बुधवार, 9 अगस्त 2017

ओनली लिपिस्टिक इज नाट अंडर योर बुर्का



       आश्चर्य होता है कभी कभी कि राजनीति से जुडी एक घटिया गोसिप पर मीडिया के सभी माध्यमों से लेकर सोशल मीडिया मे भी कई कई दिन तक बहस हो सकती है लेकिन प्रयोगवादी फिल्म के लबादे मे प्रदर्शित हाल की दो फिल्मों यानी “ बेगम जान “
 व लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का “ पर कुछ भी खास  सुनने, देखने व पढने को नही मिलता ।

       इत्तफाक से दोनो फिल्मों के कथानक मे महिला ही केन्द्र बिंदु पर है परंतु जिस तरह से दोनो फिल्मों ने अपनी हदें पार की , उस पर बहस या चर्चा तो होनी ही चाहिए थि । यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए था कि आखिर यह कैसी क्रियेटिव फ्रीडम है ? क्या ‘ ए’ सर्टिफिकेट देने मात्र से किसी फिल्म को पोर्न फिल्म के रूप मे दिखाने का लाइसेंस मिल जाता है ?

       अभी ताजा तरीन तथाकथित प्रयोगवादी बोल्ड फिल्म “ लिपिस्टिक अंडर माइ बुर्का “ महिला आजादी के नाम पर  नई पीढी की युवतियों को क्या संदेश देना चाहती है ? फिल्म बेवजह के उत्तेजक द्र्श्यों के माध्यम से क्या युवाओं को  विशेष कर आधुनिक बालाओं को दैहिक रिश्तों के लिए  उकसा नही रही ? फिल्म की कहानी चार महिला चरित्रों की सेक्स कुंठा व फंतासी के  इर्द गिर्द घूमती है और साथ मे पहनावे से लेकर बाहर घूमने फिरने की आजादी की वकालत करती  भी नजर आती है । फिलम एक पचपन वर्षीय  प्रौढ महिला के चरित्र के माध्यम से यह भी बताने का प्रयास करती है कि सेक्स की इच्छा सभी मे होती है । उसे बस बाहर निकलने के लिए अनुकूल हालातों या अवसर की तलाश रहती है । इन महिला चरित्रों की सेक्स जिंदगी को परदे पर जीवंत दिखाने के बहाने जिस तरह के द्र्श्य फिल्माये गये, उन्हें देख कर कोई भी शर्मशार हो जायेगा । सवाल उठता है कि बुर्के के अंदर लिपिस्टिक दिखाने के बहाने यह फुहडता दिखाना क्या गैर जरूरी नही था ।

       ऐसा नही कि कला या प्रयोगवादी फिल्में पहले नही बनीं । बल्कि गौर करें तो अस्सी व नब्बे का दशक तो कला फिल्मों का स्वर्णिम युग रहा है । सत्यजीत राय, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी , ऋषिकेशमुखर्जी , सईद मिर्जा , व महेश भट्ट आदि वे नाम रहे जिन्होने एक से बढ कर एक बेहतरीन फिल्में दी हैं । अगर कथानक की द्र्ष्टि से भी देखें तो ऐसा भी नही कि महिला विषयों पर फिल्में नही बनीं । कई फिल्में तो ऐसी रहीं हैं जो आज भी अपनी कलात्मकता , प्रस्तुतीकरण  व विषय चयन के कारण याद की जाती हैं ।

       पचास व साठ के दशक मे बनी महिला चरित्र प्रधान फिल्मों का भारतीय फिल्म  इतिहास मे एक अलग ही स्थान है । सत्तर, अस्सी व नब्बे के दशक मे भी महिला विषयों पर फिल्में बनी हैं और खूब सराही गईं । कुछ खास फिल्मों मे 1987 मे बनी  केतन मेहता की “ मिर्च मसाला “ भी रही है । इसमे सोनबाई के चरित्र मे स्मिता पाटिल के अभिनय को आज भी याद किया जाता है । इसी तरह मुख्य धारा से हट कर अल्ग विषय पर बनी फिल्म “ अर्थ “ काफी सराही गई । कुछ अच्छी महिला प्रधान फिल्मों मे ‘ आस्था ‘ , चांदनी बार ,  लज्जा , कहानी व डर्टी पिक्चर भी रही हैं । इन फिल्मों ने भारतीय संदर्भ मे औरत की सामाजिक स्थिति , उसकी समस्याओं , संघर्ष , सपनों और दुखों पर बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है  । लेकिन कहीं कोई फुहडता नही ।

       ‘ बेगम जान ‘  आजादी के पूर्व एक कोठे पर रहने वाली कुछ वेश्याओं की जिंदगी की कहानी है । उनके रूतबे और फिर बिखराव की कहानी । ऐसे ही विषयों पर पहले भी फिल्में बनीं । इनमे ‘ मंडी ‘ व बाजार जैसी फिल्में आज भी याद की जाती हैं । कुछ वर्ष पूर्व बनी ‘ चमेली ‘ ने भी कफी दर्शक जुटाये । इन सभी फिल्मों मे महिला चरित्रों की कहानी कोठे की त्रासदायक जिंदगी के इर्द गिर्द ही घूमती है । लेकिन जो खुलापन या यूं कहें दैहिक रिश्तों की नुमाइश बेगम जान मे देखने को मिली , वह इन फिल्मों मे कहीं नही थि । जबकि अपने कथानक व प्रस्तुतीकरण  के कारण मंडी जैसी कला फिलम सिने दर्शकों और समीक्षकों दवारा सराही गई । कम से कम इस द्र्ष्टि से बेगम जान पिछ्डती नजर आती है । सवाल उठता है कि क्या कोठेवालियों की जिंदगी के नाम पर इतना खुलापन परोसना गैर जरूरी नही लगता ? सच कहा जाए तो यह फुहडता की पराकाष्ठा है ।


       बहरहाल आश्चर्य इस बात पर भी है कि बात बात मे बैनर थाम लेने वाले  महिला संगठनों को भी इन फिल्मों मे कोई बुराई नजर नही आई । नैतिक मूल्यों के झंडाबरदार भी खामोश रह जाते हैं । क्या इसे बदलते भारत की एक ऐसी तस्वीर मान लिया जाए जो देर सबेर सभी को स्वीकार्य होगी , बिना किसी किंतु परंतु के ? अगर ऐसा है तो कहना पडेगा कि  वाकई हम यूरोप से कहीं आगे निकलने की राह पर हैं ।