
हमने इधर कुछ वर्षों से अपनी नैतिक
संस्कृति को किनारे कर पश्चिम से अधकचरी आधुनिकता का जो माड्ल आयात किया है उसके
गर्भ मे ही यह सामाजिक दोष निहित थे | याद कीजिए 70 और 80 के दशक मे ऐसी घटनाएं कभी सुनने मे नही
आईं | बल्कि 90
का दशक भी ठीक ठाक
गुजरा | लेकिन
यहीं से हमारे समाज मे कम्प्यूटर क्रांति आई, इंटरनेट तक पहुंच हुई, मोबाइल क्रांति ने
अपना डंका पीटा और सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम मे भी अश्लीलता के सारे रिकार्ड टूट
गये | ‘ यू ‘
तथा ‘ ए ‘ सर्टिफ़िकेट का कोई
मतलब नही रह गया |
यही नही, पैसे की चकाचौंध व उसका मह्त्व भी इसी कालखंड मे सर चढ कर बोलने लगा | एक तरफ़ इंटरनेट मे बच्चों से लेकर बूढों तक अश्लील साइटों का आनंद उठा रहे हैं, कोई रोक टोक नही | दूसरी तरफ़ हर एक के मोबाइल मे दिलकश नजारों का भंडार सुरक्षित है | सांसद से लेकर स्कूली बच्चे सभी मन बहला रहे हैं | दूरदर्शन के विज्ञापन किसी ब्लू फ़िल्म से कम नही | कंडोम के विज्ञापनों मे सिसकारियों को साफ़ सुन सकते हैं | अधखुले कपडे पहन अपनी मांसल देह का प्रर्दशन करना आधुनिकता मे शामिल है | शराब और दूसरे नशों मे भी कोई प्रतिबंध नही | यानी चारों तरफ़ से एक उत्तेजक परिवेश तैयार है | लेकिन अगर कहीं कोई बधंन है तो सेक्स पूर्ति का कोई साधन नही, सिवाय विवाह के |
ऐसे मे नैतिकता के बंधन ढीले पड्ना स्वाभाविक ही है | धर्म-अधर्म का विवेक कामेच्छा डस लेती है |
ऐसे माहौल मे बौराये
लोग आसान शिकार की तलाश मे निकल पड्ते हैं | यह जानते हुए भी कि इस जुर्म की सजा क्या
है | ठीक
वैसे ही जैसे हर हत्या करने वाला जानता है | दर-असल इस समस्या को सिर्फ़ सख्त कानून बना
देने से नही रोका जा सकता | इसके लिए उन तमाम चीजों पर गहन चिंतन की जरूरत है
जो इसके कारण बनते हैं | बहुत संभव है जिसे हम आधुनिकता व सामाजिक खुलापन
कहते हैं उस्को भारतीय परिवेश मे नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस हो |
साथ मे कुछ चीजों को
नियत्रित करने की भी |
अगर आज के समाज मे यह संभव नही तो फ़िर कामेच्छा को एक मानवीय जरूरत मान कर देह व्यापार को भी आधुनिक समाज की आधुनिकता की परिधि मे लाया जाये | सिर्फ़ इस बिन्दु पर ही नैतिकता व पुरातन मूल्यों के पाखंडी व्यवहार का प्र्दशर्न क्यों वरना यह अधकचरी आधुनिकता कई और बिमारियों को जन्म देगी |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें