रविवार, 19 अप्रैल 2015

कश्मीर घाटी / विपक्षी दलों की राजनीति पर सवाल


( L.S. Bisht ) -देश की आजादी के उन पलों में शायद किसी ने भी यह कल्पना न की होगी कि एक दिन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था मे वोट की राजनीति देश के हितों पर ही कुठाराघात करेगी | आज चंहु ओर वोट की लालसा मे देश के भविष्य की कब्र खोदने वाले प्रयासों की कमी नही दिखाई दे रही | सच तो यह है कि अब हमारे राजनीतिक दलों को देश से ज्यादा वोट की चिंता है | यही कारण है कि सभी राजनीतिक फ़ैसलों पर राष्ट्र्हित की बजाए वोट हित की छाया ज्यादा दिखाई देती है | आज इस चुहा दौड मे कोई भी पीछे नही |
     कश्मीर घाटी मे अलगाववादी जिन नारों को बुलंद कर देश की अखंडता व सम्मान को खुली चुनौती दे रहे हैं, यह शर्मनाक ही नही अपितु गंभीर चिंता का विषय भी है | लेकिन दूसरी तरफ़ वहां सत्तारूढ पीडीपी समेत देश के सभी प्रमुख विपक्षी दल अपनी रोटियां सेंकने से बाज नही आ रहे | उनके राजनीतिक वक्तव्यों से कहीं आभास नही हो रहा कि उन्हें राष्ट्र्हित की चिंता है |
     कांग्रेस के कुछ नेताओं और नवगठित छ्ह दलों के जनता परिवार गठबंधन ने जिस तरह की बयानबाजी की है, उससे इनके राजनीतिक इरादे पूरी तरह साफ़ हो जाते हैं | यहां गौरतलब यह भी है कि एक तरफ़ अलगाववादियों से नरम रूख रखने बाले मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की राजनीतिक पैतरेबाजी कश्मीर घाटी के माहौल को बिगाडने का काम कर रही है, वहीं  दूसरी तरफ़ उनसे जनता परिवार मे शामिल होने का आग्रह भी किया जा रहा है |
            राजनीतिक नजरिये से अगर इसे महज गठबंधन को मजबूत करने की रणनीति ही मान भी लिया जाए तो भी ऐसे हालातों मे मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद से मिलना और न्योता देना राष्ट्र्हित मे तर्कसंगत तो कतई नही लगता | इससे तो देश के दुश्मनों को बढावा ही मिलेगा |
     कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने जिस तरह अलगाववादी नेताओं को “साहब “ कह कर संबोधित किया उसने एक तरह से उन ताकतों का हौंसला बढाने का काम ही किया है | राष्ट्रीय एकता व अखंडता के संवेदनशील मुद्दों पर पहले भी इस तरह की घटिया राजनीति ने देश का कम नुकसान नही किया है |
     थोडा गौर से देखें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था मे वोट की यह राजनीति अब राष्ट्र्हित की कीमत पर की जाने लगी है | पाकिस्तान समर्थक मसर्रत आलम को रिहा कर पूरी घाटी को हिंसा की आग मे झोंकने के पीछे यही वोट बैंक की राजनीति काम कर रही है | अब जब चौतरफ़ा दवाब मे उसे फ़िर नजरबंद कर दिया गया है, हिंसा ने पूरी घाटी को चपेट मे ले लिया है |
     ऐसे विषम हालातों मे भी हमारे विपक्षी दल राष्ट्र्हित को नजर-अंदाज कर अपने वोटों की राजनीति का गणित साधने मे लगे हैं | दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि विरोधी दलों की रूचि समस्या के हल से ज्यादा भाजपा-पीडीपी गठबंधन के बीच दरार पैदा करने मे है | उन्हें न राष्ट्र्हित दिखाई दे रहा है और न ही घाटी का गर्म होता माहौल |
     देश के इन राजनीतिक दलों के इस व्यवहार का पूरा पूरा लाभ हाफ़िज सईद जैसे लोगों को मिल रहा है जो न सिर्फ़ भारत के खिलाफ़ जहर उगल रहे हैं बल्कि  ‘ कश्मीर की आजादी ‘ का सपना भी देख रहे हैं | इससे बडा और दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि एक तरफ़ देश के दुश्मनों की आवाज एक है वहीं हमारे राजनीतिक दल आत्मघाती बयानबाजी कर आग मे घी डालने जैसा काम कर रहे हैं | कुछ ने शुतुरमुर्गी रवैया अपना लिया है | यह सब कुछ महज वोट और तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए |
     आज जो हालात पैदा हो गये हैं, उसमे यह जरूरी हो गया है कि अलगाववादी नारों को उछालने वालों और पाकिस्तान का झंडा लहराने वालों से पूरी सख्ती से निपटा जाए | यह भी जरूरी है कि देश के सम्मान और प्रतिष्ठा की कीमत पर सत्ता समीकरणों को साधने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका को भी बेनकाब किया जाए | तमाम राजनीतिक विराधाभासों के बाबजूद, भारतीय जनमानस का यह एक सुखद पहलू है कि उसमें राष्ट्रभावना व देशप्रेम की कमी कहीं नही दिखती | देश का आम नागरिक आज भी ऐसे हालातों मे देश के साथ खडा दिखाई देता है | इस सकारात्मक पहलू का उपयोग ऐसे राजनीतिक दलों  को बेनकाब करने के लिए किया जाना चाहिए जिनकी कथनी और करनी देशहित को नजर-अंदाज कर राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने का काम कर रही हैं |
     बहरहाल, घाटी के हालात भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा से कम नही हैं | उसके राष्ट्र्प्रेम , सख्त प्रशासन,  हिन्दुत्व व सांस्कृतिक सोच की साख भी दांव पर लगी है | अगर कश्मीर घाटी को अलगाववादियों के चंगुल से मुक्त न कराया जा सका और इसी तरह पाकिस्तान समर्थक नारे लगते रहे तो इसका सबसे बडा राजनीतिक खामियाजा  भाजपा को ही उठाना पडेगा |

