मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

फीचर / अपने घरौदों को भूलने लगा है पहाड


यहां महक वफाओं की, मोहब्बतों का रंग है,
ये घर तुम्हारा ख्वाब है, ये घर मेरी उमंग है
ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर...........


हिमालय की घाटियों मे पहाड की ढालों पर मिट्टी, पत्थर और लकडी से बने पारंपरिक मकान कभी यहां की ग्रामीण जिंदगी का हिस्सा रहे हैं । इनसे पीढीयों का जो एक गहरा भावनात्मक रिश्ता रहा है अब वह बिखरने लगा है । हिमाचल के गांव हों या फिर उत्तराखंड के, अब इन कलात्मक मकानों के प्रति मोह कम होता जा रहा है । इनकी जगह ले रहे हैं सीमेंट, कंकरीट , ईंट और सरिया से बने मकान । मैदानी शहरों की भवन निर्माण शैली का प्रभाव अब पहाड के इन गांवों मे साफ दिखाई देने लगा है ।
एक समय था जब हिमालय के इन गांबों मे पत्थरों को कांट छांट कर, एक के ऊपर एक रख कर चिना जाता था । सीमेंट के प्रयोग के बिना ही पूरा मकान बन कर खडा हो जाता और इतना मजबूत कि बरसों बरस यूं ही सीना ताने खडा रहता । यहां के स्थानीय कारीगर इस भवन निर्माण शैली मे पारंगत हुआ करते थे । पहाड के वाशिदों की कई पीढीयां इन मकानों मे रह कर पली बढी हैं ।

लेकिन बढती समृध्दि और बदलती जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है । अब पहाड के गांवों मे भी सीमेंट और ईंट से बने मकानों की संख्या बढती जा रही है । इन्हें यहां समृध्दि का प्रतीक भी माना जाने लगा है । लेकिन एक पीढी का जो लगाव इन कलात्मक पारंपरिक पहाडी मकानों से रहा है वह इन सीमेंट कंकरीट के मकानों से कहां ? अब दिखाई नही देतीं पत्थर की ढलानदार छ्तों पर सूखती हुई मक्की या दालों के फलियां । चूल्हे से उठता धुंआ जो छ्तों, दरवाजों पर लगी लकडी को मजबूती दिया करता था और छ्ज्जे की वह गुनगुनी धूप ।


चीड और देवदार के पेडों के बीच खडे यह ईंट सीमेंट से बने मकान पहाड मे उतने ही अजनबी लगते हैं जितना एक देश के वाशिंदे गैर मुल्क में । लेकिन शायद यही है जिंदगी जो बदल रही है हिमालय की घाटियों, ढालों और वादियों मे । 

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

लापरवाही के हादसे

अतीत मे हुए दर्दनाक हाद्सों से सबक न सीखने के कारण केरल के पुत्तिंगल देवी मंदिर के हादसे मे सौ से अधिक लोगों को अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पडा । इस दर्दनाक घटना मे वास्तव मे कितने श्र्ध्दालु काल कवलित ह्ए इसकी सही संख्या का पता लगना अभी शेष है । दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस मंदिर मे आतिशबाजी की परंपरा रही है । हर वर्ष इस अवसर पर आतिशबाजी की जाती रही है लेकिन लगता है कि मानो स्थानीय प्रशासन को किसी दुर्घटना का ही इंतजार था और अब जब यह दुखद हादसा हो गया तो तमाम नियमों-कानूनों और कारणों की पडताल की बात की जाने लगी है । सच तो यह है कि इस घटना से बचा जा सकता था यदि ऐसे आयोजनों के लिए बनाये गये नियम कानूनों का पालन सुनिश्चित किया जाता । लेकिन ऐसा हुआ नही और आयोजकों की लापरवाही का खामियाजा श्र्ध्दालुओं को अपनी जान देकर चुकाना पडा । आश्चर्य तो इस बात पर है कि इतने बडे स्तर पर आतिशबाजी करने के लिए किसी प्रकार की अनुमति लेना भी आयोजकों ने जरूरी नही समझा । जब कि नियमानुसार जिलाधिकारी से इसके लिए अनुमति लेना अनिवार्य है ।

वैसे देखा जाए तो उच्चतम न्यायालय के एक आदेशानुसार रात 10 बजे के बाद आतिशबाजी नही की जानी चाहिए । लेकिन हमारे देश मे शायद ही कोई इसका पालन करता हो । घटना की तह पर जाएं तो इसके पीछे दो समूहों के बीच आतिशबाजी का मुकाबला होना ही  एक बडे कारण के रूप मे सामने आया  है । एक दूसरे से बेहतर आतिशबाजी की होड इस कदर हावी होती है कि इससे आवाज का शोर ही एक खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है । इस बारे मे कुछ स्थानीय लोगों का विरोध हमेशा से रहा लेकिन इसे अनसुना किया जाता रहा । अंतत: यह लापरवाही इस हादसे के रूप मे सामने आई ।

