फ़िर एक बार असहमति के स्वर सुनाई देने लगे
हैं | यह दीगर बात है कि कोरोना महामारी के चलते मुस्लिम मुल्ला मौलवियों का एक
वर्ग जरूर बकरीद पर अपने समाज से सरकार को सहयोग करने की अपील कर रहा है | लेकिन उन लोगों
की संख्या कम नही जिन्हें कोरोना या दूसरे समाज की भावनाओं की जरा भी परवाह नही |
उन्हें तो बस धर्म के नाम पर एक लीक पीटनी है | अभी हाल मे गायों की तस्करी के कुछ
मामले भी पकडे गये हैं | इन गायों को कत्लखाने ले जाया जा रहा था | बकरीद के अवसर
पर इस प्रकार से गायों की तस्करी आग मे घी डालने का काम कर रही है | गौर-तलब है कि
उत्तर पूर्व के कुछ क्षेत्रों को छोड कर गोमांस पूरी तरह प्रतिबंधित है |
दर-असल एक कहावत है
कि ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढता गया | देश मे धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को लेकर
कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है | बल्कि सच तो यह है कि जिनके हितों के मदद्देनजर
धर्मनिरपेक्षता का ढोल जोर जोर से पीटा जाता रहा है, वहीं से धर्म की चाश्नी मे
लिपटे नारे सुनाई देने लगे हैं | आस्थाओं और रिवाजों के नाम पर कई बार तो उन बातों
का भी विरोध किया जाने लगा है जिनका प्रत्यक्ष रूप से किसी धर्म विशेष की आस्था से
कोई रिश्ता ही नही | लेकिन कोढ पर खाज यह कि जिस अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक
हितों की चिंता को लेकर देश के अधिकांश सेक्यूलर नेता छाती पीटते और दिन रात चिंता
मे डूबे नजर आते हैं और समाज का तथाकथित सेक्यूलर बौध्दिक जीव भी फ़्रिक मे दुबला
होता दिखाई दे रहा हो, वही समाज अब देश हित के कैई फ़ैसलों मे अपनी
आस्था को खतरे मे पडता देख रहा है | किसी भी बात का तिल का ताड बनाने मे उसे कोई
परहेज नही | चिंताजनक तो यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के एक वर्ग की इस
दुर्भाग्यपूर्ण सोच पर अभी गंभीरता से सोचा जाना बाकी है |
अब
सवाल इस बात का है कि जिस धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान व उनके धार्मिक
निजता को सुरक्षित रखे जाने के लिए इतना राजनीतिक घमासान दिखाई देता हो वही समुदाय
बात बात पर तिल को ताड बनाते हुए अपनी धार्मिक पहचान को खतरे मे होने का बेवजह शोर
नही मचा रहा |
याद कीजिए योग को लेकर भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था |
इसे अपने धर्म विरूध्द मानते हुए इसमें भाग न लेने की बातों को जोर शोर से
प्रचारित किया गया | वह तमाम बातें जिनका कोई तार्किक आधार नही था, योग के विरोध
मे कही गईं | बेवजह उसे धर्म से जोडने के प्रयास हुए | यहां संतोष की बात यह रही
कि मुस्लिम समाज के ही एक प्रगतिशील ,उदार वर्ग ने इसे नकार दिया |
यही नही, समय समय पर राष्ट्र्गान व बंदे
मातरम को लेकर भी मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने अपनी “ धार्मिक चिंताओं “ को बखूबी
उजागर किया है | अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक फ़ैसलों व देशहित मे उठाये
गये प्रशासनिक निर्णयों को धर्म और आस्था के चश्मे से देखना और फ़िर सहमति या
असहमति प्रकट करना जरूरी समझा जाने लगा है | यहां गौरतलब यह है कि यह प्रवत्ति
बहुसंख्यक समाज मे नही बल्कि अल्पसंख्यक समाज मे दिखाई दे रही है |
इसलिए जरूरी है कि
अल्पसंख्यक समुदाय धार्मिक पहचान व आस्था के सवाल पर भेडिया आया, भेडिया आया की
मानसिकता से अपने को मुक्त करे |
बिल्कुल सही आकलन है आपका
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