रविवार, 22 जून 2014

भाषाई राजनीति मे भटक गया गांधी का सपना

      


 ( L.S. Bisht ) -भाषा के सवाल को लेकर एक बार फ़िर वही घमासान दिखाई देने लगा है जो कभी साठ के दशक मे दिखाई दिया था | इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों की गुलामी  से मुक्त होने के बाद जब जब अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को सम्मान व गौरव देने की बात उठाई गई, तब-तब इस देश मे भाषाई राजनीति शुरू हो गई | विरोध के इन स्वरों का केन्द्र हमेशा दक्षिण भारत ही रहा है | आज भी तमिल राजनीति इसके विरोध मे खडी दिखाई दे रही है | इस राज्य की पहल पर फ़िर अन्य भाषाई राज्यों मे भी हिंदी के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है | तमिल, मलयालम, मराठी, गुजराती व अन्य भाषाओं को लगने लगता है कि उनका वजूद खतरे मे पड रहा है या उन्हें दूसरे दर्जे का स्थान देने का प्रयास किया जा रहा है |
     यहां गौरतलब यह भी है  कि विरोध का यह शोर कहीं से भी तार्किक प्रतीत नही होता | केन्द्र सरकार द्वारा जारी परिपत्र को अगर गंभीरता व ध्यान से, पूर्वाग़ृहों से मुक्त हो कर पढा जाये तो उसमें हिंदी के  प्रचार- प्रसार के लिए प्रयास करने की बात तो कही गई है परन्तु ऐसा कुछ नही है कि अन्य भाषाओं को बलपूर्वक पीछे धकेला जा रहा हो | ऐसे मे यह एक अनावश्यक विवाद ही जान पड्ता है | लोकतंत्र मे भाषा के नाम पर अपनी क्षेत्रीय राजनीति चमकाने व अपने वोट बैंक को मजबूत करने का इससे अच्छा उदाहरण दूसरा नही मिल सकता |
     एक तरफ़ हम देश के विकास की बात करते हैं और प्रत्येक क्षेत्र मे अपने स्वयं के साधनों द्वारा और अपने प्रयासों से ही आगे बढने की वकालत करते हैं | अपनी ‘ पूरब की संस्कृति ‘, धर्म, अध्यात्म व संस्कारों का बखान करते हुए यूरोपीय देशों को कमतर आंकते हैं परन्तु जब बात हिन्दुस्तान मे हिंदी की आती है तो सारा राष्ट्रीय प्रेम उडन छू होता दिखाई देने लगता है | और फ़िर भाषा को लेकर सभी अपनी-अपनी ढपली बजाने लगते हैं | यह कैसा देश प्रेम है, समझ से परे है |
     यहां यह स्मरण करना भी जरूरी है कि यदि हम गांधी  के सपनों का भारत बनाने का संकल्प बार-बार दोहराते हैं तो हमे भाषा के सवाल पर भी उनके विचारों को समझना होगा | 29 मार्च 1918 को इंदौर मे हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें अधिवेशन मे गांधी जी ने कहा था “ भाषा हमारी मां की तरह है | पर हमारे अंदर मां के लिए जितना प्यार है उतना इसके लिए नही | दर-असल इस तरह के सम्मेलनों मे मुझे कुछ खास दिलचस्पी नही है | तीन दिन का यह तमाशा कर लेने के बाद हम अपनी अपनी जगह वापस चले जायेंगे और यहां जो कुछ कहा और सुना गया है, सब भूल जायेगे | जरूरत तो काम करने की, लगन और निश्चय की है | “
