( L.S. Bisht ) -भाषा के सवाल को लेकर एक बार फ़िर वही घमासान दिखाई देने लगा है जो कभी साठ के दशक मे दिखाई दिया था | इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद जब जब अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को सम्मान व गौरव देने की बात उठाई गई, तब-तब इस देश मे भाषाई राजनीति शुरू हो गई | विरोध के इन स्वरों का केन्द्र हमेशा दक्षिण भारत ही रहा है | आज भी तमिल राजनीति इसके विरोध मे खडी दिखाई दे रही है | इस राज्य की पहल पर फ़िर अन्य भाषाई राज्यों मे भी हिंदी के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है | तमिल, मलयालम, मराठी, गुजराती व अन्य भाषाओं को लगने लगता है कि उनका वजूद खतरे मे पड रहा है या उन्हें दूसरे दर्जे का स्थान देने का प्रयास किया जा रहा है |
यहां गौरतलब यह भी है कि विरोध का यह शोर कहीं से भी तार्किक प्रतीत
नही होता | केन्द्र सरकार द्वारा जारी परिपत्र को अगर गंभीरता व ध्यान से,
पूर्वाग़ृहों से मुक्त हो कर पढा जाये तो उसमें हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिए प्रयास करने की बात तो
कही गई है परन्तु ऐसा कुछ नही है कि अन्य भाषाओं को बलपूर्वक पीछे धकेला जा रहा हो
| ऐसे मे यह एक अनावश्यक विवाद ही जान पड्ता है | लोकतंत्र मे भाषा के नाम पर अपनी
क्षेत्रीय राजनीति चमकाने व अपने वोट बैंक को मजबूत करने का इससे अच्छा उदाहरण
दूसरा नही मिल सकता |
एक तरफ़ हम देश के विकास की बात करते हैं और
प्रत्येक क्षेत्र मे अपने स्वयं के साधनों द्वारा और अपने प्रयासों से ही आगे बढने
की वकालत करते हैं | अपनी ‘ पूरब की संस्कृति ‘, धर्म, अध्यात्म व संस्कारों का
बखान करते हुए यूरोपीय देशों को कमतर आंकते हैं परन्तु जब बात हिन्दुस्तान मे
हिंदी की आती है तो सारा राष्ट्रीय प्रेम उडन छू होता दिखाई देने लगता है | और फ़िर
भाषा को लेकर सभी अपनी-अपनी ढपली बजाने लगते हैं | यह कैसा देश प्रेम है, समझ से
परे है |
यहां यह स्मरण करना भी जरूरी है कि यदि हम
गांधी के सपनों का भारत बनाने का संकल्प
बार-बार दोहराते हैं तो हमे भाषा के सवाल पर भी उनके विचारों को समझना होगा | 29
मार्च 1918 को इंदौर मे हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें अधिवेशन मे गांधी जी ने
कहा था “ भाषा हमारी मां की तरह है | पर हमारे अंदर मां के लिए जितना प्यार है
उतना इसके लिए नही | दर-असल इस तरह के सम्मेलनों मे मुझे कुछ खास दिलचस्पी नही है
| तीन दिन का यह तमाशा कर लेने के बाद हम अपनी अपनी जगह वापस चले जायेंगे और यहां
जो कुछ कहा और सुना गया है, सब भूल जायेगे | जरूरत तो काम करने की, लगन और निश्चय
की है | “
गौर करें यह बातें आज भी उतनी ही प्रांसगिक
हैं जितनी उस समय थी | हिंदी के शुभचिंतक कहे जाने वाले कितने ही आज भी सम्मेल्नों
व जलसों तक हिंदी को कैद रखे हुए हैं | गांधी जी ने हिंदी की वकालत की तो इस्के
