बुधवार, 26 मार्च 2014

समझाना है उसको मगर्

 
                                           

( एल.एस. बिष्ट )  - यह पत्र अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक के नाम लिखा था । यह इतिहास का एक दस्तावेज ही नही बल्कि मानवीय मूल्यों व चरित्र का एक ऐसा आईना भी है जो देश व काल की सीमाओं से परे है और शायद यह पत्र आज के हालातों मे विशेष रूप से हमारे देश मे, जहां शिक्षा मे जीवन मूल्यों की बात सिरे से नदारद है, कही ज्यादा प्रासंगिक है । क्या आज के अभिभावकों की अपने बच्चों के प्रति वही सोच है जो इस महान व्यक्ति की रही है । यह पत्र बरबस ही हमें सोचने को मजबूर करता है ।

                 
मानता हूं कि सीखना ही होगा उसे
कि नही होते न्यायप्रिय सब लोग
और न होते हैं सच्चे
मगर पढाएं यह भी आप
कि दुर्जन ही नही,
होते हैं समर्पित नेता भी
पढाएं उसे कि शत्रु नही सब, होते हैं मित्र भी
मालूम है मुझे , इसमे लगेगा समय ।
लेकिन अगर पढा सकते हों तो उसे पढायें
कि गाढी कमाई का एक रूपया , सैकडों रूपये से बढ कर होता है ।
समझाएं उसे कि हारना सीखे
और जीत का भी आन्नद उठाए ।
राग- देव्स से विरत उसे रख सकते हों तो रखें
मौन हास्य का भेद उसे, जैसे भी हो, समझाएं ।
सीखने दें आरम्भ से उसे कि
आसान है वश करना शठ को
यदि सम्भव हो तो उसे किताबों की खूबियां बताएं
लेकिन उसे दे कुछ समय कि वह
आकाश् मे परिंदों का, उजाले मे भंवरों का
हरियाले पहाडों मे फूलों का शाश्वत रहस्य समझे ।
पढायें उसे पाठशाला में
कि नकल की बजाए अच्छा है फेल होना
उसे सिखाएं अपने विचारों पर भरोसा करना
चाहे हर कोई उन्हें गलत ही ठ्हराए
उसे सिखाएं सज्जनों से करे सद्व्यवहार
और दुष्टों से करे रूखाई ।
मेरे पुत्र को दिलाएं शक्ति, न बनाएं उसे अनुगामी
जैसे आज हर कोई बना है लकीर का फकीर
उसे सिखाएं कि वह हर शख्स की बात सुने
किंतु यह भी सिखाएं कि सुनी बातों को
सच्चाई की परत से छान कर
सिर्फ अच्छाई को ही गुने ।
सिखा सकते हो, उसे सिखाएं
हंसे कैसे जब हो वह उदास्
समझाएं उसे कि आंसूओं मे कैसी शर्म
और समझाएं कि ढीठों को झिडक दे
और बेहद मीठीपन से सावधान रहे
उसे बताएं अपनी अक्ल और हिम्मत का बेहतर इस्तेमाल्
और किसी भी सूरत अपने मन और आत्मा को कभी न बेचे ।
उसे बताएं बेवजह गुल-गपाडों को अनसुना करना
और जो ठीक लगे, उसके पक्ष मे संघर्ष करे ।
पेश आएं नम्रता से मगर न दुलराएं उसे
क्योंकि आग मे तपकर ही लोहा बनता है फौलाद ।
उसमे अधीर होने का साहस पैदा करें
बहादुर बनने का, धैर्य उसमें होने दें
उसे सिखाएं खुद पर सदा करे अटूट विश्वाश
क्योंकि मानवता पर तब ही होगा उसका विश्वाश
यह बात बडी कह डाली है
देखें आप क्या कर पाते हैं
वह प्यारा सा नन्हा बेटा
उसे क्या क्या आप दे पाते हैं ।
*      *            *           *           *         *          *           *             *          *






शनिवार, 22 मार्च 2014

फेसबुकियों की है अजीब दास्तां

                                         