     

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

इतिहास मे दफ़न विवादों की राजनीति



(एल.एस.बिष्ट)-     भारतीय राजनीति की विडंबना रही है कि समय समय पर यहां कब्र मे दफ़न मुर्दे फ़िर जिंदा हो बोलने लगते हैं | चूंकि कब्र मे दफ़न किए गये मुर्दे विभिन्न राजनीतिक कालखंडों से संबधित रहे हैं इसलिए विवाद होना भी स्वाभाविक ही है | यह दीगर बात है कि आजादी के बाद चूंकि कांग्रेस को ही एक लंबे समय तक सत्ता सुख भोगने का अवसर मिला है इसलिए ज्यादातर दफ़न मुर्दे भी उसी से जुडे हैं |
     राजनीतिक इतिहास मे फ़िर समय आया गैर कांग्रेसी शासन का | कुछ मुर्दों को इस काल मे भी चुपचाप दफ़न कर दिया गया | अब जब इधर एक नई राजनीतिक शैली विकसित हुई है जिसमें इतिहास के विभिन्न कालखंडों मे द्फ़न किए गये मुर्दों पर सवाल उठाये जाने लगे हैं तो कई ‘ राज ‘ सामने आने लगे हैं | लेकिन यहां यह देखना भी बडा रोचक है कि प्रत्येक राजनीतिक दल दूसरे दल के सत्ता अवधि मे दफ़न किए गये मुर्दों पर सवालिया निशान लगाता है और मांग उठाई जाती है कि जल्दबाजी मे दफ़न किए गये उन मुर्दों का दोबार ‘ पोस्टमार्टम ‘ किया जाए | लेकिन अपने शासन काल मे दफ़न मुर्दों का दोबारा ‘ पोस्टमार्टम ‘ करवाने का ‘ जोखिम ‘ कोई दल नही उठाना चाहता |
     इतिहास के पन्नों मे दफ़न एक ऐसा ही विवाद है नेता जी सुभाषचद्र बोस की मृत्यु का | अब यह बात भी सामने आई है कि नेहरू जी के शासन काल मे उनके परिवार की जासूसी की जाती रही है | यही नही, उनके सगे संबधियों के बारे मे भी नेहरू जी इंटेलिजेंस ब्यूरो से सूचनाएं प्राप्त करते रहे | ऐसा लंबे स्मय तक किया जाता रहा |
     इधर उनके निजी गनर रहे स्वतंत्रता सेनानी जगराम ने खुलासा किया नेता जी की विमान दुर्घटना मे मौत नही हुई थी | उनकी ह्त्या की गई थी | उनका कह्ना है कि इस बात की सौ फ़ीसदी आशंका है कि नेताजी को रूष मे फ़ांसी दी गई थी | ऐसा नेहरू के कहने पर रूष के तानाशाह स्टालिन ने किया था | उन्होने बताया कि चार लोगों को युध्द अपराधी घोषित किया गया था | इनमे जापान के तोजो, इटली के मुसोलिनी, जर्मनी के हिटलर एवं भारत के नेता जी सुभाषचंद्र बोस शामिल थे | तोजो ने छ्त से कूद्कर जान दे दी थी | मुसोलिनी को पकडकर मार दिया गया और हिटलर ने गोली मार कर आत्महत्या कर ली थी | केवल नेता जी ही बच गये थे | उन्हें जापान ने रूष भेज दिया था |
     जगराम ने यह भी बताया कि नेहरू जी को हमेशा यही लगता था कि यदि नेता जी सामने आ गए तो फ़िर उन्हें कोई नही पूछेगा | लोग उनके पीछे खडे हो जायेंगे | उन्होने यह भी कहा कि उनकी लोकप्रियता कई भारतीय नेताओं को नही सुहाती थी | इनमे नेहरू जी सबसे ऊपर थे |
