मंगलवार, 28 जुलाई 2015

ऐसे तो खत्म न होगी आतंकी दहशत


( L. S. Bisht ) - इस बार गुरदासपुर । पांच नदियों का प्रदेश जिसने हिंसा का एक दौर देखा है, फिर दहल गया है । एक पीढी गुजर गई जिसने पंजाब के उस लहुलुहान चेहरे को देखा और दर्द की चीखें सुनीं । आज फिर चेहरे पर भय की रेखायें । इसलिए नही कि फिर हिंसा के दानवों ने हमारी चौखट पार की है, बल्कि इसलिए कि कहीं यह उस स्याह दौर की दस्तक तो नही जिसे भुलाये जाने की पुरजोर कोशिशें अब भी जारी हैं ।
सीमा पर गोलियों और बम की आवाजों से किसी को सिहरन नही होती ।लेकिन जब यही आवाजें घर के अंदर जहां हम अपने को सबसे ज्यादा सुरक्षित समझते हैं सुनाई देती हैं तो डरना स्वाभाविक ही है । तीन आतंकी आए और फिर हमे घाव दे गये । अब तो लगता है कि हम इन घावों के अभ्यस्त से होते जा रहे हैं । इन घावों से रिसते खून को येनकेन रोकने के लिए मानो हम दवा-पट्टी लेकर हमेशा तैयार बैठे हों ।
आतंकी घटनाओं मे अकाल मृत्यु के ग्रास बने अपने जवानों, अफसरों और नागरिकों को " शहीद " का दर्जा दे मानो फिर मौत की अगली दस्तक का इंतजार करने लगते हैं । रोज--रोज होने वाले यह धमाके और फिर दिल को चीर देने वाली चीखों को मानो हम अपनी नियति मान बैठे हैं । लगता है हर ऐसे हादसे के बाद लाशों को गिनने के लिए हम अभिशप्त हैं । एक सन्नाटा सा पसरा है । जहां किसी को कुछ सूझ नही रहा ।
दर-असल गौर से देखें तो पाकिस्तान प्रायोजित यह आतंकवाद हमारी मानसिक कमजोरी पर बार बार चोट कर हमे आहत कर रहा है । वह जांनता है कि अतीत की सैनिक असफलताएं अब इतिहास बन गई हैं । 1965 हो या फिर 1971 या करगिल युध्द पारंपरिक युध्द शैली मे उसे मुंह की खानी पडी है । आज के हालातों मे भी उसे शिकस्त दिवारों पर लिखी साफ दिखाई दे रही है । लेकिन एक परमाणु सम्पन देश होने का जो तमगा उसने लगा दिया है, इससे वह अपने को ऊंचाई पर खडा देख रहा है ।
बार बार भारत को घाव देने के बाबजूद भारतीय सेना ने सीमाओं की हद नही लांघी । इसे वह अपनी एक उपलब्धी समझने लगा है । यहां तक कि करगिल युध्द मे भी भारतीय सेनाएं अपनी ही जमीन पर खडी थीं । यह उसने स्वयं नंगी आंखों से देखा है ।
कहीं न कहीं परमाणु अस्त्रों को वह भारत की लाचारगी का कारण मानने लगा है । समय समय पर परमाणु युध्द की धमकी देने मे भी उसे कोई हिचकिचाहट नहीं । भारतीय पक्ष को देखें तो शायद लाचारगी का यही कारण समझ मे भी आता है । अन्यथा दुनिया की एक बेहतरीन विशाल सेना वाले देश का नित घाव खाना और आहत होना समझ से परे है ।
इसमे अब कोई संदे ह नही कि भारत को अगर इस प्रायोजित आतंकवाद को रोकना है तो पडोसी की इस धमकी से पार पाना ही होगा । ऐसा भी नही कि युध्द रण्नीतियों की किताबों मे इसका कोई जवाब ही न हो । महाभारतकालीन चक्र्व्यूह जिसे एक अजेय व्यूह रचना समझा जाता रहा उसको भी भेदने की कला अर्जुन को मालूम थी । इसी तरह आधुनिक युध्द कौशल मे भी ऐसा संभव है कि परमाणु शस्त्रों का जखीरा सिर्फ देखने की चीज बन कर रह जाए और उसका उपयोग ही संभव न हो सके । आक्रामक युध्द शैली अनेक संभावनाओं के रास्ते खोलती है । वैसे भी गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले इस देश को अब यह समझ लेना चाहिए कि कभी चीन के राष्ट्र्पति माउत--तुंग ने यूं ही नही कहा था कि " पीस क्म्स फ्रोम बैरल आफ गन " यानी शांति बदूंक की नाल से आती है । आज वह देश न सिर्फ समृध्दि के ऊंचे पायदान पर खडा है बल्कि दुनिया की एक ताकत भी है ।


