सोमवार, 14 अप्रैल 2014

भूली-बिसरी यादें / मासूम सी वह बीमार लड्की

       
[ एल. एस. बिष्ट ] - जिंदगी के सफ़र में, उम्र की एक दहलीज पर, पीछे मुड कर देखने की कोशिश मे, अनगिनत चेहरों की भीड न जाने कितनी यादों को अपने में समेटे नजर आने लगती है | लेकिन चेहरों की इस भीड में चंद चेहरों की यादें ही शिद्दत से कचोट्ती हैं |

     दर-असल उम्र के सफ़र में, यादों के लंबे काफ़िले से जुडी बहुत सी यादें कहीं पीछे छूट चुकी होती हैं और कभी इतनी दूर कि बस उन यादों के धुंधले अक्स शेष रह जाते हैं | यह खोये चेहरे एक दिन अकस्मात, अनायास यादों की चौखट में दस्तक देने लगते हैं और फ़िर परत-दर-परत खुलता है स्मृतियों का ऐसा पिटारा जो कभी आपके वजूद की नींव मे कहीं गहरे दफ़न थीं |

     आज की खुदगर्ज दुनिया में जब इंसान सिर्फ़ अपनी ही सोच रहा हो, मुझे याद आने लगती है उसकी वह मासूमियत और वह बीमार काया जिसने इंसानी रिश्तों मे उस मर्म को अनजाने ही समझा दिया जो अब कहीं नहीं दिखाई देते |

     बात मेरे बचपन की और इसी शहर लखनऊ की | सत्तर का दशक और मेरी उम्र 16 या 17 | छावनी क्षेत्र मे सेना का अस्पताल और वहां हमारी रिश्ते की बीमार भाभी का लंबा ईलाज | हम दोनो भाई रोज सांझ होते ही भाभी जी के स्वास्थ का हाल जानने अस्पताल जाते | घर से करीब 5-6 किलोमीटर की दूरी पर | एक तरह से यह पिताश्री का आदेश भी था | साइकिल की सवारी और किशोरवय की उस उर्जा मे यह दूरी मिनटों में खत्म हो जाती | पडोस के बिस्तर मे एक किशोरी को देखा तो उत्सुकतावश पहुंच ग़ये उसके पास | बिल्कुल दुबली सी काया, नदी तट पर उगने वाले सरकंडे की तरह | बाल कुछ सुनहरे जिन्हें वह चोटियां करके लपेटी रहती | पता चला वह बहुत ऊंचाई से गिरी थी और अब चल फ़िर नहीं सकती |

     हम दोनो भाइयों के लिए वह हम उम्र थी | हमारा उसके पास जाना और बातचीत करना उसे न जाने कितनी खुशियां दे गया | उसने बगल मे रखी ट्रे से चार उबले अंडे निकाले और हमें बराबर बांट दिये | हमारी मासूम बेशर्मी देखिए हम दोनो ने चटकारे ले वह अंडे खा लिए | दर-असल वह अंडे एक बीमार मरीज को दी जाने वाली खुराक का हिस्सा थे | लेकिन यह बातें उस उम्र मे हमारी सोच से परे थी |
     अब यह रोज का सिलसिला बन गया | दोनो भाभी के पास कम और उसके पास ज्यादा समय बिताने लगे | यादों के लंबे काफ़िले मे उन दिनों की गुल-गपाडों की वह बातें अब विस्मृत हो चली हैं, अगर कुछ शेष है तो सिर्फ़ इतनी सी याद कि हम घंटों उससे गपियाते, हंसते, रूठते और फ़िर वह हमेशा की तरह बचा कर रखे चार अंडे निकाल कर हमे देती |

     यह सिलसिला यूं ही चलता रहा और फ़िर एक दिन भाभी को वहां से छूट्टी मिल ही गई | उस अनजान किशोरी के साथ वह आखिरी शाम थी |

     समय के साथ वह दिन, उस उम्र की यादें पीछे छूट्ती चली गईं | लेकिन पता नही क्यों उसका धुधंला अक्स हमेशा दिल के किसी कोने मे पडा रहा | समय का दौर बदला और बहुत कुछ बदलने लगा | इंसानी रिश्ते महज खुदगर्जी मे तब्दील होने लगे , वह मासूम लड्की, उसकी मासूमियत और अंडे बरबस ही शिद्दत के साथ याद आने लगे | बरसों बरस बाद यह समझ मे आया कि उसकी बीमार काया के लिए वह अंडे कितने जरूरी थे जिन्हें  वह हम भाइयों को मुस्कराते हुऐ देती |



