बुधवार, 25 मार्च 2015

विचारों पर पहरे की रिहाई


 ( L. S. Bisht ) - साइबर दुनिया की उडान जितनी तेजी से अपनी ऊंचाईयों तक पहुंची उतने ही इसमें उलझाव भी दिखाई देने लगे । भारत जैसे विकासशील देश मे यूरोपीय देशों की तुलना मे यह साइबर दुनिया अभी अपने शुरूआती दौर मे है लेकिन खतरे कई गुना । अब तो अन्य किस्म के अपराधों के साथ साइबर अपराध ने भी तेजी से अपनी जडें जमाना शुरू कर दिया है । इन खतरों के मद्देनजर इंटरनेट की तिलिस्मी दुनिया को नियंत्रित करने के लिए आईटी एक्ट सन 2000 मे बना और 2008 मे इसमें कुछ परिवर्तन किए गये । लेकिन इसकी धारा 66ए मे जल्द ही विवादास्पद होने का टैग लग गया ।

शुरूआती दौर मे तो इस धारा को लेकर सबकुछ सामान्य ही रहा लेकिन बहुत जल्द ही सत्ता मे बैठे लोगों और कुछ रसूखदारों ने इसका दुरूपयोग करना शुरू कर दिया । यहीं से इस पर बहस व चर्चा की शुरूआत हुई । अभी हाल मे उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली मंत्री आजम खान के खिलाफ ' आपत्तिजनक ' पोस्ट डालने के आरोप मे बरेली के एक छात्र को जिस तरह से गिरफ्तार किया गया, उस पर पूरे देश मे तीखी प्रतिक्रिया हुई । अंतत: उच्चतम न्यायलय ने एक जनहित याचिका के माध्यम से ह्स्तक्षेप करते हुए इस एक्ट की 66 ए धारा को खारिज कर दिया । इस निर्णय का पूरे देश ने स्वागत किया ।

दर-असल आईटी एक्ट की इस धारा को उच्चतम न्यायालय ने संविधान मे अनुच्छेद 19 (1) मे दिये गये अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के खिलाफ माना है । न्यायालय का मानना है कि 66-ए की भाषा अस्पष्ट है । इसमे न तो आरोपी को पता है और न ही सरकारी अथारिटी को कि क्या अपराध है और क्या नही । इस धारा के चिढाने वाला, असहज करने वाला, पीडादायक और अपमानजनक जैसे शब्द अस्पष्ट हैं ।
अपराध स्पष्ट रूप से परिभाषित न होने के कारण ही इसका दुरूपयोग किया जाने लगा था । यही कारण है कि बाल ठाकरे के निधन पर एक टिप्पणी करने के अपराध मे दो लडकियों को गिरफ्तार किया गया । उन्होने सिर्फ यह लिखा था कि मुंबई डर की वजह से बंद हुई है न कि सम्मान की वजह से । तब इस गिरफ्तारी को लेकर राजनीति काफी गर्म हुई थी लेकिन जल्द ही सबकुछ भुला दिया गया । कुछ ऐसा ही पांडेचरी मे हुआ । वहां एक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर दिया गया उसने पी.चिदंबरम के बेटे के खिलाफ कुछ आपत्तिजनक लिखा । इसी तरह कुछ समय पहले ममता बनर्जी के एक कार्टून को लेकर भी गिरफ्तारी की गई । मई 2012 मे मुंबई के एक व्यक्ति को नेताओं के अपमांजंनक चुटकले शेयर करने के लिए जेल की हवा खानी पडी । ऐसे तमाम मामले हाल के वर्षों मे होते रहे हैं । इधर कुछ समय से तो यह एक सिलसिला ही बन गया । राजनेताओं की थोडी सी आलोचना कर देना इस धारा मे अपनी गिरफ्तारी को न्योता देना जैसा हो गया । इस तरह विरोध और असहमति को दबाने का यह एक हथियार बन गया ।
इस धारा का इतना दुरूपयोग किया जाने लगा कि आम आदमी फेसबुक पर कुछ भी लिखने व शेयर करने से डरने लगा । राजनीतिक टिप्पणी लिखने से पहले वह कई बार सोचता कि कहीं किसी को इसमे कुछ ' आपत्तिजनक ' न लग जाए और वह मुसीबत मे फंस जाए । अब इस धारा के हटने से उसे कुछ राहत महसूस हुई है । लेकिन ऐसा भी नही है कि इस धारा को हटाने के बाद कुछ भी लिखने का असीमित अधिकार मिल गया हो । राहत बस इतनी सी है कि अब किसी को तुरंत गिरफ्तार नही किया जा सकता । पहले की तरह सरकार के पास फेसबुक, टिवटर अकाउंट आदि को ब्लाक करने का अधिकार मौजूद है ।
गौर करने वाली बात यह भी है कि अभी भी आई.पी.सी की तमाम धाराएं हैं जिनसे साइबर दुनिया से जुडे अपराधों को रोका जा सकता है और प्रभावी हस्तक्षेप भी किया जा सकता है । जैसे कि देशद्रोह जैसी बातें लिखने या शेयर करने के विरूध्द आई.पी.सी की धारा 124 ए के तहत मुकदमा दायर किया जा सकता है । इसमे उम्रकैद तक की सजा का प्राविधान है । इसी तरह दो संप्रदायों के बीच नफरत फैलाने वाली किसी भी सामग्री के विरूध्द धारा 153 के तहत कार्रवाही की जा सकती है । इसमे 3 साल तक की सजा का प्राविधान है । जानबूझ कर अफवाह फैलाने के लिए आईपीसी की धारा 505 है । इसमे भी 3 साल तक की सजा हो सकती है । यह धाराएं प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व अन्य सभी माध्यमों मे लागू होती हैं । यानी एक तरह से 66-ए हटने के बाद भी अगर इंटरनेट पर कोई सामग्री से आई.पी.सी की धाराओं का उल्लघंन होता है तो कार्रवाही होगी ।
बहरहाल, इस विवादास्पद धारा के हटने से सोशल मीडिया मे सक्रिय लोगों को थोडा राहत महसूस हुई है । अब कोई उन्हें रातों रात गिरफ्तार नही कर सकेगा । लेकिन यहां यह समझना भी जरूरी है कि इससे किसी को भी कुछ भी लिखने के असीमित अधिकार नही मिल जाते । यह सच है कि इस धारा के दुरूपयोग से अभिव्यक्ति की आजादी प्रभावित होने लगी थी लेकिन समाज व देश के प्रति जिम्मेदारी जस की तस है । ऐसा कुछ भी नही लिखा या दिखाया जाना चाहिए जिससे राष्ट्र व समाज का अहित हो ।