     गौर करें यह बातें आज भी उतनी ही प्रांसगिक हैं जितनी उस समय थी | हिंदी के शुभचिंतक कहे जाने वाले कितने ही आज भी सम्मेल्नों व जलसों तक हिंदी को कैद रखे हुए हैं | गांधी जी ने हिंदी की वकालत की तो इस्के पीछे उनकी अपनी विचारधारा थी |वे देश की, यहां के नागरिकों की जरूरत समझते थे | आज की तरह नही कि हिंदी भाषी इसलिए इसका समर्थन करता है क्यों कि वह हिंदी बोलता है | तमिल या कोई दूसरा इसलिए विरोध करता है क्योंकि वह हिंदी नही बोलता | अंग्रेजी बोलने वाला इसलिए विरोध करता है क्योंकि वह अंग्रेजी ही बोलता-लिखता है |
     कलकत्ता (कोलकता) मे 23 जनवरी,1929 मे दिये गए भाषण मे गांधी जी ने कहा था “ आपको और मुझको और हममें से किसी को भी, सच्ची शिक्षा नही मिलने पाई जो हमे अपने राष्ट्रीय विध्धालयों मे मिलनी चाहिए थी | बंगाल के नौजवानों के लिए, गुजरात के नौजवानों के लिए, दक्षिण के नौजवानों के लिए यह संभव ही नही है कि वह मध्यप्रदेश मे जा सकें, सयुंक्त प्रांत मे जा सकें जो सिर्फ़ हिन्दुस्तानी ही बोलते हैं | इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि अपने फ़ुरसत के घंटों मे आप हिन्दुस्तानी सीखा करें| अगर आप सीखना शुरू कर दें तो दो महीने मे सीख लेगें | उसके बाद आपको पूरी छूट है अपने गांवों मे जाने की, पूरी छूट है सिर्फ़ एक मद्रास को छोड बाकी सारे भारत मे खुल कर विचरने की और हर जगह के आम लोगों से अपनी बात कह सकने की | यह तो एक क्षण के लिए भी आप न समझ बैठें कि आम जनता तक अपनी बात पहुंचाने की आम भाषा के रूप मे आप अंग्रेजी का इस्तेमाल कर पाएंगे |
     आज हमे यह सोचना है कि हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्ष मे दिए गए यह तर्क क्या प्रासंगिक नही हैं ? क्या यह सच नही है कि देश के एक बडे हिस्से मे आज भी हिंदी ही बोली जाती है |
     अंग्रेजी की तरह अन्य प्रान्तीय भाषाओं का भी विरोध गांधी जी ने कभी नही किया बल्कि वे दक्षिण की सभी भाषाओं को संस्कृत की ही बेटियां मानते थे | उनका मानना था कि इन्हें भी फ़लने-फ़ूलने का पूरा अवसर मिलना चाहिए | परन्तु सभी लोगों की संपर्क भाषा हिंदी हो इसका प्रयास वे हमेशा करते रहे |
     अब इसे इस देश का दुर्भाग्य नही तो और क्या कहा जाए कि गांधी के सपनों का भारत बनाने की वकालत करने वाले हिंदी के नाम पर एक अल्ग ही सुर अलापने लगते हैं | क्या यह सच नही कि राष्ट्र्भाषा के रूप मे हिंदी की जो कल्पना गांधी जी ने की थी, उससे अभी हम कोसों दूर हैं बल्कि अंग्रेजी व प्रान्तीय भाषाओं को लेकर आज भी उलझे हुए हैं |

     दर-असल अब हिंदी के नाम पर राजनीति की जाने लगी है | मौजूदा विरोध का एक्मात्र कारण भी यही है | अन्यथा इस तथ्य से मुंह नही मोडा जा सकता कि एक संपर्क भाषा के रूप मे हिंदी ही इस देश मे अधिक प्रभावी है | हमे इस बात को भी स्वीकार करना ही होगा कि यह देश सिर्फ़ अपनी ही भाषा और संस्कृति के बल पर ही आगे बढ सकता है | साथ ही अगर हम गांधी जी के सपनों के भारत की बात करते हैं तो हमे भाषा के सवाल पर भी उनके विचारों को पूरा करना ही होगा | राजनैतिक फ़ायदों के लिए अनावश्यक भाषाई विवाद इस देश के हित मे तो कतई नही है | 

शुक्रवार, 20 जून 2014

पहाड जाने वाली सडक

        
 ( L.S.Bisht ) -चंद दिनों के सैर-सपाटे के बाद, न चाहते हुए भी अंतत: विदाई लेनी ही पडी अपने पहाडों, वादियों और हरे भरे जंगलों से | लौटना ही था इक ऐसे शहर मे जिसका जन्म और कर्म दोनो से ही गहरा जुडाव रहा है मेरी जिंदगी से |  लेकिन उन पहाडों और घाटियों की तरफ़ पीठ करके राजधानी आने वाली सडक पर आना मेरे लिए कभी भी इतना आसान नही रहा | यह हमेशा मेरे लिए बेहद भावुक लम्हे रहे हैं | पहाड के यह सीढीदार खेत और मकान चाहे कितने ही छोटे क्यों न हों , अपनेपन का एहसास तो दिलाते ही हैं | यह हमारे पुरखों की उस इतिहास को जीवंत रखते हैं जो कभी इन घाटियों , जंगलों और पहाडों से जुडे रहे हैं | रिश्तों की विरासत की यह डोर बरसों बरस बाद भी कहीं से कमजोर नही दिखती | शायद अपनी मिट्टी, खेतों, जंगलों, झरनों और नदियों से यह जुडाव  ही मुझे  खींचता रहा है | सिर्फ़ मैं ही नही, मेरी उम्र के तमाम लोग जो हिमालय क्षेत्र की इन वादियों से कहीं दूर आ बसे हैं ,इस संवेदना को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं |
          दर-असल पहाड की यह त्रासदी रही है कि हिमालय का यह अंचल प्राकृतिक सौंदर्य की द्र्ष्टि से चाहे कितना ही समृध्द क्यों न रहा हो लेकिन रोजगारविहीन तथा सुविधाओं की कमी और दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियां यहां के वाशिंदों के पलायन का कारण बनी हैं | जिस तरह पहाडी नदियां अपने साथ वहां की उपजाऊ मिट्टी को बहा कर मैदानों पर लाती हैं ठीक  वैसे ही रोजगार के