शुक्रवार, 20 मई 2016

मानवीय संवेदनाओं को डसती राजनीति

इसमे संदेह नही कि मूल्यों व आदर्शों से विहीन मौजूदा दौर की राजनीति को हम कोसने मे कहीं पीछे नही । लेकिन इस नकारात्मक्ता के बाबजूद इसी राजनीति ने कब हमे अपने मोहपाश मे बांध लिया, हम समझ भी न सके ।
यही कारण है कि हमारी राजनीतिक खबरों मे जितनी दिलचस्पी है उसकी आधी भी सामाजिक जीवन से जुडी खबरों मे नही । दर-असल आज की उपभोक्ता संस्कृति व हमारी आत्मकेन्द्रित जीवन शैली  हमें मानवीय संवेदनाओं से कहीं दूर ले गई है । हमें  या तो सरकार, शासन व चुनाव की खबरें रास आती हैं या फिर बाजार मे आने वाले नित नये उपभोक्ता उत्पादों की । कहां क्या सस्ता बिक रहा है, यह हमारी सोच की प्राथमिकताओं मे है । सच तो यह है कि हमारी चिंताओं , सरोकारों और सोच का दायरा सिमट कर रह गया है ।
शैक्षिक डिग्रियों  की नौटंकी से लेकर दिल्ली  मे सत्ता की कलाबाजियों तक मे तो हमारी पैनी नजर है लेकिन एक अदद नौकरी के लिए हो रही गला काट स्पर्धा के बीच युवाओं दवारा आत्महत्या की खबरें हमे विचलित नही कर रहीं ।

     आज अगर हम अपने आसपास हो रही घटनाओं से मुंह न मोडें तो यह बात पूरी तरह से साफ हो जाती है कि विकास व उन्नति की तेज धारा के साथ बहते हुए हम कहीं न कहीं मानवीय संवेदनाओं से कटते जा रहे हैं । यही नही, विकास की सीढियां चढते समाज का ताना-बाना भी कुछ इस तरह से उलझने लगा है जिसमें जिंदगी ही बोझ लगने लगती है । आज किसी भी अखबार मे राजनीतिक खबरों के बीच ऐसा बहुत कुछ भी है जिस पर सोचा जाना चाहिए लेकिन यह खबरें बिना किसी का ध्यान अपनी ओर खींचे चुपचाप बासी हो जाती हैं और हम आसानी से भूल जाते हैं कि ऐसा कुछ भी हमारे आस-पास घटित हुआ था ।
शायद ही कोई ऐसा दिन हो कि अखबार मे किसी आत्महत्या की खबर न हो | आये दिन किसी भी शहर के अखबार मे आठ-दस ऐसी खबरें होना अब आम बात हो गई है | बल्कि हमे कुछ नया तब लगता है जब किसी दिन ऐसी कोई खबर पढने को न मिले | कभी कोई छात्र नौकरी न मिल पाने के कारण फ़ांसी से लटक जाता है तो कभी कोई युवती अपने असफ़ल प्रेम के कारण अपने हाथों की नस काट लेती है | कहीं कोई कर्ज मे डूब कर किसी अपार्टमेंट से नीचे कूद पडता है तो कोई रेल की पटरियों के बीच लेट कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है | गहरे अवसाद मे डूबे और फ़िर मौत को गले लगाते ऐसे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढती जा रही है |