यह भी सच है कि साइबर दुनिया से हमारा रिश्ता अभी बहुत पुराना नही है । हम अभी शुरूआती दौर मे हैं इसलिए बहुत कुछ सीखना शेष है । यह हमारी एक ताकत है और इसलिए इसका उपयोग किस तरह किया जाना चाहिए , यह समझना और सीखना भी हमारे लिए बेहद जरूरी है । हर चीज की अपनी सीमाएं होती हैं हमें सोशल मीडिया मे अपनी इन सीमाओं को भी समझना होगा । समाज हित व व्यक्तिगत आजादी का संतुलन ही इसे हमारी दुनिया के लिए उपयोगी बना सकेगा अन्यथा इसके दुष्परिणामों को झेलना भी हमारी नियति होगी । 

रविवार, 22 मार्च 2015

पहाड के मेलों में होती हैं सुख-दुख की बातें

               
( एल एस बिष्ट ) -  उत्तराखंड का पर्वतीय अंचल न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से भिन्न है बल्कि लोक संस्कृति की भी यहां अपनी अलग छ्टा है ।

कठिन जीवन का पर्याय बने इस अंचल मे स्थानीय मेलों का एक अलग सांस्कृतिक व सामाजिक महत्व रहा है । अतीत मे और आज भी, आवागमन के साधनों की कमी व सड्कों के अभाव ने इस अंचल के लोकजीवन को एक अलग ही रंग दिया है ।

     तमाम बदलावों के बाबजूद उत्तराखड के मेले आज भी काफ़ी सीमा तक अपने पारम्परिक स्वरूप मे दिखाइ देते हैं ।आज भी इन मेलों मे पहाडियों की गोद मे बसे दूर दूर के गांवों से लोग आते हैं और साल भर न मिल पाने वाले संगी साथी , नाते-रिश्तेदार , सखियां यहां अपनी सुख दुख की बातें करते हैं । यही नही पहाडों से बहुत दूर, मैदानों के बडे शहरों मे ब्याही पहाड की बालाओं को भी यह मेले बरबस याद आते हैं ।
          पर्वतीय अंचल के लोकगीतों मे इन मेलों के भावनात्मक पहलू पर बहुत कुछ कहा गया है । न जाने कितने गीत स्थानीय मेलों को लेकर रचे गये हैं । ऐसा ही एक गढ्वाली गीत है –
जब जैली कौतिक मैंणा सेलु दगण्या पेट्ली,  हरि साडी, लाल ब्लाउज मथ पैड़ा मुंड बांधली । कानु मां तेरो कुडल होल , हल हल हलकड़ैं , हरि साड़ी लाल_ _ _( एक सहेली दूसरे से कहती है हे मैणा जब तू मेला देखने जाएगी तेरी सभी सहेलियां जाने को तैयार होगीं । जब तू हरी साडी और लाल ब्लाउज पहन कर बालों को सजा, कानों में कुंड्ल पहन कर जाएगी तब वह कुडंल हल हल कर हिलेंगे )