लिए लोगों का पलायन आजादी के बाद से बदस्तूर जारी रहा | राजधानी आने वाली सड्कों का मोह उन्हें दिल्ली, लखनऊ और मुंबई जैसे शहरों की तरफ़ ले तो आता है लेकिन फ़िर यह शहर व महानगर उन्हें अपने मोहपाश मे ऐसा बांध लेते हैं कि अपनी मिट्टी से उनका नाता टूटने और बिखरने लगता है | न चाहते ह्ये भी वह वहीं का होकर रह जाता है | और फ़िर अपने ही पहाडों से उसका रिश्ता उन चंद दिनों तक सीमित होकर रह जाता है जब वह गर्मियों मे बच्चों के स्कूल की छुट्टियों मे यहां आता है और फ़िर एकदिन छुट्टियां खत्म होने पर  भारी मन से उसे लौटना ही पडता है अपने उस शहर की ओर जो उसकी बेहतर जिंदगी के सपनों से जुडे हैं |
     वीरांन होते पहाड के गांव इस त्रासदी के गवाह हैं | यह एक ऐसी सच्चाई है जो किसी सरकारी आंकडों की मोहताज नहीं | पुरूष विहीन होते पहाड की ढालों मे बसे हजारों गांव इस  सच के स्वंय गवाह हैं | सपनों के यह शहर रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें वह सबकुछ  तो देते हैं जिनकी चाह मे उसने कभी अपने गांव, जंगलों को अलविदा कहा था लेकिन एक उम्र गुजर जाने पर उसे फ़िर अपनी जडों की याद सालने लगती है | याद आने लगते हैं बचपन कि दिन, संगी साथी , सीढीदार छोटे-छोटे खेत, चीड, शाल और देवदार के जंगल, आंचलिक कहानियों को समेटे सुरीले लोकगीत | लेकिन नगरों-महानगरों मे बसे बहुत कम ही लोग अपनी जमीन से दोबारा जुड पाते हैं | एक बडी संख्या उस शहर की होकर रह जाती है जहां बेहतर जिंदगी के जिद्दोजहद मे उसने अपनी उम्र के कई द्शक होम कर दिए और फ़िर आने वाली पीढियों के लिए तो वापसी मानो एक सपना बन कर रह जाती है
      उत्तराखंड कहे जाने वाले हिमालय के इस अचंल के वाशिदों की इस भावनात्मक पीडा की एक अलग ही अनकही कहानी है लेकिन अलग राज्य के बाद कुछ उम्मीदें जगी हैं | धीरे धीरे विकास की सीढियां चढता यह सीमांत प्रदेश एक दिन संभवत: रोजगार की इतनी संभावनाएं विकसित कर सकेगा कि भविष्य मे पहाड से मैदानों की तरफ़ पलायन स्वत: ही खत्म होने लगे | बहरहाल जब तक यह संभव नही, तब तक  मेरी तरह वादियों के इन वाशिदों को भी पहाड जाने वाली सडक हमेशा रोमांचित  और आकर्षित करती रहेगी | 