     इस खुलासे के बाद एक और विवाद सामने आ गया | नेता जी के एक भतीजे अद्रेदू बोस ने आरोप लगाया है कि नेहरू-गांधी परिवार ने राष्ट्र्वादी नेता की विरासत को ही मिटाने की कोशिश की | यही नही उनके परिवार की जासूसी भी कराई गई | इन्होने यह भी कहा कि भारत मे इतिहास की किताबों मे बोस, इंडियन नेशनल आर्मी (आइएनए ) का कोई उल्लेख नही है | जबकि पटेल के बारे मे बहुत थोडा | इस आरोप ने राजनीतिक क्षेत्र मे हडकंप मचा दिया है | कांग्रेस अपने को घिरा हुआ महसूस कर रही है |
     दर-असल ऐसा पहली बार नही है | नेहरू काल के  तमाम राजनीतिक फ़ैसलों पर विवाद रहा है | थोडा पीछे देखें तो कांग्रेस पार्टी का देश की आजादी से जो रिश्ता रहा है, स्वतंत्रता के बाद उसका भरपूर राजनीतिक लाभ इसे लंबे समय तक मिलता रहा । गांधी और नेहरू को जिस तरह से देश के स्वाधीनता आंदोलन से जोड कर महिमा मंडित किया गयाउसे समझने मे आमजन को कई दशक लग गये । दर-असल विभाजन के बाद पहले आम चुनाव में कांग्रेस का सत्ता में आना एक राजनीतिक वरदान साबित हुआ । सत्ता की बागडोर मिलते ही कांग्रेस ने जैसा चाह वैसा इतिहास पाठय पुस्तकों में सम्मलित कर एक पूरी पीढी का "ब्रेन वाश " किया । पांचवे दशक मे पैदा हुई पीढी ने वही पढा और समझा जो उसे स्कूलों की पाठय पुस्तकों में पढाया गया था । यह कांग्रेस का सौभाग्य रहा कि वह आजादी के बाद लंबे समय तक सत्ता में काबिज रही और उस इतिहास को पढ कर कई पीढीयां जवान हुईं ।
      अगर थोडा गौर करें तो स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारियों की भूमिका को कम करके आंकते हुए इतिहास लिखा गया । एक तरह से बडी चालाकी से इनके योगदान को हाशिए पर रखने में कांग्रेस सफल रही । यही नहीं, जहां एक तरफ नेहरू और गांधी को इतिहास में महिमा मंडित किया गया वहीं दूसरी तरफ लोह पुरूष कहे जाने वाले पटेल की भूमिका और उनके योगदान को भी बडी खूबसूरती से इतिहास के एक छोटे से कोने में समेट कर रख दिया गया । अब जब सूचनाओं और संचार साधनों का विकसित तंत्र सामने आया तो लोग समझ सके कि पटेल क्या थे और देश के नव निर्माण में उनका क्या योगदान रहा ।
      यही नहीं, नेहरू शासनकाल की कमजोरियों और विफलताओं के बारे में भी अब थोडा बहुत जानकारियां मिलने लगीं हैं । अन्य़था कांग्रेसी इतिहास की चमकीली परतों के अंदर खामियों के सारे अंधेरे दफन पडे रहे । अब इन विवादों ने एक नई बहस को जन्म दिया है | आमजन भी यह कहने लगा है कि अगर कुछ छुपाया नही जा रहा तो नेता जी की मृत्यु से जुडे द्स्तावेजों को आखिर सार्वजनिक क्यों नही किया जा रहा | इतिहास मे दफ़न इन तमाम बातों के सामने आने पर कांग्रेस पार्टी व नेहरू –गांधी परिवार की देशभक्ति व ‘ बलिदान गाथा ‘ भी सवालों के घेरे मे आ गई है |