देश मे इस समय आत्मह्त्या की दर प्रति एक लाख मे 11.2 है | आत्महत्या के कारणों को जानने के लिए अब तक जो शोध हुए हैं, उनसे प्रमुख रूप से एक बात उभर कर सामने आई है कि मनुष्य भीषण मानसिक विषाद के दौर मे ऐसा करता है | इसमे संदेह नही कि भारतीय समाज मे मानसिक विषाद मे लगातार बढोत्तरी हो रही है | दर-असल जिस तरह से हमारा सामाजिक ताना बाना उपभोक्तावाद के चलते छिन्न-भिन्न हो रहा है, इससे चिंताएं और कुंठाएं बढी हैं | जो अंतत: दिमाग को अपना शिकार बना रही हैं |
बडे शहरों मे अकेले पडते बुजुर्गों की हत्याएं भी  हमे भावुक नही कर पा रहीं और न ही जिंदगी की परेशानियों से अवसादग्रस्त लोगों की असमय मौतों के बढते आंकडों से हमे कोई लेना देना  है । यानी जिंदगी जिन ताने बानों पर चलती है उनका निरंतर कमजोर पडते जाना भी हमे कहीं से कचोट नही रहा ।
क्या वाकई मे हम एक ऐसे दौर मे पहुंच गये हैं जहां संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों पर राजनीति हावी होती जा रही है । कहीं हम जाने अनजाने एक निष्ठुर समाज मे तो तब्दील नही हो रहे ? वरना और क्या कारण हो सकता है कि भूख और प्यास से हो रही मौतों  व किसानों की जानलेवा त्रासदी के बीच हमे राजनीतिक खबरों की चटनी ही आकर्षित कर रही है ।
इसे बदले जमाने का एक नया चेहरा मानें या फिर आत्मकेन्द्रित हो रहे समाज का एक रोग, लेकिन कुल मिला कर तमाम उपलब्धियों के ढोल नगाडों के बीच जिंदगी तो दांव पर लगी  ही है । चाहे वह शहर की हो या गांव-कस्बे की या फिर किसी किसान की हो या लातूर, बुंदेलखंड के किसी ग्रामीण की या फिर कोटा के किसी युवा की । लेकिन मौजूदा दौर की दुखद त्रासदी यही है कि आज हमारी सोच व मिजाज मे राजनीति सामाजिक सरोकारों से ऊपर है ।
और हम अपने आसपास की दुनिया के दुखों से उदासीन होते जा रहे हैं । यह मिजाज  कब बदलेगा, पता नही ।
 

बुधवार, 4 मई 2016

घोटालों और भ्रष्टाचार का गहराता दलदल

21 दिसंबर 1963 को संसद मे भ्र्ष्टाचार पर हुई बहस पर डा. राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था वह आज भी प्रासंगिक है । उन्होने कहा था - " सिंहासन और व्यापार के बीच सबंध भारत मे जितना दूषित, भ्र्ष्ट व बैइमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास मे कहीं नही हुआ है । " साठ के दशक मे कहे गये उनके यह शब्द आज भी उतने ही अर्थपूर्ण हैं जितना उस समय रहे होंगे ।

गौर से देखें तो देश मे घोटालों का सिलसिला रूकने का नाम नही ले रहा । किसी एक घोटाले पर मचाए जाने वाला शोर खत्म नही होता कि दूसरा सामने आ जाता है । अब नये घोटाले के रूप मे वीवीआइपी हस्तियों के इस्तेमाल के लिए उपयोग मे लाये जाने वाले हेलीकाफ्टरों की खरीद पर दी गई रिश्वत का मामला गर्म है। चूंकि यह समझौता यू.पी.ए सरकार के कार्यकाल से जुडा है इसलिए भाजपा सरकार कांग्रेस को घेरने के इस सुअवसर को छोडना नही चाहती । चूंकि इटली के एक अदालती फैसले मे कुछ भारतीय नेताओं के नामों का भी उल्लेख है इसलिए यह मामला राजनीतिक तौर पर संवेदनशील बन गया है । विशेष कर कांग्रेस के लिए यह गले की घंटी बन गया है । लेकिन देखा जाए तो यह घोटालों की लंबी श्रखला की एक कडी मात्र है ।

आजादी के बाद नेहरू युग से ही इन घोटालों की शुरूआत हो गई थी । साल-दर-साल इनकी संख्या और घोटालों की राशि मे बढोतरी होती गई । वैसे तो समय समय पर देश मे सरकारें भी बदलती गईं लेकिन सत्ता से जुडे विचौलियों और भ्र्ष्टाचारियों का खेल बदस्तूर जारी रहा । अब तो हालात यह हैं कि मानो देश की पूरी अर्थव्यवस्था को ही गिरवी रखे जाने की तैयारी हो ।