11/508, Indira Nagar,

Lucknow 

शुक्रवार, 13 जून 2014

हाथों से दूर होती किताबें

      
( L.S. Bisht ) -  हम जानबूझ कर सच्चाई से मुंह न मोडना चाहे तो यह्बात स्वीकार कर ली जानी चाहिए कि आज जो उप्भोक्तावादी संस्क्रृति हमारे चारों तरफ़ विकसित हो रही है उसमे किताबों का बाजार तेजी से सिमटता जा रहा है | कपडों के फ़ैशन की बात हो या फ़िर अपने चेहरे मोहरे को सजाने संवारने की या फ़िर फ़र्राटेदार गाडी मे हवा से बात करने हुए जमाने से भी आगे निकल जाने की, इन सभी के प्रति तो हम काफ़ी जागरूक हुए हैं | लेकिन पढने-पढाने की प्रवत्ति तेजी से घट रही है |वरना और क्या कारण हो सकता है कि जहां एक तरफ़ नये नये उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार खूब फ़ल-फ़ूल रहा है वहीं दूसरीतरफ़ रोज एक नया बुक स्टाल खुलता है और जल्द ही परचून की दुकान मे तब्दील हो जाता है |
     आज हालात यह हैं कि पूरा बाज्रार घूम आइए सजी धजी दुकानों मे सबकुछ मिल जाएगा लेकिन कहीं कोई ऐसी दुकान शायद ही मिल सके जहां आप अपनी जरूरत की साहित्यिक किताबें या कुछ स्तरीय पत्रिकाएं खरीद सकें | अल्बत्ता किसी कोने मे फ़ुटपाथ पर लावारिश सी पडी कुछ पत्रिकानुमा चीजें भडकीले कवर पृष्ठों के साथ जरूर दिख जायेगीं |
     बाजार से हट कर अगर हम अपने घर की दुनिया को भी थोडा गौर से देखें तो पता चलेगा कि  यहां भी पत्र-पत्रिकाएं व पुस्तकें गैरजरूरी चीजें समझी जाने लगी हैं| तुर्रा यह कि मंहगाई का रोना रोते ह्ये हम फ़्रीज, टी वी, एअरकंडीशन तो खरीद सकते हैं लेकिन एक किताब नही | बाजार मे उप्भोक्ता वस्तुओं की कीमतों का ग्राफ़ जरा भी ऊपर गया नही कि हम घरेलू खर्चों मे कटौती की बात सोचने लगते हैं और तब सबसे पहले हमारा ध्यान  जाता है हर माह या सप्ताह आने वाली पत्रिकाओं पर | इससे हम नाता तोड लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं |
     उसके बाद जरूरी हुआ तो कटौती की कैंची चलती है रोज सुबह आंगन मे गिरने वाले अखबार पर और इस तरह इन्हें अपने घरेलू बजट से बाहर कर हम चैन की सांस लेते हैं मानो मंहगाई की मार पर हमने सफ़ल हमला कर उसे पराजित कर दिया हो | पढने की आदत से छुटकारा पाने की यह प्रवत्ति तेजी से विकसित हुई है और अब तो शायद हम भूल ही गए हैं कि किताबें कभी हमारी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं |
     कम्प्यूटर और इंटरनेट ने भी किताबों को कम नुकसान नही पहुंचाया | जब एक क्लिक पर पूरी दुनिया की जानकारी आपकी आंखों के सामने हो तो भला किताबों के पन्ने पलटने की जहमत कौन उठाना चाहेगा | लेकिन छ्पे शब्दों को पढने वाले लोगों को पता है कि कागज पर छ्पे शब्दों और स्क्रीन पर चमकते शब्दों मे क्या अंतर है | वह बात कहां | अगर सिर्फ़ यही कारण होता तो दर्जनों न्यूज चैनलों के रहते अखबार कब का दम तोड चुके होते | लेकिन ऐसा तो नही हुआ | अखबार आज भी सुबह की जरूरत बना हुआ है | इसका सीधा सा मतलब है कारण कहीं और भी हैं |
     थोडा पीछे मुड कर देखें तो बहुत समय नही गुजरा जब प्रदेश मे इलाहाबाद, बनारस व लखनऊ जैसे शहर साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र माने जाते थे | यहां से  न सिर्फ़ श्रेष्ठ व स्तरीय साहित्य का प्रकाशन होता था अपितु उसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए पुस्तकालयों व पुस्तक केन्द्रों का एक जाल सा बिछा था | किसी भी नई किताब पर चर्चा न हो यह असंभव था | अब न तो ऐसी दुकाने रहीं और सार्वजनिक पुस्तकालयों की दुर्दशा की तो अपनी कहानी है | आलम यह है कि यह बचे खुचे पुस्तकालय युवक-युवतियों के मिलन स्थल बन कर रह गये हैं |