      बहरहाल, नेता जी की मृत्यु व उनकी जिंदगी के कुछ पहलुओं पर एक लंबे स्मय से विवाद रहा है | अनेक बार जांच समितियों की रिपोर्ट भी सामने आई हैं लेकिन कोई ठोस नतीजों के अभाव मे शंकाओं का समाधान न हो सका | अब तमाम आरोपों के साथ यह मुद्दा फ़िर एक बार चर्चा मे आ गया है | जरूरी है सरकार उन द्स्तावेजों को सार्वजनिक करे जो गोपनीयता की तह के अंदर दबे पडे हैं | बहुत संभव है तभी नेता जी से जुडे तमाम विवादों से परदा उठ सकेगा | अगर ऐसा नही तो आखिर यह सस्पेंस कब तक और क्यों रखा जाना चाहिए , यह सवाल उठना भी स्वाभाविक ही है | 

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

घाटी मे जरूरी है कश्मीरी पंडितों की वापसी


( एल. एस. बिष्ट ) -कश्मीर् की शांत, खूबसूरत वादियां एक बार फिर चर्चा मे हैं । आतंक का दंश झेलती इस घाटी का माहौल इस बार किसी खून खराबे को लेकर नही बल्कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों को दोबारा बसाये जाने के सवाल पर गर्म हो गया है । जब से सरकार ने घाटी मे कश्मीरी पंडितों को दोबारा बसाये जाने की बात कही है, अलगाववादी नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया है ।

घाटी मे सक्रिय लगभग सभी अलगाववादी गुटों का मानना है कि अगर कश्मीरी पंडित घाटी मे अपने पुश्तैनी घरों मे आना चाहें तो बहुत अच्छा है लेकिन उनके लिए अलग कालोनी बनाये जाने से इजराइल और फलस्तीन जैसे हालात पैदा हो जायेंगे । जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट हो या आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेस के गिलानी सभी इसका एक स्वर से विरोध कर रहे हैं । जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुहम्मद यासीन मलिक ने तो यहां तक कहा है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद अब यहां आर.एस.एस. के ऐजेंडे को लागू करने जा रहे हैं । उनका कहना है कि अगर सरकार न मानी तो वह आमरण अनशन पर बैठ जायेंगे ।