     { एल. एस. बिष्ट }    मेरे फेसबुकिये मित्रों की भी अजीब दास्तां है । कहीं किसी मर्दाने नाम के पीछे औरत छुपी बैठी है । तो कहीं किसी कमसीन चेहरे के पीछे कोई मर्द घात लगाए बैठा है  और कहीं मित्र बिना चेहरे के फेसबुक पेज पर चहल कदमी कर रहे हैं। फोटो की जगह कहीं खूबसूरत फूल तो कहीं दो साल का बच्चा खींसे निपोड्ता हुआ, तो कोई मशाल लगाए , कोई मुट्ठी ताने यानी किस्म किस्म के प्रतीक चिन्हों के साथ  विराजमान हैं लेकिन चेहरा नदारत ।



        अब यह समझ से परे है। अगर नाम है तो चेहरा भी होगा और चेहरा है तो फोटो भी । फिर य्ह गांव गवेडी महिलाओं की तरह घूंघट क्यों ? सीना तान कर चेहरे के साथ आने मे कोई शर्म है क्या । भाई हमे भी तो पता च्ले कि आखिर हम लाइक या कमेंट कर किसे रहे हैं । महिलाओं का  घूंघट
मे रहना तो जमाने को देख्ते समझ मे आता है लेकिन पुरूषों का यह तिलिस्म समझ से परे है ।

     बात यही तक नही है । कहीं कहीं तो इसके उल्टा भी है । खूबसूरत कमसीन चेहरा युवती का ! पीछे बैठे हैं 60 साल के बुर्जूग या 25साल का गबरू जवान । दिल फेंक शायरी, कविताएं लिख लिख थोक के भाव लाइक कमेंट बटोर रहे हैं और कभी कभी दिलफेंक आहें भी ।

यही नही, कहीं तो आंटी जी अपनी जवानी की फोटो लगाए अपने गुजरे जमाने को याद कर रही हैं लेकिन कुछ बेचारों का भी खूबसूरत चेहरे को देख, लाइक की लार ट्पकाते टपकाते मुंह सूखा जा रहा है । अरे भाई क्यों इमोश्नल अत्याचार कर रहे हो, अच्छी बात नही । फेंक दो यह खूबसूरत नकाब ।  दूसरी तरफ देखो तो मित्रों को लाइक का अकाल पडा है । बेचारे 4000 या 5000 मित्रों की टोली लिए बैठे हैं और लाइक है कि नसीब मे नही । थोडा उनका भी दिल रख लो भाई वरना एक दिन वह भी उसी रास्ते पर आ जायेगे और फिर पता च्ला कि फेसबुक पर फेक प्रोफाइलों की संख्या ज्यादा असली की कम हो गई ।  इन बेचारों को भी लाइक देकर गले लगा लो ।
 
     वैसे फेसबुक के यह मित्र भी अजीब होते  हैं । ज्यादातर नदारत ही रहते हैं । लाइक के समय न जाने कहां छिप जाते हैं । ढाई सौ मे 15-20 नजर आऐगें । सोच रहा हूं गुमशुदी की रिर्पोट लिखा दूं , पता तो चले आखिर हैं कहां ।

     अब जब बात चल ही पडी है तो बताते चलें  कि फेसबुक पर तो कुछ मित्रों ने  हमे अपना बचपन ही याद दिला दिया जब कक्षा मे बोर्ड पर सबसे पहले कोई आदर्श वचन लिखा दिखाई देता था । अमल करें या न करें घुट्टी रोज पिलाई जाती थी - सदा सच बोलो, गरीबों की मदद करो, माता पिता की सेवा करो और भी न जाने क्या क्या । कुछ मित्र इन स्कूली दिनों को याद दिलाने का काम फेसबुक पर भी बखूबी कर रहे हैं खूबसूरत कार्डों पर लिखी अच्छी अच्छी बातों को   चिपका कर । तरस गये उनके हाथों से लिखे दो शब्द पढ़ने के लिए । भगवान जाने वह दिन आऐगा भी कि नही या यही कार्ड पढ़ते हुऐ हम बुढ़ा जायेगें ।