     आज  दुनिया की इस भीड मे वह कहां होगी, कैसी होगी, पता नही |वह दोबारा कभी नही मिल सकी | आपके पास किसी का पता-ठिकाना न हो तो दुनिया एक गहरे सागर मे तब्दील हो जाती है जहां आपकी चाहत और तलाश का कोई मतलब नही रह जाता |लेकिन खुद्गर्जी और अमानवीयता के दंश से आहत मायूसी के पलों मे, उसकी धुधंली यादें मानवीय मूल्यों मे मेरे विश्वास को कायम रखती हैं | मैं हमेशा दुआ करता हूं कि अगर धरती के किसी कोने मे उसका वजूद है तो उसका दामन खुशियों से भरा हो |   

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

आपके लिए होगा गुंडा हमारा तो भैय्या

                 


( एल. एस. बिष्ट ) - अपने को दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र कहते हुऐ हम सीना फुलाये घूमते हैं । लेकिन शायद ही कभी हमने गंभीरता से अपने लोकतंत्र का पोस्ट्मार्ट्म किया हो । अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवनकाल मे हमारा यह लोकतंत्र न जाने कितनी व्याधियों से ग्रस्त हो चला है लेकिन हम हैं कि इसकी काया को आज भी निरोगी मान इतराते फिर रहे हैं । कभी कधार किसी गंभीर व्याधि पर चर्चा होती भी है लेकिन जल्द ही वह चर्चा व बहस गुल गपाडे मे तब्दील हो पृष्ठभूमि मे चली जाती है ।

अब जब यह विशाल लोकतंत्र एक और आम चुनाव की दहलीज पर खडा है, जरूरी है कि हम थोडा शांत भाव से सोचने की जहमत उठायें कि आखिर इसका चेहरा साल दर साल बदरंग क्यों होता जा रहा है । आम जन की उम्मीदें नाउम्मीदों मे क्यों तब्दील हो रही हैं । आखिर क्यों हमारी ससंद व विधानसभाएं अपराधी तत्वों की शरणगाह बनती जा रही हैं । दरअसल हमने ईमानदारी से स्वंय के गिरेबां में झांकने का प्रयास कभी नही किया । कहीं ऐसा तो नही कि जाने- अनजाने इसमे हमारी भी भागीदारी रही हो ।

अकादमिक बहस व आंकडों को दरकिनार करते हुए अगर इस पहलू पर गंभीरता से सोचें तो कहीं न कहीं हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । दरअसल कई बार हम अपने स्वार्थ में व्यापक सामाजिक हितों की अनदेखी कर देते हैं । हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो जाती है कि हमे सिर्फ अपने जिले, शहर या मुहल्ले का ही हित दिखाई देता है और राबिनहुड जैसे दिखने वाले माफियों, गुंडों व बदमाशों को इसका लाभ मिलता है ।

 अगर कोई अपराधी तत्व हमारे मुहल्ले की सड्कों व नालियों आदि का काम करवा लेता है और हमारे मुहल्ले का निवासी होने या किसी अन्य प्रकार के जुडाव से हमारे काम करवा लेता है तो हम उसके पक्ष मे आसानी से खडे हो जाते हैं । यहां हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज के हित मे इसे ससंद या विधानसभा के लिए चुनना इस लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक होगा । ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेगें जहां समाज की नजर मे एक अपराधी,  मोहल्ले या शहर का "भैय्या " बन चुनाव मे जीत हासिल कर लेता है । दरअसल अपने तक सीमित हमारी सोच ऐसे लोगों का काम आसान करती है ।

यहां यह गौरतलब है कि 80 के दशक मे लखनऊ से प्रकाशित एक राष्टीय दैनिक ने विधानसभा चुनावों मे खडे अपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों का कच्चा चिट्ठा कई किस्तों में प्रकाशित किया था इस उम्मीद में कि मतदाता इनके असली चेहरे से परिचित होने पर इन्हें अपना मत नही देग़ा । लेकिन इन प्रयासों का कोई खास परिणाम नजर नही आया । कई अपराधी तत्व चुनाव जीत कर विधानसभा तक पहुंचे ।