इस विरोध को देखते हुए यह तो स्पष्ट ही है कि कश्मीरी पंडितों को घाटी मे दोबारा बसाना सरकार के लिए आसान काम तो कतई नही दिख रहा । लेकिन दूसरी तरफ पिछ्ले 25 सालों से वनवास झेल रहे इन वाशिंदों को फिर इनके घरोंदों मे बसाना भी जरूरी है । आखिर यह कब तक दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे । सवाल यह भी कि आखिर क्यों ।

शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं । इधर केन्द्र मे भाजपा सरकार के सत्ता मे आने के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर मे भाजपा की सरकार मे साझेदारी ने इनकी उम्मीदों को बढाया है । इन्हें लगने लगा है कि मोदी सरकार कोई ऐसा रास्ता जरूर निकालेगी जिससे वह अपने उजडे हुए घरोंदों को वापस जा सकेंगे ।

दर-असल घाटी मे कभी इनका भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ । उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।

इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।

अपने खूबसूरत घरोंदों को छोडने व पलायन की पीडा इस वादी की एक अनकही कहानी है । केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि मोतीलाल साकी ने अपनी एक कविता मे उस दर्द को बयां किया है ।

" वे निकल भागे किधर किस ओर / यह उनके सगे भी नही जानते / सुना है कुछ रेत के टीलों पर जाकर बस गये / कुछ जान बचाने को टीले मे चले गये / कुछ झील , सरोवरों, बागों-चिनारों को छोड / चल दिये बियावानों की ओर / भूल गये वे कौन थे, कहां से आये थे / इस मकान मे रह गये बस कुछ ही लोग / भाग्य को कोसते, रो-रो कर दिन गुजारते ............"

इस दर्द को सिर्फ महसूस किया जा सकता है । आतंकवाद के चलते और अलगाववादी राजनीति के कारण ऐसे हालात बने ही नही कि यह लोग अपने घरों मे वापसी का साहस जुटा सकते । दर-असल यहां की अलगाववादी ताकतें चाहती ही नही कि कश्मीरी पंडितों को फिर यहां वापसी हो । वह अलग कालोनी का विरोध कर भी इसीलिए रहे हैं कि मुस्लिम आबादी के बीच अपने पुश्तैनी मकानों मे रहने का साहस अब यह नही उठा सकेंगे । लेकिन वह समझते हैं कि अगर अलग से कालोनी बनाई जाने लगी तो यहां आने व रहने मे इन्हें कोई विशेष भय नही होगा । फिर ऐसे मे इनकी मनमानी पर तो रोक लगेगी ही साथ मे राजनीतिक नुकसान होने की संभावना भी बनी रहेगी । आगे चल कर जनसंख्या का गणित भी इनके अलगाववादी इरादों पर नकेल लगा सकता है । इसी लिए यह नही चाहते कि घाटी मे दोबारा इनकी वापसी हो ।


अब यह सत्ता मे आई भाजपा सरकार को देखना है कि इस समस्या को कैसे हल किया जाए । लेकिन इतना जरूर है कि इनकी घर वापसी हर हालत मे सुनिश्चित की जानी चाहिए ।चाहे इसके लिए कितनी ही सख्ती क्यों न करना पडे । यह सिर्फ इनके ही हित मे नही है बल्कि यह देश के हित मे भी है । अगर ऐसा न किया गया तो आगे बहुत संभव है हालात इससे भी ज्यादा बदतर होने लगें । दूसरे धर्मों के लोगों का भी घाटी मे रहना देश के हितों के लिए बेहद जरूरी है । इस बात को शिद्दत से समय रहते महसूस किया जाना चाहिए । 

