बुधवार, 25 नवंबर 2015

मुस्लिम वोट की राजनीति का साइड इफेक्ट

आमिर खान ने जो कुछ कहा उसमे उनका दोष नही बल्कि यह हमारी मुस्लिम वोट की राजनीति का साइड इफेक्ट है जो अब सतह पर दिखाई देने लगा है गौरतलब यह भी है कि यह असहिष्णुता का विवाद मोदी सरकार के सत्ता मे आते ही शुरू हो गया था लेकिन दादरी घटना के बहाने इसे सोच समझ कर सतह पर लाया गया तथा उसका लाभ भी बिहार चुनाव मे विपक्ष को मिला । अब इस विवाद को मोदी सरकार के खिलाफ एक हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया जाने लगा है । संसद को इसी बहाने न चलने देने की भी योजना है । लेकिन इतने शोर शराबे के बाबजूद जमीनी सच्चाई को देखने का प्र्यास करें तो ऐसी असहिष्णुता कहीं नही दिखाई देती । लेकिन वोट की राजनीति ने इसे एक सामाजिक संकट के रूप मे प्रचारित करने मे कोई कोर कसर नही छोडी है । देखा जाए तो यह वोट की राजनीति इस देश के चेहरे को आहिस्ता आहिस्ता एक घिनौने चेहरे मे तब्दील करने लगी है

अभी तो सिर्फ खाते पीते मुस्लिम वर्ग को यहां असहिष्णुता दिखाई दे रही है । मुस्लिम समुदाय का वह वर्ग जो सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा सुरक्षित है तथा जिसकी समाज मे एक अलग पहचान भी है वह बेवजह की असुरक्षा की बात कह कर माहौल को खराब करने लगा है । आमीर से पहले शाहरूख खान ने भी इसी तरह नकारात्मक विचार प्रकट किये थे । जिसकी काफी आलोचना हुई थी । लेकिन अगर इस प्रकार के प्रयासों पर अंकुश न लगाया गया तो वह समय दूर नही जब यही भाषा यहां जातीय वर्गों मे भी बोले जाने लगेगी यह सबकुछ इसलिए हो रहा है क्योंकि सम्प्रदाय जातीय समूहों को भय दिखा कर वोट के सौदागर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं

दलित, महादलित, वंचित, पिछ्डा, शोषित जैसे शब्दों के बीज इसी सोच के तहत समाज मे छिडक दिये गये हैं अब उन बीजों से उत्पन वोट की फसल को काटा जा रहा है इसी वोट लोलुपता के तहत धर्म, आस्था, भाषा क्षेत्रीय अस्मिता के विवाद जब तब सर उठाते रहे हैं लेकिन अब यह विवाद और तीखे होगे अगर वोट की राजनीति इसी तरह परवान चढती रही

कोढ पर खाज यह है कि सीधी, सच्ची बात कहना उतना ही कठिन होता जा रहा है पाखंडी मीडिया का एक वर्ग देश के पाखंडी लोगों से मिल कर सही बातों पर ही " विवादास्पद " का टैग लगा देता है और मीडिया सम्मोहित भारतीय जनमानस उसे ही सही समझने लगता है

किसी भी बहुधर्मी, बहुभाषी समाज मे छोटी छोटी बातों का उठना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यह बातें स्वत: खत्म भी हो जाती हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक बडा हिस्सा ऐसी छोटी छोटी बातों पर पूरा मछ्ली बाजार का माहौल तैयार कर उसमें बारूद भरने का काम करने लगा है तुर्रा यह कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस पर कोई अंकुश भी नही

अगर थोडा गंभीरता से सोचें तो इस तरह का राजनीतिक, सामाजिक परिवेश विकास की सीढियां चढते किसी भी देश के हित मे कतई नही होता लेकिन इसकी चिंता किसे है ? राष्ट्रहित नाम की चिडिया तो इस देश के हुक्मरानों की सोच से जाने कब फुर्र हो चुकी है अपने स्वार्थों के लिए आम आदमी के दिलो-दिमाग मे भी किस्म किस्म के जहर घोलने का काम बदस्तूर जारी है यह सिलसिला कब टूटेगा, पता नही