     इधर कुछ वर्षों से शहरों मे जो बडी बडी आवासीय योजनाएं बनी हैं उनमे दो चीजें नदारत मिलेंगी | एक है सार्वजनिक शौचालय दूसरा पुस्तकालय | बाकी शापिंग माल्स, मल्टी फ़्लैक्स, आइसक्रीम पार्लर, ब्यूटी पार्लर, साइबर कैफ़े और यहां तक कि बार भी आसानी से दिख जायेंगे |
     कुल मिला कर आज स्थिति यह है कि पुस्तकें समाज से दूर हो रही हैं | इसे यह भी कहा जा सकता है कि समाज ही किताबों से दूर हो रहा है | कभी कधार पुस्तक मेलों का आयोजन भी किया जाता है लेकिन वहां भी चहल कदमी करने वालों की ही संख्या ज्यादा दिखाई देती है | किताबों के शौकीन कम ही नज्रर आते हैं | फ़िर भी ऐसे आयोजन जरूरी हैं | कम से कम कुछ पाठकों को तो किताबें सुलभ हो ही जाती हैं |
     सवाल सिर्फ़ किताबों या पैसों का ही नही है बल्कि सम्मूर्ण बौध्दिकता और संस्कृति का है | इससे बडा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जहां कभी किताबें आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा रही हों वहीं आज पाठक अच्छे साहित्य से दूर खडा दिखाई देता हो | यहां तक कि छात्र भी अपनी पाठय पुस्तकों को छोड कुछ और पढना न चाहते हों | समाज और किताबों के बीच बढ्ती इन दूरियों पर आज एक गंभीर चिंतन की आवश्यकता है | प्र्काशन से लेकर बाजार व्यवस्था तक के पूरे तंत्र की पडताल की जानी चाहिए | इस विषय पर भी सोचा जाना चाहिए कि आखिर पुस्तक प्रकाशन क्यों घाटे का व्यवसाय बनता जा रहा है | जब कि हमारे गांव-कस्बों व शहरों मे आज भी करोडों पाठक हैं |
     कुचक्र मे फ़ंसी किताबों की दुनिया की उलझनों को समझने के लिए हमे आज के परिवेश को भी समझना होगा | यह सच है कि आज दूरदर्शन ने एक ऐसा तिलिस्म रच लिया है जिसके बाहर सब्कुछ बदरंग सा दिखने लगा है | रही सही कसर पूरी की है हमारे हिन्दी सिनेमा ने | इसके साथ ही आम भारतीय के सुधरते जीवन स्तर पर पाश्चातय संस्कृति की छाप ने भी कम नुकसान नही पहुंचाया | लेकिन इन रंगीन आकषर्णों व बदलाव के बीच पढने की आदत भी समान्तर रूप से साथ-साथ रही होती अगर लेखक , प्रकाशक व प्रिन्ट मीडिया ने अपनी भूमिका का निर्वाह ईमानदारी से किया होता |  दोष दूरदर्शन  या सिनेमा का नही बल्कि प्रकाशन से जुडे उस तंत्र का है जो बदलाव की बयार मे शुतुर्मुगी सिरगडाऊ युक्तियों से बचने का प्रयास करता रहा है | और आज भी एक विधवा की तरह विलाप कर रहा है |
     आज लेखक को न पढे जाने का दुख है तो प्रकाशक को किताबें न बिक पाने की चिंता | हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का रोना इस बात पर है कि हिन्दी के पाठक स्तरीय और गंभीर साहित्य पढना ही नही चाहते | सवाल उठता है कि यह स्थिति मराठी, मलयालम या बंगला जैसी दूसरू भाषाओं के साथ क्यों नही है | हिन्दी जैसी भाषा जिसके पास एक विराट आकाश है पाठक को नही तलाश पा रही है |
     बहरहाल किताबों की दुनिया कई कुचक्रों मे फ़ंसी दिखाई देती है | अब तो पत्र-पत्रिकाओं का पूरा मिजाज ही बदल चुका है | पाठकों मे पढने के संस्कार डालने जैसी भूमिका से प्रिन्ट मीडिया पूरी तरह से दूर हो चला है | जो बिके वही छापो की नीति अपनाई जा रही है | अब वह चाहे अशलील हो या फ़ूहड, इससे कोई लेना देना नही | कभी अखबारों मे सामयिक लेख, फ़ीचर , कहानी व कविता आदि प्रकाशित हुआ करते थे, अब आधे-अधूरे कपडों मे युवतियों की फ़ोटो , युवाओं के नाम पर सिर्फ़ फ़ैशन या आधुनिकता की बे-सिर पैर की बातें | आखिर यह सब परोस कर क्या उम्मीद की जा सकती है कि यह पीढी आगे चल कर गंभीर साहित्य का पाठक बनेगी | अगर नई पीढी मे अच्छा पढने के संस्कार विकसित करने हैं तो दैनिक पत्रों व पत्रिकाओं को वापस लौटना होगा | अगर इस दिशा मे गंभीरता से न सोचा गया तो एक दिन  किताबो का जादू हमेशा के लिए खत्म हो जाऐगा |