पीछे उनकी अपनी विचारधारा थी |वे देश की, यहां के नागरिकों की जरूरत समझते थे | आज
की तरह नही कि हिंदी भाषी इसलिए इसका समर्थन करता है क्यों कि वह हिंदी बोलता है |
तमिल या कोई दूसरा इसलिए विरोध करता है क्योंकि वह हिंदी नही बोलता | अंग्रेजी
बोलने वाला इसलिए विरोध करता है क्योंकि वह अंग्रेजी ही बोलता-लिखता है |
कलकत्ता (कोलकता) मे 23 जनवरी,1929 मे दिये
गए भाषण मे गांधी जी ने कहा था “ आपको और मुझको और हममें से किसी को भी, सच्ची
शिक्षा नही मिलने पाई जो हमे अपने राष्ट्रीय विध्धालयों मे मिलनी चाहिए थी | बंगाल
के नौजवानों के लिए, गुजरात के नौजवानों के लिए, दक्षिण के नौजवानों के लिए यह
संभव ही नही है कि वह मध्यप्रदेश मे जा सकें, सयुंक्त प्रांत मे जा सकें जो सिर्फ़
हिन्दुस्तानी ही बोलते हैं | इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि अपने फ़ुरसत के घंटों मे
आप हिन्दुस्तानी सीखा करें| अगर आप सीखना शुरू कर दें तो दो महीने मे सीख लेगें |
उसके बाद आपको पूरी छूट है अपने गांवों मे जाने की, पूरी छूट है सिर्फ़ एक मद्रास
को छोड बाकी सारे भारत मे खुल कर विचरने की और हर जगह के आम लोगों से अपनी बात कह
सकने की | यह तो एक क्षण के लिए भी आप न समझ बैठें कि आम जनता तक अपनी बात
पहुंचाने की आम भाषा के रूप मे आप अंग्रेजी का इस्तेमाल कर पाएंगे |
आज हमे यह सोचना है कि हिंदी को राष्ट्र भाषा
बनाने के पक्ष मे दिए गए यह तर्क क्या प्रासंगिक नही हैं ? क्या यह सच नही है कि
देश के एक बडे हिस्से मे आज भी हिंदी ही बोली जाती है |
अंग्रेजी की तरह अन्य प्रान्तीय भाषाओं का भी
विरोध गांधी जी ने कभी नही किया बल्कि वे दक्षिण की सभी भाषाओं को संस्कृत की ही
बेटियां मानते थे | उनका मानना था कि इन्हें भी फ़लने-फ़ूलने का पूरा अवसर मिलना
चाहिए | परन्तु सभी लोगों की संपर्क भाषा हिंदी हो इसका प्रयास वे हमेशा करते रहे
|
अब इसे इस देश का दुर्भाग्य नही तो और क्या
कहा जाए कि गांधी के सपनों का भारत बनाने की वकालत करने वाले हिंदी के नाम पर एक
अल्ग ही सुर अलापने लगते हैं | क्या यह सच नही कि राष्ट्र्भाषा के रूप मे हिंदी की
जो कल्पना गांधी जी ने की थी, उससे अभी हम कोसों दूर हैं बल्कि अंग्रेजी व
प्रान्तीय भाषाओं को लेकर आज भी उलझे हुए हैं |
दर-असल अब हिंदी के नाम पर राजनीति की जाने
लगी है | मौजूदा विरोध का एक्मात्र कारण भी यही है | अन्यथा इस तथ्य से मुंह नही
मोडा जा सकता कि एक संपर्क भाषा के रूप मे हिंदी ही इस देश मे अधिक प्रभावी है |
हमे इस बात को भी स्वीकार करना ही होगा कि यह देश सिर्फ़ अपनी ही भाषा और संस्कृति
के बल पर ही आगे बढ सकता है | साथ ही अगर हम गांधी जी के सपनों के भारत की बात
करते हैं तो हमे भाषा के सवाल पर भी उनके विचारों को पूरा करना ही होगा | राजनैतिक
फ़ायदों के लिए अनावश्यक भाषाई विवाद इस देश के हित मे तो कतई नही है |