बहरहाल अब समय आ गया है कि आतंक की इस दहशत से मुक्ति के लिए नितांत नई संभावनाओं पर विचार करें । अन्यथा इसका काला साया पूरे देश को अपनी गिरफ्त मे ले लेगा और तब हम अपने को लाचारगी की स्थिति मे देख रहे होंगे ।

सोमवार, 20 जुलाई 2015

घाटी मे आतंक का बदलता चेहरा



( एल. एस. बिष्ट ) दिल्ली की राजनीति मे राजनीतिक दलों के बीच नित नये आरापों-प्रत्यारोपों से थोडा अलग हट कर देखें तो घाटी मे आतंक का एक नया चेहरा उभरता दिखाई देने लगा है । रूबिया अपहरण कांड के बाद हिंसा और अलगाव की जिस लहर ने पूरी घाटी को अपने चपेट मे ले लिया था, अब एक बार फिर वही हालात बनते दिखाई दे रहे हैं । अभी तक देश घाटी मे आतंक के जिस चेहरे व तेवर से परिचित रहा है उसमे तेजी से बदलाव आता दिख रहा है । युवाओं की बढती भागीदारी स्प्ष्ट दिखाई देने लगी है । बडी संख्या मे कश्मीरी युवा विरोध प्रदर्शनों मे आने लगे हैं । यही नही, इधर कुछ समय से घाटी के प्रदर्शनों मे इस्लामिक स्टेट और फिलस्तीन के झंडे भी कुछ ज्यादा ही नजर आने लगे हैं । इन झंडों का कुछ समय पहले तक घाटी से कोई रिश्ता नही था ।

इधर हाल मे अमेरिका के विदेश विभाग ने आतंकवाद की अपनी 2014 की जो वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की है इसमे इस्लामिक स्टेट के बढते प्रभाव पर चिंता व्यक्त की है । इस रिपोर्ट मे यह भी बताया गया है कि वैसे अभी तक बहुत कम भारतीय इस आतंकी संगठन से जुडे हैं परंतु भारत मे मुस्लिम आबादी को देखते हुए अधिक संख्या मे लोगों के इस्लामिक स्टेट से जुडने की संभावनाओं से इंकार नही किया जा सकता ।

इस संदर्भ मे देखें तो यहां पाकिस्तान के झंडों का लहराया जाना व पाकिस्तान समर्थक बैनरों का दिखाई देना कोई बडी बात नही रही । लेकिन जिस तरह से अब आए दिन इस्लामिक स्टेट के झंडे दिखाई देने लगे हैं , यह आने वाले खतरे की द्स्तक है । बहुत संभव है आतंक का यह नया चेहरा कश्मीर घाटी के रास्ते देश मे अपनी जडें जमाने की संभावनाओं को तलाशने लगा हो । युवाओं की बढती भागीदारी तो इसी तरफ इशारा कर रही है । अगर ऐसा है तो यह वास्तव मे एक बडा खतरा है जिसे समय रहते समझना और खत्म करना होगा । अगर इन झंडों के प्रदर्शन और उनको लेकर लगाए जाने वाले अलगाववादी नारों पर गंभीरता से ध्यान नही दिया गया तो बहुत संभव है देश के दूसरे हिस्सों मे भी इसका विस्तार दिखाई देने लगे ।
वैसे भी इस संगठन के मुखिया अबु बकर अल बगदादी मुस्लिम युवाओं को दुनिया में इस्लामिक स्टेट का सपना दिखा कर अपनी लडाई में शामिल करते आये हैं । बगदादी अपने मजहबी भाषणों और वीडियो के जरिये मुस्लिम युवाओं को यह समझाने में सफल रहा है कि दुनिया में इस्लाम खतरे मे है और शरीयत के अनुसार एक इस्लामिक देश बनाया जा सकता है जो दुनिया पर राज करे लेकिन इसके लिए एकजुट होकर लडना होगा । कई देशों के युवा उसकी बातों से प्र्भावित हो उसके साथ शामिल हो चुके हैं ।

   अगर सीरियन आब्जर्बेटरी फार ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट के आंकडों पर विश्वास करें तो इस संगठ्न के पास लगभग 50 हजार लडाके इरान में और 30 हजार सीरिया में हैं । इनमें अच्छी खासी संख्या विदेशी लडाकों की भी है । इनमें मुख्य रूप से फ्रांस, ब्रिटेन, चेचेन्या आदि देशों के युवा शामिल हैं । यह खतरा भारत मे भी मंडराने लगा है ।
यही नही, यह संगठन अब मासूम बच्चों को अपना मोहरा बनाने लगा है । पांच साल से 14 साल तक के बच्चों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देकर इन्हें लडाई में झोंका जा रहा है । दर-असल बच्चों को शामिल करना इस संगठन की बहुत सोची समझी रणनीति है । यह एक पीढी के मासूम दिलो-दिमाग में अभी से नफरत पैदा कर इस्लाम के लिए लडने वाले जेहादियों की एक खतरनाक फौज तैयार कर रहा है । उसका मकसद आने वाले समय के लिए इन्हें तैयार करना है ।
यही नही, इन बच्चों को लडाई के मोर्चों पर एक ढाल के रूप में भी इस्तेमाल करने की उसकी सोची समझी योजना है । इसलिए जरूरी है कि भारत मे इस खतरे को समय रहते महसूस किया जाए तथा ऐसा न हो इसके लिए कारगर रणनीति बना कर इस आतंकी संगठन के इरादों को पूरा न होने दिया जाए ।


     इधर घाटी मे कुछ आतंकी युवाओं ने आतंक के लिए भारतीय सेना की वर्दी का इस्तेमाल करने की भी योजना को अमल मे लाने का प्रयास शुरू किया है । आतंक का यह चेहरा बेहद डरावना है । इसकी शुरूआत अभी हाल मे ही हुई है । इस तरह कुल मिला कर घाटी मे आतंक का एक नया चेहरा अपनी शक्ल लेने लगा है । इस्लामिक स्टेट और फिलिस्तीन के झडे इस ओर साफ इशारा कर रहे हैं और युवाओं की बढती भागीदारी भी । जरूरी है कि इन प्रयासों को शुरूआती दौर मे ही खत्म कर दिया जाए । अन्यथा एक बार जडे जमा लेने के बाद इसे रोक पाना इतना आसान नही रहेगा ।  

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

मां के सम्मान का फैसला

(एल. एस. बिष्ट ) - अभी हाल मे उच्चतम न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले मे कहा है कि अब बिन ब्याही मां अपने बच्चों की कानूनी रूप से अभिभावक ( गार्जियन ) हो सकती है । इसके लिए बच्चे के पिता से अनुमति लेने की जरूरत नही होगी । अदालत ने अपने ;फैसले मे कहा है कि अगर कोई अविवाहित मां बच्चे का बर्थ सर्टिफिकेट बनवाने की अर्जी लगाए तो उसे यह सर्टिफिकेट दिया जाए । अदालत ने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि समाज बदल रहा है । ऐसी महिलाओं की संख्या बढ रही है जो स्वंय बच्चे की परवरिश करना चाहती हैं । यह सही नही होगा कि ऐसे पिता की अनुमति को जरूरी माना जाए जो बच्चे को न तो  कानूनी तौर पर रखने को तैयार है और न ही बच्चे से वह कोई मतलब रखना चाहता है ।