     परदेस मे नौकरी कर रहे गांव के युवक भी इन मेलों मे सम्मलित होने के लिए बेताब रहते हैं । आखिर क्यों न हों । उनकी बचपन और युवा उम्र की न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें इन मेलों से ही तो जुडी होती हैं । मीलों दूर गांवों से आए युवक-युवतियों का हुजूम यहां एक अलग ही नजारा पेश करता है । न जाने कितनी प्रणय गाथाएं यहां जन्म लेकर परवान चढ्ती हैं ।

   गढ्वाल अंचल मे लगने वाले इन मेलों का यहां के लोकजीवन से गहरा सम्बध है । प्र्त्येक मेले के पीछे कोई^ न कोई^ स्थानीय कहानी अवश्य होती  है ।
     कहीं किसी असफ़ल प्रणय गाथा की याद मे मेला लगता है तो कहीं किसी प्राकृतिक हादसे मे अकाल मौत को प्राप्त किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की याद में।महापुरूषों की स्मृति मे भी कई मेलों का आयोजन किया जाता है। कुछ स्थानों पर मेले गांव की किसी बाला या युवा की याद मे भी आयोजित किये जाते हैं जो किन्हीं कारणों से अब इस दुनिया मे नही रहे ।

     टिहरी मे बैसाख माह मे लगने वाला एक मेला मदन नेगी नाम के एक व्यक्ति की याद मे लगता है । भगीरथी नदी के तेज प्रवाह मे बह जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी । हर साल इस मेले के दिन उसे याद किया जाता है। धारकोट मे आयोजित मेले के पीछे भी एक व्यक्ति की स्मृति है जिसने नदी मे कूद कर आत्महत्या कर ली थी । पौड़ी जिले के उदयपुर पट्टी के थल नदी में लगने वाले गेंद के मेले का अपना आकर्षण है । अजमेर पट्टी और उदयपुर पट्टी के लोगों के बीच यह खेल काफी लोकप्रिय है ।  स्थानीय घट्नाओं पर भी मेले आयोजित किए जाते हैं ।

     कुछ मेले देश व क्षेत्र के कुछ ऐसे व्यक्तियों के नाम पर भी आयोजित किए जाते हैं जिन्होने देश व समाज के लिए अपने प्राणों की आहुति दी । इन मेलों की भी एक लंबी फ़ेहरिस्त है ।

     पर्वतीय अंचल के यह मेले यहां की संस्कृति और लोकजीवन की पहचान बने हुए हैं । प्रत्येक मेले की पृष्ठभूमि से यहां की मान्यताओं और लोक विश्वासों का परिचय मिलता है , लेकिन अब बद्लते वक्त के साथ इनका स्वरूप भी तेजी से बदल रहा है । यहां लगने वाले बाजार का चेहरा भी बहुत तेजी से बदल रहा है । आज जो चीजें यहां बिकने को आती हैं उन्हें देख कर यह महसूस नही होता कि यह पर्वतीय अंचल का वही बाजार है जिसमे खरीददारी करने के लिए लोग मीलों पैदल चल कर आते थे । बाजार संस्कृति ने उन भावनात्मक तारों को छिन्न भिन्न कर दिया है जो कभी इन मेला बाजारों से गहरे जुडे थे ।

            लुप्त होती मेलों की इस पुरानी पहचान का एक कारण तेजी से आ रहा सामाजिक व आर्थिक बद्लाव है। पहाडों मे सड्कों के जाल बिछ जाने से भी अब वह पुरानी बात नही रही । जरूरत की चीजें गांव ग़ांव पहुंचने लगी हैं । ऐसे मे इन मेलों का महत्व कम होता जा रहा है ।लेकिन पहाड कभी मैदान तो नही हो सकते । वह गहरी घाटियां, सीना ताने खडी चोटियां व घने जंगल, कदमों की सीमाएं स्वंय ही तय कर लेती हैं । घर से दूर ब्याही किसी लड्की को आज भी इंतजार रहता है इन मेलों का जब वह  अपने मायके की सहेलियों से मिल सकेगी ।बहरहाल बद्लाव की बयार चाहे कितनी ही तेज क्यों न हो, आज भी इन मेलों से जुडे न जाने कितने मार्मिक गीत यहां की वादियों मे गूंजते हैं । 
     

