेन
रोकने के
लिए मानो
हम दवा-पट्टी
लेकर हमेशा
तैयार बैठे
हों ।
आतंकी
घटनाओं मे
अकाल मृत्यु
के ग्रास
बने अपने
जवानों,
अफसरों
और नागरिकों
को "
शहीद
"
का
दर्जा दे
मानो फिर
मौत की
अगली दस्तक
का इंतजार
करने लगते
हैं ।
रोज-ब-रोज
होने वाले
यह धमाके
और फिर
दिल को
चीर देने
वाली चीखों
को मानो
हम अपनी
नियति मान
बैठे हैं
। लगता
है हर
ऐसे हादसे
के बाद
लाशों को
गिनने के
लिए हम
अभिशप्त हैं
। एक
सन्नाटा सा
पसरा है
। जहां
किसी को
कुछ सूझ
नही रहा
।
इस
घटना के बाद हमेशा की तरह उन्हीं
शब्दों को फिर दोहराया जाने
लगा है जो बार बार कहे जाने के
बाद अपनी धार खो चुके हैं । अब
तो जनसामान्य को भी महसूस होने
लगा है कि यह चुने हुए शब्द
मात्र समय को टालने व जनता के
आक्रोश को ठंडा करने के हथियार
बन कर रह गये हैं । अब फिर कहा
जाने लगा है कि पाकिस्तान को
बेनकाब किया जायेगा,
उसे
अलग थलग करने के सभी प्रयास
किये जायेंगे,
उसे
एक आतंकवादी देश घोषित करवाने
के प्र्यास जारी रहेंगे आदि
आदि । लेकिन लोग इन सभी शब्दों
के खोखलेपन को देख और समझ चुके
हैं ।
भारी
दवाब के बीच सेना प्रमुख दलवीर
सिंह ने कहा है कि हम बदला जरूर
लेंगे लेकिन समय और स्थान का
चुनाव भी हम करेंगे । कुछ ऐसे
ही शब्द पठानकोट हमले के बाद
भी कहे गये थे । देश की जनता
कुछ सख्त कार्रवाही देखना
चाहती है जो कहीं नही दिखाई
दे रही । देर-सबेर
इस प्रवत्ति का दुष्प्रभाव
सेना के मनोबल पर भी पडेगा ।
दर-असल
गौर से
देखें तो
पाकिस्तान
प्रायोजित
यह आतंकवाद
हमारी मानसिक
कमजोरी पर
बार बार
चोट कर
हमे आहत
कर रहा
है ।
वह जांनता
है कि
अतीत की
सैनिक असफलताएं
अब इतिहास
बन गई
हैं ।
1965
हो
या फिर
1971
या
करगिल युध्द
पारंपरिक
युध्द शैली
मे उसे
मुंह की
खानी पडी
है ।
आज के
हालातों मे
भी उसे
शिकस्त दिवारों
पर लिखी
साफ दिखाई
दे रही
है ।
लेकिन एक
परमाणु सम्पन
देश होने
का जो
तमगा उसने
लगा दिया
है,
इससे
वह अपने
को ऊंचाई
पर खडा
देख रहा
है ।
बार
बार भारत
को घाव
देने के
बाबजूद भारतीय
सेना ने
सीमाओं की
हद नही
लांघी ।
इसे वह
अपनी एक
उपलब्धी समझने
लगा है
। यहां
तक कि
करगिल युध्द
मे भी
भारतीय सेनाएं
अपनी ही
जमीन पर
खडी थीं
। यह
उसने स्वयं
नंगी आंखों
से देखा
है ।
कहीं
न कहीं
परमाणु अस्त्रों
को वह
भारत की
लाचारगी का
कारण मानने
लगा है
। समय
समय पर
परमाणु युध्द
की धमकी
देने मे
भी उसे
कोई हिचकिचाहट
नहीं ।
भारतीय पक्ष
को देखें
तो शायद
लाचारगी का
यही कारण
समझ मे
भी आता
है ।
अन्यथा दुनिया
की एक
बेहतरीन विशाल
सेना वाले
देश का
नित घाव
खाना और
आहत होना
समझ से
परे है
।
इसमे
अब कोई
संदे ह
नही कि
भारत को
अगर इस
प्रायोजित
आतंकवाद को
रोकना है
तो पडोसी
की इस
धमकी से
पार पाना
ही होगा
। ऐसा
भी नही
कि युध्द
रण्नीतियों
की किताबों
मे इसका
कोई जवाब
ही न
हो ।
महाभारतकालीन
चक्र्व्यूह
जिसे एक
अजेय व्यूह
रचना समझा
जाता रहा
उसको भी
भेदने की
कला अर्जुन
को मालूम
थी ।
इसी तरह
आधुनिक युध्द
कौशल मे
भी ऐसा
संभव है
कि परमाणु
शस्त्रों का
जखीरा सिर्फ
देखने की
चीज बन
कर रह
जाए और
उसका उपयोग
ही संभव
न हो
सके ।
आक्रामक युध्द
शैली अनेक
संभावनाओं
के रास्ते
खोलती है
। वैसे
भी गांधी
के पदचिन्हों
पर चलने
वाले इस
देश को
अब यह
समझ लेना
चाहिए कि
कभी चीन
के राष्ट्र्पति
माउत-स
-तुंग
ने यूं
ही नही
कहा था
कि "
पीस
क्म्स फ्रोम
बैरल आफ
गन "
यानी
शांति बदूंक
की नाल
से आती
है ।
आज वह
देश न
सिर्फ समृध्दि
के ऊंचे
पायदान पर
खडा है
बल्कि दुनिया
की एक
ताकत भी
है ।
बहरहाल
अब समय
आ गया
है कि
आतंक की
इस दहशत
से मुक्ति
के लिए
नितांत नई
संभावनाओं
पर विचार
करें ।
अगर ऐसा ही
होता रहा तो आतंक के खिलाफ
हम एक "
कमजोर
राष्ट्र "
समझे
जाने लगेंगे और फिर ऐसी घटनाएं
कुछ और ज्यादा और भयावह होगीं
। इस संदर्भ मे जरूरी है कि
भारत दूसरे देशों से कुछ उम्मीद
करने के बजाय स्वंय के बल पर
कुछ ठोस करने का प्र्यास करे
। आखिर देश की सुरक्षा हमारी
जिम्मेदारी है दुनिया के अन्य
देशों की नही । अगर समय रहते
न किया गया तो आतंक का
काला साया
पूरे देश
को अपनी
गिरफ्त मे
ले लेगा
और तब
हम अपने
को लाचारगी
की स्थिति
मे देख
रहे होंगे
।