     

रविवार, 8 जून 2014

कुछ दर्द हैं वादियों के भी

     

       ( L.S. Bisht ) - मैदानों की उमस भरी गर्मी से बेदम हमे याद आने लगती हैं पहाड की रूमानी तस्वीर यानी खूबसूरत वादियां, हिमाच्छादित चोटियां और हरे-भरे ज़ंगल | चन्द दिनों के लिए ही सही, हम पहाड की इन खूबसूरत वादियों मे खो जाने का सपना लिए निकल पड्ते हैं | ऐसी ही हर साल सैलानियों की भीड वहां पहुंचती है और पहाड की वादियां देसी विदेशी सैलानियों के कह्कहों से गूंजने लगती हैं | 
     लेकिन रूमानी सपनों से अलग सच्चाई की जमीन पर खडे होकर देखें तो सपनों का यह पहाड अब बहुत बदल गया है | आसपास की वादियां धीरे धीरे अपना सौन्दर्य खो रही हैं | हरे भरे जंगल उजाड हो रहे हैं और साथ ही यहां के सांस्कृतिक परिवेश पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं |
     दर-असल पहाड की यह त्रासदी रही है कि उसकी पहचान हिल स्टेशन के रूप मे बनी | आजादी के पहले भी पहाड हिलस्टेशन थे | अंग्रेजों ने यहां की गर्मी से राहत पाने के लिए कई ठंडे सैरगाहों की खोज की | 1815 से औपनिवेशिक शासन के अंत तक लगभग 80 हिलस्टेशन बनाए | जो यूरोपीय आबादी और व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे | जैसे दिल्ली के पास शिमला, मसूरी व नैनीताल, मुम्बई के पास पुणे, महाबलेश्वर और द्क्षिण मे उटकमंड आदि | यह हिलस्टेशन इस तरह से बसाए गए कि स्थानीय आबादी और साधनों पर उनका पूरा अधिकार हो |
     यही नही, इन लोगों ने मकानों, नदी-नालों व स्कूली क्षेत्रों का भी भूगोल ही बदल दिया | यही कारण है कि आज इतने वर्षों बाद भी यहां तमाम नामी पब्लिक स्कूल हैं |
     वस्तुत: आज जितने भी हिल स्टेशन हैं वे सभी अंग्रेजों के सैरगाह थे | परन्तु हिल स्टेशन बने इन पर्वतीय स्थलों के प्रति उनका नजरिया भोगवादी रहा | पहाड की ठंड व सौन्दर्य का भोग लगा उसे कूडेदान की तरह बेतरतीब छोड आना इन हिल स्टेशनों की नियती थी | लेकिन गौरतलब यह है कि आजादी के बाद भी यह नजरिया बहुत बदला नही है |
     पहले पहल अंग्रेजों की इस परंपरा को जारी रखने वाला एक छोटा सा उच्च वर्ग था लेकिन वक्त के साथ यहां आने वाले सैलानियों की संख्या बढ्ती गई | सरकारी नौकरी मे यात्रा भ्रमण की सुविधा का लाभ उठाने वाले बाबूओं से लेकर एअरकंडीशन डिब्बों मे ‘ सरकारी दौरे ‘ मे आने बाले ‘ साहबों ‘ के लिए गर्मियों मे यहां आना अब एक फ़ैशन सा बन गया है |
     पहाड को देखने वाली नजरें भी रोमांटिक रही हैं | यही कारण है कि आज भी पर्यटक चाहे वह किसी भी वर्ग का हो, एक खास नजर से पहाड को देखता है | वहां वह उस दुनिया को तलाशता है जो उसने सिनेमा के पर्दे या बडे घरों की दीवारों पर लगी पेटिंग मे देखा है |
     पहाड की हिमाच्छादित चोटियां और खूबसूरत वादियां उसे रोमांचित करती हैं | वह घोडों पर चढ कर गहरी घाटियों को देखता है, बहते हुए झरनों के साथ खेलता है और कैमरे मे पहाड को कैद करता है | हरे-भरे जंगलों मे हनीमून के एकान्त का सुख भोगता है | इस तरह हिल स्टेशन के रूप मे पहाड को भोग कर सैलानी वापस आ जाता है अपने मुकाम पर | वहां रह जाता है उसके अविवेक क्रियाकलापों का सबूत, रौंदी हुई फ़ूलों की घाटी, जहां तहां पडे डिब्बे व जूठन और शराब की खाली बोतलें |