अपने हितों तक सीमित रहने वाली हमारी इस सोच का इधर कुछ वर्षों मे व्यापक प्रसार हुआ है । महाराष्ट्र मे दिया जाने वाला नारा ' बजाओ पुंगी, भगाओ लुगीं ' को हमारी इस मानसिकता के फलस्वरूप ही व्यापक जंनसमर्थन मिला था । जहां महाराष्ट्र के लोगों ने सिर्फ अपने हित मे इसे उचित समझा । लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे इस पर सोचने की जरूरत नही समझी गई । अब यदा कदा ऐसे ही स्वर दूसरे प्रदेशों से भी सुनाई देते हैं । य्ह तभी संभव है जब हम अपने हित के लिए समाज के व्यापक हित को नजरअंदाज कर देते हैं ।

राजनीतिक अपराधीकरण मे हमारी यही सोच कुछ गलत लोगों को ससंद व विधानसभाओं मे पहुंचाने मे सहायक रही है । यही कारण कि ऐसे कई नाम भारतीय राजनीति के क्षितिज पर हमेशा रहे हैं । जिन्हें समाज का एक बडा वर्ग तो अपराधी , माफिया या बदमाश मानता है लेकिन अपने क्षेत्र से वह असानी से जीत हासिल कर सभी को मुंह चिढाते हैं ।

यहां गौरतलब यह भी है कि कुछ लोग मानते हैं कि चुनाव मे यह फर्जी मतदान के सहारे जीत हासिल करते हैं । लेकिन गहराई से देखें तो यह सच नही है । सांसद या विधायक के भाग्य का फैसला लाखों वोटों की गिनती के बाद ही संभव हो पाता है। दो-एक बूथों में फर्जी मतदान करा लेने या  कब्जा कर लेने से दो या चार हजार मत ही पक्ष मे हो सकते हैं( एक बूथ पर 1500 से ज्यादा वोटर नही होते ) अब सवाल उठता है कि यह  हजारों या लाखों वोट मिले कहां से । स्वाभाविक है यह मत दिए गये हैं ।

अब अगर हमे इन बाहुबलियों, माफियों, गुंडों व बदमाशों को रोकना है तो अपने संकीर्ण हितों की बलि देनी होगी । व्यक्ति का चुनाव समाज व देश के व्यापक हित मे सोच कर किया जाना चाहिए । अगर आपके लिए भैय्या बना उम्मीदवार समाज के बहुसंख्यक लोगों के लिए एक अपराधी तत्व है तो उसे आपको भी अपराधी ही मानना होगा । अन्यथा एक दिन यह भैय्ये ससंद के चेहरे को पूरी तरह से बदरंग बना देगें ।  

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

चुनावी बिसात मे क्या मोहरा बनती है नौकरशाही

              

( एल. एस. बिष्ट )  एक विवाद या दूसरे शब्दों मे एक कलंक जो हमारी नौकरशाही पर स्थायी रूप से लग चुका है वह है आम चुनावों मे सत्तारूढ पार्टी द्रारा नौकरशाही के दुरूपयोग का । या दूसरे शब्दों मे कहें तो नौकरशाही का पार्टी विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण रवैया । इसमे कितनी सच्चाई^ है यह तो पता नही, लेकिन प्रत्येक आम चुनाव मे यह बहस व चर्चा का विषय जरूर बनता है ।

     वैसे तो चुनाव प्रक्रिया शुरू होने पर चुनाव आयोग चुनावी आचार संहिता लागू कर देता है लेकिन  हमारे राजनेता दो कदम आगे चल कर कुछ दिन पूर्व ही व्यापक स्तर पर उच्चाधिकारियों के स्थानांतरण कर अपने को एक ‘सुविधाजनक’ स्थिति मे लाने का प्रयास जरूर करते हैं यह दीगर बात है कि चुनाव आयोग इन तबादलों पर भी अक्सर चुनाव होने तक रोक लगा देता है । सरकारी तंत्र मे चुनाव के ठीक पहले की यह हलचल कोई^ नई^ बात नही है । यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर इस तंत्र के चुनाव मे उपयोग या दुरूपयोग की कोई^ गुंजाइश नही तो फ़िर यह कवायद करने का प्रयास क्यों ।

     अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव मे नौकरशाही तंत्र को अपने हित मे ‘उपयोग’ किया जा सकता है ? या फ़िर यह सिर्फ़ राजनेताओं की खुशफ़हमी है । और अगर ऐसा है भी तो क्या यह तंत्र वास्तव मे राजनीतिज्ञों के आगे इतना बेबस है कि विरोध भी नही कर सकता या फ़िर आपसे गठजोड के समीकरण से यह तंत्र इस बदनुमे दाग के लगने पर भी प्रशन्न है | इन सवालों के उत्तर खोजने के लिए हमें इस तंत्र के स्वरूप व चरित्र को कुछ पीछे जाकर समझना होगा |

     प्रशासनिक सेवा की शुरूआत अंग्रेजी शासन की देन है | चयन व काम लेने का तरीका चाहे जैसा भी हो, अंग्रेजी शासन की सबसे बडी उपलब्धी रही देश में कड़ा प्रशासन | दोषी व्यक्ति को छोडा नही जाता था | इस प्रशासनिक सख्ती का डर सभी को था | देश को स्वतंत्रता मिली तथा प्रशासनिक ढांचे को बदलने की जरूरत महसूस नहीं की गई^ | कुछ वर्षों तक या यूं कहें जब तक सत्ता में पुरानी पीढी काबिज रही तब तक सबकुछ कायदे कानून के अनुसार चलता रहा | परन्तु नेहरू युग मे ही भ्रष्टाचार के कुछ मामले आए जिनमें मंत्री और अफ़सरान दोनो शामिल थे | धीरे धीरे आजादी के आंदोलन से जुडी पीढी हाशिए मे आने लगी और जोड तोड़ तथा धन बल के सहारे राजनीतिज्ञों की नई^ खेप संसद व विधानसभाओं में पहुंचने लगी | नेता व अफ़सर की सांठ गांठ का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ | राजनीती मे भ्रष्ट होने की धारणा को पनपने का अवसर भी यहीं से मिला | उसके बाद तो यह प्रवत्ति जोर पकड्ती गई^ | 
 
   
  1967 के आम चुनाव में किसी दल को भी स्पष्ट बहुमत न मिल पाने से साझा सरकार बनी | सांझे की हंडिया की कम उम्र का एहसास सभी को था | अत: कम से कम समय में अधिक से अधिक फ़ायदा उठाने की प्रवत्ति विकसित हुई^ और इसके परिणामस्वरूप प्रशासनिक तंत्र को अपने सत्ता स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करने की एक नई^ परम्परा की शुरूआत हुई^|

     नौकरशाही को भी इसमें अपने हित नजर आए | मंत्रियों की मेहरबानियों की बैसाखी के सहारे आगे बढ्ने का लोभ यह तंत्र संवरण न कर सका और इस तरह राजनीति व नौकरशाही का एक गठजोड बना | इस धारा के विरूध्द चलने वाले अफ़सरानों को सजा बतौर तबादले के आदेश थमाये जाने लगे | इसका परिणाम यह निकला कि उन्होनें भी बहती गंगा मे हाथ धोने मे ही अपनी बेहतरी समझी |

     साझा सरकारों के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसमे राजनीतिक भ्र्ष्टाचार को ही बल मिला | 1967 के बाद 1971 मे कांग्रेस सत्ता मे आई | यह उम्मीद की गई थी कि जिन बुराइयों को संविदा सरकार के शासनकाल मे पनपने का अवसर मिला था, वे अब खत्म हो जायेगीं लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा | नौकरशाही को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति और अधिक तेजी से विकसित होने लगी | नौकरशाहों की मदद से चुनाव जीतने की परपंरा की मजबूत शुरूआत कांग्रेस के इसी शासनकाल से ही हुई^| जिलाधिकारियों तथा कमीशनरों को बकायदा मौखिक आदेश दिए जाने लगे |

     1971 से 1975 का यही समय था जब देश मे भ्र्ष्टाचार ने हर क्षेत्र मे मजबूती से पैर जमाए | चूंकि सत्तारूढ नेताओं द्वरा अपने हितों के लिए नौकरशाही का इस्तेमाल किया जाता था अत: नौकरशाही का भ्र्ष्ट व बेलगाम होना भी स्वाभाविक ही था |