बहरहाल थोडा पीछे देखें तो आजाद भारत मे इसकी शुरूआत नेहरू युग के  जीप घोटाले(1948) से मानी जा सकती है जो लगभग 80 लाख रूपये का था । पाकिस्तानी हमले के बाद भारतीय सेना के लिए जीपों की खरीद मे यह घोटाला किया गया । वी.के.कृष्णामेनन जो ब्रिटेन मे भारत के उच्चायुक्त थे उन्होने इस सौदे मे अहम जिम्मेदारी निभाई थी । आरोप था कि बिना किसी औपचारिक्ता पूरी किये बिना भारी धनराशी का भुगतान कर दिया गया था । यही नही जो 155 जीपें मिलीं वह खराब हालत मे थीं जबकि सौदा 2000 जीपों का था । लेकिन अंतत: गठित जांच कमेटी को ही सरकार ने रद्द ने कर दिया ।और मामला हमेशा के लिए दफन हो गया ।

1958 मे फिरोजगांधी ने एक घोटाले का पर्दाफाश किया था जिसमे राजनीति व पूंजीपतियों के बीच के रिश्ते उजागर हुए । इसे मूंदडा कांड के नाम से जाना जाता है । इसमे उदयोग्पति हरिदास मूंदडा ने कुछ कंपनियों को फायदा पंहुचाने के लिए एल.आई.सी से ज्यादा कीमत मे  शेयर् खरीदवाये । बाद मे जांच मे तत्कालीन वित्तमंत्री टी.टी.कृष्णामचारी, वित्त सचिव एच.एम.पटेल, एल.आई.सी. के अध्यक्ष दोषी पाये गये ।

1960 मे नेहरू जी पर भी उंगली उठी । उन्होने उदयोगपति धर्मतेजा को एक शिपिंग कंपनी खोलने के लिए 20 करोड रूपये का लोन दिलाया । बाद मे धर्मतेजा उस पैसे के साथ ही विदेश भाग गये । काफी प्रयासों के बाद उसे पकडा गया और 6 साल की कैद हुई ।

इंदिरा गांधी के शासन काल मे 1971 मे एक विचित्र कांड हुआ जो आज भी रहस्य बना हुआ है । किसी ने इंदिरा जी की आवाज मे स्टेट बैंक संसद मार्ग शाखा के मुख्य खचांजी को फोन पर कोड बताने वाले को तत्काल 60 लाख रूपये देने को कहा । बाद मे इस धोखाधडी के लिए कैप्टन रूस्तम सोहराब नागरवाला को गिरफ्तार किया गया था । लेकिन मार्च 1972 को रहस्यमयी परिस्थितियों मे उसकी मौत हो गई । 6 माह बाद जांच करने वाले पुलिस अधिकारी की भी एक सडक दुर्घटना मे मौत हो गई । आज तक यह कांड एक रहस्य बना हुआ है ।

राजनीति के दुनिया मे हलचल मचा देने वाला बोफोर्स तोप घोटाले को भला कैसे भुला जा सकता है । 1987 के इस बहुचर्चित घोटाले मे पता चला था कि बोफोर्स कंपनी ने 1437 करोड रूपये का सौदा हासिल करने के लिए भारत के राजनेताओं व सेना के अधिकारियो6 को रिश्वत दी थी । राजीव सरकार ने मार्च 1986 मे स्वीडन की ए.बी. बोफोर्स से 400 होबित्जर तोपें खरीदने का करार किया था । इस मामले ने देश की राजनीति को ही हिला कर रख दिया । इस मुद्दे के कारण ही 1989 के चुनाव मे राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार सत्ता मे आई और वी.पी सिंह प्रधानमंत्री बने । 1990 को इसकी जांच सी.बी.आई को सौंप दी गई । इसकी जांच मे तमाम उतार चढाव आये । अंतत: 1999 मे विन चड्डा , क्वात्रोची, पूर्व रक्षा सचिव एस.के.भटनागर , बोफोर्स कंपनी के प्रमुख मार्टिन अर्बडो व राजीव गांधी को आरोपी बनाया गया । बाद मे सन 2000 मे सप्लीमेंट्री चार्जशीट मे श्रीचंद हिंदुजा, गोपीचंद हिंदुजा आदि को भी आरोपी बनाया गया । लेकिन 2002 मे मुख्य आरोपियों के निधन के साथ ही सारा मामला ठंडा पड गया ।