     एक प्रजाती और मिली टांग (टैग) देने वाली । चाहो न चाहो आप को टांग कर ही दम लेगें ।इतना टांग देगें कि आपका दम ही निकल जाए । कई बार गिड़गिड़ा चुके हैं देखिए दिल कब पसीजता है । वैसे दया याचिका लगी हुई है ।  सच तो यह है कि इन फेसबुकिये  मित्रों की कहानियों का कोई अंत नही ।  जितने ज्यादा मित्र उतनी ज्यादा कहानियां । मुख्य कथा के साथ अनेक उपकथाएं । बस यही कहा जा सकता है  कि फेसबुक है तो फेस करना ही होगा । यथा नाम तथा स्वभाव ।

एल.एस. बिष्ट,
11 / 508 , इंदिरा नगर,
लखनऊ -16

मो. 9450911026     

गुरुवार, 20 मार्च 2014

कैसी हो देश की राजनीति में छात्रसंघों व युवाओं की भूमिका

                    
 नाव के समय हमें अपनी युवा शक्ति की याद आती है ।          { एल. एस. बिष्ट }  - छात्रो और  युवाओं की राजनीति में भागीदारी का सवाल पिछले कई वर्षों से चर्चा का विषय रहा है विशेष कर जब जब देश में चुनाव की रणभेरी बजी है या जब कभी इस  युवा  शक्ति  ने  किसी बडे आंदोलन को जन्म दिया या फिर किसी घटना विशेष पर अपने तीखे आक्रोश से लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल हुए , यह सवाल बहस का विषय बना यह दीगर बात है कि चंद

दिनों के बाद इस पर गंभीर चिंतन की जहमत कभी नही उठाई गई छात्रसंघों व  युवा संगठनों  में  राजनीति किस सीमा तक होनी चाहिये यह अभी तक तय नही हो सका है। क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि जहां दुनिया के दूसरे देशों में यह भूमिका स्पष्ट है वहीं दुनिया के सबसे बडे इस लोकतांत्रिक देश मे जहां युवा  निर्णायक  भूमिका  मे  हैं तस्वीर अभी तक साफ नही हो पायी है।
          देश के अधिकांश विश्वविधालयों कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव होते हैं रंगीन पोस्टर बैनरों से कुछ दिन के लिए पूरा शहर पट सा जाता है प्र्चार युध्द भी कम आक्रामक नही होता अब तो परिसर के अंदर कम बाहर शोर अधिक सुनाई देता है हिंसात्मक घटनाओं से लेकर उम्मीदवार के अपहरण हत्या तक की वारदातों को देख सुन अब किसी को हैरत नही होती। विजयी उम्मीदवारों के जुलूस पूरे शहर को मंत्रमुग्ध कर आकर्षण तथा चर्चा का विषय बनते हैं लेकिन इसके बाद यह छात्र नेता और छात्रसंघ क्या कर रहे हैं इसका पता किसी को नही लगता इतना अवश्य है कि समय समय पर दुकानों को लूट्ने, होट्लों में बिल अदा करने, स्थानीय ठेकों को हथियाने के प्र्यास में मारपीट करने के कारण छात्र शक्ति चर्चा का विषय बंनती है । या  फिर  चुनाव  के  समय  हमें   अपनी युवा शक्ति की  याद  आती  है ।
                   वर्तमान से उठते इन सवालों पर जरा गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि नाउम्मीदी के बादल इतने घने भी नही हैं अतीत गवाह है कि महात्मा गांधी, सुभाष च्न्द्र बोस और जय प्र्काश नरायण के आहवान पर छात्र संगठन जो कर गुजरे वह आज इतिहास बन गया है
          स्वतंत्रता पूर्व की इस युवा राज्नीति का सुनहला इतिहास रहा है 1905 में कलकत्ता विश्वविधालय के दीझांत समारोह में लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की बात बडे ह्ल्के ढंग से कही थी लेकिन छात्रों को समझते देर लगी जल्द ही पूरे राज्य मे इसके विरूद आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी अंग्रेज सरकार हैरत मे पड गई बंगाल से उपजी यह चेतना जल्द ही दूसारे राज्यों में भी फैल गयी 1920 मे नागपुर में अखिल भारतीय कालेज विधार्थी सम्मेलन हुआ और नेहरू के प्र्यासों से छात्र संगठनों को सही अर्थों मे अखिल भारतीय स्वरूप मिला इसके बाद वैचारिक मतभेदों को लेकर संगठनों में टूट फ़ूट होती रही
          कुछ वर्षों तक कुछ भी सार्थक हो सका सत्तर के दशक में दो महत्वपूर्ण घट्नाएं अवश्य युवा राजनीति के क्षितिज मे उभरीं पहला 1974 मे ज़े.पी. आंदोलन जो व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर शुरू हुआ। दूसरा असम छात्रों का आंदोलन जिसकी सुखद परिणति हुई तथा युवा छात्र सत्ता में भागीदार बने बाकी याद करने लायक कुछ दिखाई नही देता मंडल आयोग को लेकर युवा आक्रोश जिस रूप मे प्र्कट हुआ इससे तो एक्बारगी पूरा देश हतप्र्भ रह गया ।



          इधर कुछ वर्षों से छात्र राजनीति मे राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप इस सीमा तक बढा है कि इसमे वे छात्र ही उभर सकते हैं जो किसी किसी राजनीतिक दल से जुडे होने और सभी चुनावी पैतरों का इस्तेमाल कर सकते हों
          दलगत राजनीति के साथ ही जातीय , क्षेत्रीय साम्प्र्दायिक समीकरणों को भी बल मिला है बिहार उत्तर प्र्देश के अधिकांश कालेजों में चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लडे जा रहे हैं इस तरह स्थिति बद से बदतर हो रही है। जिस तरह से परिसर मे दलीय राजनीति अपना रंग दिखाने लगी है इससे यह बात साफ हो चली है अब निर्णय लेना होगा कि परिसर की राजनीति संसद या विधानसभाओं को मद्देनजर च्लाई जानी चाहिये या सिर्फ छात्रों द्दारा परिसर के लिऐ क्योंकि इन दो अलग अलग उदेश्यों के लिऐ भिन्न राजनीतिक चरित्र का होना जरूरी है
          ऐसा नही कि छात्र व युवा राजनीति में संभावनाओं का आकाश बहुत सीमित है ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिन्होने आगे चल कर राष्ट्रीय राजनीति मे महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन छात्र जीवन मे उन्हे किसी राजनैतिक दल की छ्तरी की आवश्यकता महसूस नही हुई डा. जाकिर हुसैन अलीगढ विश्वविधालय की ही उपज थे। इनके अलावा डा. मौलाना आजाद, शेख अब्दुल्ला , फखरूदीन अली अहमद भी अपने छात्र जीवन मे यहां के छात्र संगठन से जुडे रहे इलाहाबाद  विश्वविधालय के छात्र संघ ने भी कई राजनेता देश को दिये । हेमवती नंदन बहुगुणा , वी.पी.सिंह , चंद्र्शेखर, नुरूल हसन, जनेश्वर मिश्र , मोहन सिंह आदि ने राष्र्टीय राजनीति मे अपनी पुख्ता पहचान बनाई। लखनउ विश्वविधालय और दिल्ली  विश्वविधालय ने तो कई नेताओं को संसद पहुंचाया ।
          लेकिन यह उपलब्धियां उस दौर की हैं जब सिद्दांत परक राजनीति का ही परिसर मे वर्चस्व था आज फिजा बहुत बदल गई है। युवा राजनीति बुनियादी उद्देश्यों से भटक गई है। आज के संगठन जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा द्लगत राजनीति के शिकार होकर रह गये हैं। यही नही, राजनीतिक दलों द्दारा इनका इस्तेमाल किया जाने लगा है ।

      सोचा जाना चाहिए कि यह किस प्र्कार की राजनीति है जो लोहिया जय प्र्काश का नारा देकर आगजनी लूटपाट को बढावा दे रही है। इसी राजानीति का ही परिणाम है कि छात्र आंदोलन आम छात्र से कटने लगा है। ' आई हेट पालिटिक्स ' कहने वाले व्रर्ग का जन्म इसी राजनीति के गर्भ से हुआ है । इधर कुछ समय से युवा वर्ग मे सुखद बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे हैं वह राजनीति को समझ्ने की कोशिश करने लगा है और उसमे भागीदारी भी वह आवाज उठाने लगा है। अपने वोट के महत्व को वह समझने लगा है । स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी है

एल.एस.बिष्ट,
11/508, इंदिरा नगर,                                                         मो.  9450911026
लखनऊ