     यही नही, चंद दिनों के लिए बसने वाली पर्यटकों की इस दुनिया का ही परिणाम है यहां के स्थानीय लोगों मे जी हुजूरी की प्रवत्ति बढती जा रही है | चंद पैसो के लिए अब यहां का वाशिन्दा मुस्कुराहट चिपकाए विनम्र मुद्रा मे खडा आने वाले सैलानियों का इंतजार करता है | तमाम जलालत भुगतने के बाद मिले चद रूपयों, शराब की बोतलों तथा बख्शीश या ‘ ईनाम-किताब ‘ को वह अपनी बडी उपलब्धी मानने लगा है |
     यही नही, पर्यटकों का स्वच्छंद व उन्मुक्त व्यवहार यहां की युवापीढी को आकर्षित करता है | परिणामस्वरूप हिलस्टेशन बने पहाड के छोटे शहरों मे वह सभी बुराईयां आने लगी हैं जो अब तक मैदानी शहरों तक सीमित थीं | पर्यट्कों की चकाचौंध अमीरी व ठाठ से सम्मोहित हो वह भी महानगरों मे आने को मचलने लगता है |
     गर्मियों मे सैरगाह बने पहाड की पीडा को देखना हो तो मसूरी, अल्मोडा या नैनीताल चले आइए लेकिन रोमाटिंक नजरों से देखने वाली आंखों से नही दिखेगी यह पीडा | अपने ‘ साब लोगों ‘ तथा हनीमून मनाने आए जोडों के लिए स्थान जुटाने की चिंता मे किस तरह स्वंय बेघर हो जाते हैं यहां के वाशिंदे | ऊंचे किराये पाने के लोभ मे किस तरह स्वंय कहीं अंधेरे कोने मे दुबक जाते है यह लोग | यह सब चन्द पैसों के लिए | एक तरह से इन शहरों मे स्थानीय लोगों का सामाजिक जीवन बुरी तरह से अस्त व्यस्त हो जाता है | सारी गतिविधियां अपने पर्यट्क मेहमानों को खुश करने तक सीमित हो जाती हैं | लेकिन विडंबना तो यह हैकि पहाड के सैलानी कस्बों व शहरों की इतनी बडी मानवीय त्रासदी पर्यट्न के आधुनिक ग्लैमर की मोटी पर्तों के अंदर से झांक तक नही पा रही |
     इसके साथ ही जैसे जैसे पहाड मे पर्यटन पनप रहा है वहां अपराधों की संख्या मे भी वृध्दि हो रही है | पर्यटन स्थलों मे चोरी, मारपीट, धोखाधडी की घटनाएं आम होती जा रही हैं | अक्सर पर्यट्कों के साथ शहरों से कुछ अपराधी तत्व भी आ जाते हैं जो न सिर्फ़ सैलानियों का अहित करते हैं वल्कि स्थानीय लोगों को भी अपना शिकार बनाते हैं | इस तरह पहाड अप्ने मौलिक परिवेश को भी खोने लगा है |
     जहां तक पर्यटन से पहाड के विकास की बात है वह भी पूरी तरह सच नही है | आज का पर्यटक दिल्ली, लखनऊ, मुम्बई से सीधे वीडियो कोच से पहाड पहुंचता है और यहां से उन तेज रफ़्तार वाहनों के साथ बडे बडे होट्लों मे लंच, डिनर करते हुए यहां चहलकदमी नही बल्कि दौड लगाता है | इसका सीधा असर पडा है पहाडी सड्कों के ढाबों और दुकानों पर | घुमन्तू यात्रियों के रूकने से उन्हे कुछ लाभ मिलता भी था वह भी अब नही रहा | आज सड्कों के किनारे के ढाबों और दुकानों के स्थानीय दुकानदार पर्यट्कों को बस देखते रह जाते हैं | पहाड मे स्थिति यह है कि पर्यटन केन्द्र बन जाने के बाबजूद परम्परागत कलात्मक वस्तुओं के कारीगर बेकारी मे दिन काट रहे हैं |
     तल्ख सच्चाई तो यह है कि सैरगाज बनता पहाड चंद लोगों के लिए बेशक एक सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन गया हो लेकिन यहां के आम स्थानीय लोगों की तो परेशानियां कुछ और बढ जाती हैं | जहां एक्तरफ़ कुछ होट्ल मालिकों, बस कंपनियों तथा बडे व्यापारियों व एजेन्टों की जेबें भारी हो रही हैं वहीं आम वाशिंदा बाजार की मंहगाई से त्रस्त रोज शाम मायूस हो घर लौटता है | +
     इस तरह हिल स्टेशन के रूप मे सैरगाह बनी यहां की वादियों के अपने दर्द है लेकिन सिनेमा के परदे पर वादियों की एक सपनीली दुनिया को देखने की अभ्यस्त हमारी रोमांटिक नजरों से वादियों का यह चेहरा हमे कभी नही दिखाई देता |