बुधवार, 4 मार्च 2015

जीवन मे बहने वाला संगीत है होली



 ( एल.एस. बिष्ट ) - अनेक पौराणिक धार्मिक मान्यताओं से जुडी होली भारतीय मन मे जैसा उछाह भरती है, कोई दूसरा पर्व नही भरता । दशहरा, दीपावली जैसे कई त्यौहारों वाले इस देश में होली का एक अपना अलग रंग है । होली यानी रंगो का यह पर्व एक तरह से पूरे समाज को एक सूत्र मे बांधने वाला पर्व भी है । ऐसा जनोल्लास किसी दूसरे अवसर पर नही दिखता ।

होली का यह पर्व पूरे समाज को प्रेम रस मे डूबो कर एक रंग कर देता है । जिस तरह वसंत अपनी सुंदरता चारों तरफ बिखेर सभी को आनंदित करता है, ठीक उसी प्रकार होली अपने रंग मे सभी को डूबो एक सूत्र मे बांधती है । होली का रंग सबसे जीवंत और अलग है । रीतिकालीन कवियों ने तो न जाने कितनी स्याही इस रंग भरे त्यौहार के वर्णन मे उडेल दी है ।

साहित्य के साथ ही गायन और नृत्य मे भी इसके रंग हैं । होली पर आधारित ठुमरियां और भजन आज भी आनंदित करते हैं । रंगों के इस पर्व को सही अभिव्यक्ति तो लोकगीतों मे ही मिली है । ब्रज और अवधी के लोकगीतों ने तो होली वर्णन मे अदभुत प्रसिध्दि पाई है । बुंदेलखंडी लोकगीतों मे भी होली खेलने का बडा मनोहारी चित्रण मिलता है । फागुन मे तो बुंदेलखंडी महिलाओं के समझ मे जो आता है, वही गाती हैं । नैनों की कटारी चलने लगती है, तो नायिका उलाहना देती है -
कटारी काहे मारे, राजा मोरे
पहली कटारी मोरे घुंघटा पे मारी
घुंघट खुल गए रे, राजा मोरे ।

नृत्यों मे कत्थक और मणिपुर नृत्यों मे इसकी अलग अलग छ्टाएं हैं , अलग अलग रूप हैं । कत्थक मे तो होली का ही रंग है । इसके सारे स्त्रोत ही कृष्ण लीलाओं और काव्य से आए हैं । और फिर कृष्ण , होली और रास इस कदर एक दूसरे से जुडे हैं कि इनके साथ सीधे इन अवसरों से जुडे ब्रज के उत्सवों की याद आती है ।

होली का यह लोकपर्व साहित्य मे हर काल मे इन्द्र्धनुषी रंगों से सरोबार रहा है । कवि नजीर ने होली के जरिए लोक तत्व की सफल अभिव्यक्ति दी है -
नजीर होली का मौसम जो जग मे आता है,
वो ऐसा कौन है, होली नही मनाता है ।

नजीर अट्ठारवीं सदी के कवि थे । हिंदुओं के साथ मुसलमान भी होली के रंग मे भीग टोलियां बना नाचते गाते थे । आम जन की इस होली का बडा ही सटीक वर्णन नजीर की काव्य रचनाओं मे मिलता है ।

अभी न होगा मेरा अंत,
अभी अभी ही तो आया है,
मेरे जीवन मे मृदुल वसंत ।
यह कहने वाले महाकवि निराला की रचनाओं मे वसंत बार बार लौटता है ।

वास्तव मे सभी बंधनों से मुक्त है होली । हमारी सभ्यता, रीति-रिवाजों और लोक लाज के तमाम बंधनों के कारण हमें उन्मुक्त अभिव्यक्ति के अवसर कम ही मिलते हैं । साल भर की कुंठाओं से मुक्ति दिलाता है होली का यह् त्यौहार । मदिरा, भांग, ढोल-मजीरा और मौज मस्ती मे बह जाता है सब कचरा । लोक उत्सव की इस रसधारा मे पूरी तरह डूब कर तभी तो गोपियां सारे लोक बधंनों को तोड एकाकार हो जाती हैं और कह उठती हैं -
हे श्याम, भुजाओं मे भर लो,
लो आज मैं तुम्हारी हो गई ।


वस्तुत: ऋतु पर्व के रूप मे मनाया जाने वाला यह फागुनी पर्व जन जन को आनंद से भर देता है । वन-प्रांतरों मे प्रकृति की मनमोहक छ्टा राग रंग की लालसा जगाती है । इसीलिए तो प्राचींनकाल से ही यह लोकपर्व मदन महोत्सव के रूप मे लोकमानस पर छा जाता है ।

बहरहाल, रोज कोई न कोई उत्सव मनाने वाले इस देश मे होली के अनेक रूप और अनेक कथाएं हो सकती हैं, परंतु किसी भी रूप मे यह एक मात्र उत्सव नहीं बल्कि लोकजीवन की आनंदमयी धारा है । जिसमें सब मिल कर एकाकार हो जाता है ।
एल.एस.बिष्ट, 11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ-16