ऐसे ही तमाम घोटालों का लंबा इतिहास है । गौरतलब यह है कि समय समय पर सत्ता बदलती रहीं लेकिन घोटाले और भ्र्ष्टाचार बदस्तूर जारी रहे । इतना ही नही कई छोटे घाटाले तो कभी सामने आ ही न सके । उदारीकरण के दौर की शुरूआत मे शेयर दलाल हर्षद मेहता ने भी बैकों और निवेशिकों को करोडों रूपयों की चपत लगाई । इसी तरह बिहार चारा घोटाला भी राजनीति मे काफी चर्चित रहा । लालू यादव इस घोटाले के मुख्य नायक रहे । रक्षा सौदों मे रिश्वत लेने से जुडा एक मामला 2001 मे सामने आया । इसमे एक स्टिंग आपरेशन मे भाजपा के बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत लेते देखा गया था । तत्तकालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज व नौ सेना के पूर्व एडमिरल सुशील कुमार का भी नाम सामने आया था । इसके बाद के वर्षों मे स्टम्प पेपर घोटाला व सत्यम घोटाला जिसे कारपोरेट जगत का सबसे बडा घोटाला माना जाता है सामने आये ।

घोटालों की लंबी श्रंखला मे राष्ट्रमंडल खेल घोटाला ( 2010 ) 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला , और बहुचर्चित कोल ब्लाक आबटंन घोटाला भी चर्चा मे रहे हैं लेकिन भ्र्ष्टाचार के इस दलदल मे कुल मिला कर ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हुई है ।

आज अगर थोडा गौर से देखें तो पता चलता है कि ऐसा कोई क्षेत्र नही जो भ्र्ष्टाचार से मुक्त हो । सरकारी खरीद से लेकर, रक्षा सौदे, मीडिया, शेयर बाजार, कारपोरेट जगत सभी मे भ्र्ष्टाचार का दीमक लग चुका है । राजनेताओं और नौकरशाही के गठजोड से भ्र्ष्टाचार के नये नये मामले रोज सामने आ रहे हैं । लेकिन इन सब के बीच हैरत की बात तो यह है कि अब भ्र्ष्टाचार के इन मामलों को लेकर कोई गंभीर चिंता कहीं नही दिखाई देती । बदले हुए दौर मे मीडिया के भी मायंने बदल चुके हैं । इसलिए यहां भी इन घोटालों को लेकर एक बंटा हुआ शोर ही सुनाई देता है । दूसरी तरफ जनता ने तो मानो भ्र्ष्टाचार को लेकर खामोशी की चादर ही ओढ ली है । बहुत संभव है कि वह निराश हो चुकी है और उसे किसी भी प्रकार की कोई आशा दिखाई नही देती ।

बहरहाल कोई संदेह नही कि अंधेरा गहराता जा रहा है और इसका कोई कारगर हल निकलता भी नही दिखाई दे रहा । लेकिन इतना अवश्य है कि लोकतंत्र मे जनता का आक्रोश व विरोध सबकुछ बदलने की सामर्थ्य रखता है । इस गुस्से को ही हथियार बनाना होगा और तभी राजनेताओं, नौकरशाहों व पूंजीपतियों के बीच बने अपवित्र रिश्तों पर प्रभावी चोट की जा सकेगी । यह नही भूलना चाहिए कि लोकतंत्र मे वह व्यवस्था कायम नही रह सकती जिसे जनता न चाहे।