देखा जाए तो न्यायालय का यह फैसला मां के रूप मे एक औरत के सम्मान से जुडा ऐतिहासिक फैसला है । यह सच है कि पिता चाहे कोई भी हो लेकिन मां हमेशा मां रहती है । ऐसे समय मे जब भारतीय समाज मे परंपरागत मूल्य तेजी से बदल रहे हों तथा स्त्री-पुरूष संबधों मे खुलेपन की नित नई खिडकियां खुलने लगी हों, इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए ।

दर-असल भारतीय समाज परंपरागत रूप से पुरूष प्रधान रहा है । इस द्र्ष्टि से महिलाओं की सामाजिक भूमिका बहुत ही सीमित रही है । एक महिला का जीवन घर-परिवार की चाहरदीवारी तक ही सीमित होकर रहा है । बरसों बरस तक हमारे समाज मे महिलाओं ने इसे एक परंपरा के रूप मे सहर्ष स्वीकार किया है । इसलिए भूमिका को लेकर कभी भी अहम के टकाराव जैसी  बात देखने को नही मिली । लेकिन इधर विकास व उन्नति की सीढियां चढते भारतीय समाज मे बहुत कुछ ऐसा नया जुडा है जिसकी कल्पना साठ या सत्तर के दशक मे संभव नही थी ।

घर के चारदीवारी तक सीमित रहने वाली औरत ने बाहर की दुनिया मे भी अपनी भूमिका को तलाशा तथा उसे निर्वाह करने कि लिए अपने को एक अलग ही मानसिक सांचे मे ढालने का सफल प्रयास किया । रसोई व बच्चों से हट कर जब वह दूसरे क्षेत्रों मे भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी तो कई पारंपरिक मूल्य व विचार यकायक दरकने लगे । खुली हुई खिडकियों से उसने अपने अलग वजूद को देखा और समझा । यहीं से शुरू हुई उसके अपने अधिकारों व सम्मान के लिए लडाई जो अब भी जारी है । अस्सी के दशक मे चर्चित टी वी कलाकार नीना गुप्ता  वेस्ट इंडिज के क्रिकेटर विवियन रिचडर्स से संबधों के चलते बिन ब्याही मां बनी थीं और तब इस मामले ने सामाजिक क्षेत्र मे एक तहलका मचा दिया था । लेकिन इधर समय चक्र के साथ सामाजिक जीवन मे बहुत कुछ बद्ला है ।

खुलेपन व समाज मे महिलाओं की बढती भागीदारी के फलस्वरूप वह सवाल भी   सामने आने लगे हैं जिन पर कभी सोचा ही नही गया । स्त्री पुरूष दैहिक संबधों की तमाम उलझनें मुखरता से अपने जवाब तलाश रही हैं । वे तमाम सामाजिक बातें जिन पर परदेदारी रही हैं, बेपर्दा हो गईं । प्यार, सेक्स व विवाह संबधों से उपजे सवालों पर जो बेबसी व लाचारगी की स्थिति को वह झेलती रही है उससे मुक्त होने के प्रयास मे वह पूरे जी जान से जुट गई है । मानवीय भूलों या अनचाही दुर्घटनाओं की स्थिति मे चाहे बलात्कार के बाद अनचाहे गर्भधारण की बात हो या फिर सहमति से बनाये गये रिश्तों के फलस्वरूप जन्म लेने वाले बच्चे का सवाल हो, उसकी स्थिति हमेशा निरीह रही मानो सारा दोष उसी का रहा हो ।

आज बेबसी व लाचारी के इस अंधेरे से ही उसे उजाले मे लाने के प्र्यास किये जा रहे हैं । जिससे वह भी समाज मे सम्मान के साथ जी सके । न्यायालय का यह फैसल्ल उसी उजाले की ओर ले जाने का एक प्र्यास है जहां उसे किसी पुरूष का मोहताज न रहना पडे । सही अर्थों मे यह एक मां का सम्मान है चाहे उसकी संतान के पिता का  रिश्ता कानूनी रूप से स्वीकार्य हो या न हो लेकिन चूंकि वह उस बच्चे की मां है इसलिए उस पर उसका पूरा अधिकार है । आने वाले समय मे तेजी से बदलते समाज मे इसका बडा दूरगामी प्रभाव पडेगा ।