     1975 के आते आते हालात इतने बदतर हो गए कि देश मे चारों तरफ़ विरोध के स्वर गूंजने लगे | विपक्ष इन्हीं मुददों को लेकर सड्क पर आ गया | इसके पहले कि विरोध व असन्तोष चरम पर पहुंचे इमरजेंसी लगा दी गई | आपत्तकाल मे नौकरशाही को भय दिखा कर जो तमाम काम करवाए गए, उनका काला इतिहास आज भी य्ह देश भूला नही है | बहरहाल 1977 मे चुनाव हुए और कांग्रेस को बुरी तरह मुंह की खानी पडी |

     1977 के चुनावों की जनसभाओं में विपक्षी नेताओं ने उस भ्र्ष्टाचार की पोल खोली जिससे आमजन अभी तक परिचित नही था | किस तरह मतपेटियां कचहरियो^ मे बदल दी जाती थीं , किस तरह चुनाव अधिकारी बने नौकरशाह फ़र्जी मतदान करवाते थे, इन सबका कच्चा चिट्ठा पहली बार जनता के सामने आया |
     जनता पार्टी सत्ता मे आई तो उसने नौकरशाहों के दो वर्ग बनाए | एक वे जो कांग्रेस के बफ़ादार थे दूसरे वे जिन्हें कांग्रेस शासनकाल मे हाशिए पर रख दिया गया था | जिन्हें जनता पार्टी ने अपने पक्ष मे माना उन्हें महत्वपूर्ण पद दिए गए तथा दूसरे वर्ग को बतौर सजा कोने मे बैठा दिया गया |

     नौकरशाही को इस्तेमाल करने की प्रवत्ति खत्म होने की बजाए और विकसित हुइ | जनता पार्टी की बेमेल खिचडी सरकार औधें मुंह गिरी तथा 1980 के चुनाव मे फ़िर कांग्रेस को सत्ता मे आने का अवसर मिला | अब तक नौकरशाही को भी सत्ता के खेल मे महारत हासिल हो चुकी थी | 80 के दशक मे भी नौकरशाही ही हावी रही | नौकरशाहों मे राजनीतिज्ञों के तमाम गलत कामों के राजदार बनने का सुख अपने चरम पर पहुंच गया|  राजीव युग में भी नौकरशाही व सत्ता का यही समीकरण कायम रहा |

     इसके बाद से तो साझा सरकारों का ही युग शुरू हो गया | और नौकरशाही पूरी तरह से बेलगाम हो गई | भ्र्ष्टाचार अपने शिखर पर पहुंचने लगा और देखते देखते यह लाइलाज हो गया | नौकरशाही और नेताओं के किस्से रोज की बात हो गये | एक के बाद एक मामले सामने आने लगे | हाल के वर्षों मे तो मानों बाढ ही आ गई | मनमोहन सरकार ने तो मानो नये रिकार्ड कायम किए |

     आज जो लोग यह मानते हैं कि नौकरशाही बेबस है, यह आधा सच है | यह सच भी कम महत्वपूर्ण नही कि राजनीतिक आकाओं से निकट्ता उन्हें भी फ़ायदा पहुंचाती है | उनके गलत सही कामों के राजदार होने से सत्ता का कुछ लाभ इन्हें भी मिलता है | थोडे बहुत हैं जो कसमसाते हैं लेकिन आवाज उठाने का साहस इनमे भी नही है | एक बडा वर्ग यथास्थिति का पक्षधर है | एक तरह से आपसी हितों पर यह व्यवस्था कायम है |

     अब रहा सवाल इस गठजोड को रोकने का, तो यह काम चुनाव आयोग ही बेहतर तरीके से कर सकता है | अभी हाल के वर्षों मे इस दिशा मे काफ़ी कुछ किया गया है | चुनाव आयोग की सख्ती से काफ़ी कुछ नियंत्रण मे आ गया है | राजनेताओं दवरा किए जाने वाले चुनावी तबादलों मे बहुत हद तक रोक लगी है |आयोग की सख्ती ही इसे रोक पाने मे सक्षम है | सुखद यह है कि ऐसा हो रहा है और यह लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है |