देवी मंदिर का यह हादसा कोई पहली घटना नही है । हमारे तीर्थस्थलों, धार्मिक स्थानों व पर्व विशेष पर पहले भी इस तरह की घटनाएं कई बार हो चुकी हैं । कहीं भीड के दवाब मे भगदड का होनी दुर्घटना का कारण बनती है तो कहीं दूसरे कारणों से हादसे होते हैं और सैकडों लोगों को अपनी जान गंवानी पडती है ।

दक्षिण भारत के मंदिरों मे आतिशबाजी की पुरानी परंपरा रही है लेकिन आस्था के चलते शायद ही कभी नियमों का समुचित पालन किया  जाता रहा हो । छोटी मोटी घटनाओं को नजर-अंदाज करते रहना भी इस बडे हादसे का कारण बना । 2013 मे यहां एक पटाखा कारखाने मे ऐसा ही हादसा हुआ था जिसमे सात लोगों की मौत हुई थी । 2011 मे भी त्रिचूर की एक पटाखा फैक्टरी मे आग लगने के हादसे मे 6 लोगों को जान गंवानी पडी थी । इसी वर्ष शोरानपुर मे भी ऐसा ही हादसा हुआ और 13 लोग काल के ग्रास बने । 1952 के उस हादसे को लोग अभी तक भूले नही हैं जब प्रसिध्द सबरीबाला मंदिर मे पटाखों के कारण आगे लगने से 68 लोगों की जाने गई थीं । यानी इस तरह के हादसे होते रहे थे लेकिन कोई सबक लेने की जहमत किसी ने नही उठाई ।

यही नही, हमारे धार्मिक स्थलों व विशेष धार्मिक पर्वों पर बदइंतजामी के कारण होने वाली भगदड के कारण भी हादसे होते रहे हैं । हमारे कुंभ मेले तो न जाने कितनी बार इन दर्दनाक हादसों के गवाह बने हैं । 7 मार्च 1997 को अजमेर  दरगाह मे उर्स के अवसर पर हुई भगदड , अप्रैल 2010 मे हरिदार मे शाही स्नान के समय हुई भगदड , 10 फरबरी 2013 को इलाहाबाद कुंभ मेले मे रेलवे स्टेशन मे एक रेलिंग टूट जाने से जो हादसा हुआ तथा 2014 मे दशहरा के अवसर पर पटना गांधी मैदान मे वह दर्दनाक हाद्सा जिसकी भगदड मे अधिकांश महिलाएं व बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पडा था को भला कौन भूल सकता है । वैसे इस प्रकार के हादसों की लंबी फेहरिस्त है ।

इस तरह के हादसों के कारणों की तह पर जाएं तो बद्इंतजामी ही इसका एकमात्र कारण उभर कर सामने आती है । जहां लाखों लोग एकत्र हों वहां सुरक्षा व बचाव के जो इंतजाम किये जाने चाहिए वह नदारत ही रहते हैं । यहां तक कि स्थानीय प्रशासन भीड के इतने बडे जमावडे की गंभीरता को भी समझने मे असमर्थ ही दिखाई देता है । लाखों लोगों की भीड के लिए सुविधाजनक आवागमन जरूरी होता है | इसमे थोडी सी भी चूक दुर्घ\टना को न्योता दे सकती है | अधिकांश मामलों मे बडी भीड के प्रवेश व निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण दुर्घटनाएं हुई हैं | मंदिर या धार्मिक स्थ्ल के पास  भीड. का उचित और प्रभावी नियंत्रण बहुत जरूरी है अक्सर इसमे चूक होने की संभावना बनी रहती है | इस घट्ना मे आतिशबाजी से जुडे खतरे को कभी महसूस ही नही किया गया और इसका ही परिणाम रहा कि इतने मासूम लोगों को अप्नी जान गंवानी पडी ।

         अब यह जरूरी है कि इस प्रकार के सार्वजनिक मेलों, उत्सवों तथा धार्मिक पर्वों पर सभी जरूरी सुरक्षा उपाय पहले से ही कर लिए जाएं | आपातकालीन व्यवस्था का होना भी जरूरी है |  हमें यह सीख लेनी ही होगी कि यह सभी घटनाएं बदइंतजामी व प्रशासनिक भूलों का ही परिणाम रही हैं | इन्हें आसानी से रोका जा सकता था | आगे ऐसा न हो इस पर गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है तथा ऐसे अवसरों के लिए एक त्रुटिविहीन तंत्र विकसित किया जाना चाहिए |