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

‘माई च्वाइस’ वीडियो / मनमर्जी की चाह या रूढियों से मुक्ति

अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का वीडियो “माई च्वाइस “ चर्चा मे है | इसकी सराहना करने वालों की भी अच्छी संख्या है और आलोचना करने वाले भी कम नही | इस वीडियो मे दीपिका को कहते दिखाया गया है “ मैं शादी करूं या न करूं, यह मेरी मर्जी है ……मैं शादी से पहले सेक्स करूं या शादी के बाद भी किसी से रिश्ते रखूं यह मेरी इच्छा है “ |
     आश्चर्य इस बात का नही कि महिला उत्थान या सशक्तिकरण के नाम पर लोगों को इसमे कोई बुराई नजर नहीं आ रही बल्कि आश्चर्य इस बात का है कि वही समाज भाजपा नेता गिरिराज के बयान पर मुंह फ़ाड फ़ाड कर चिल्ला रहा है | बल्कि गोवा के मुख्य्मंत्री पारसेकर के उस बयान पर भी अपने ज्ञान और मुखरता का प्रदर्शन कर रहा है जिसमे उन्होंने बहुत ही साधारण ढंग से सिर्फ़ यह कह दिया कि धूप मे बैठ कर आंदोलन न करो वरना रंग काला पड जायेगा और शादी मे परेशानी होगी | महिला फ़ोबिया से ग्रसित राजनीति व समाज के एक वर्ग को महिलाओं का सम्मान ‘ गंभीर खतरे’  मे पडता दिखाई देने लगता है |
     सामाजिक व्यवहार को लेकर समाज के एक वर्ग दवारा की गई यह पाखंड्पूर्ण प्रतिक्रियाएं पहली बार नही हैं बल्कि इधर कुछ समय से महिला सशक्तिकरण के नाम पर कुछ ऐसा ही होता रहा है | दीपिका का यह वीडियो दर-असल वैचारिक रूप से नपुंसक होते उस समाज का प्रतिफ़ल है जो आज न तो सच बोलने की हिम्मत जुटा पा रहा है और न ही सच के पक्ष मे खडा होता दिखाई दे रहा है | बल्कि संतुलित सोच व व्यवहार के पक्षधर लोगों को ही कटघरे मे खडा करने के प्रयास मे अपनी सारी उर्जा खर्च करता दिखाई देता है | जाने-अनजाने मे यह वर्ग अतिवादी सोच का हिमायती बन भविष्य के लिए एक ऐसे सामाजिक परिवेश को तैयार कर रहा है जहां “ मेरी मर्जी, माई च्वाइस “ के नाम पर नैतिक मूल्यों व सामाजिक बंधनों का कोई स्थान नही होगा |
     सच तो यह है कि दीपिका जैसी अभिनेत्री को यह कहने का साहस इसलिए हुआ कि समाज का एक बडा वर्ग महिलाओं के नाम पर भेडों जैसा व्यवहार करने लगा है | असहमति के स्वर, सहमति के नारों और महिला जाप के मंत्रों के बीच दब से गये | महिलाओं के बारे मे कही गई साधारण सी बात या मजाक पर भी आसमान सर पर उठा लेने की होड सी दिखाई देने लगी है | इस ‘ महिला फ़ोबिया ‘ के चलते जो माहौल बना उसमे दीपिका का इस तरह का वीडियो बनाना स्वाभाविक ही था |
     देखा जाए तो यह वीडियो युवतियों को खुले सेक्स के लिए तो उकसा ही रहा है साथ मे सामाजिक बंधनों के प्रति विद्रोही तेवर अपनाने की भी वकालत कर रहा है | अगर महिला उत्थान के नाम पर बिना सोचे समझे ऐसे ही जयकारे लगते रहे तो वह दिन दूर नही जब वह अपने दूसरे वीडियो मे युवतियों को सुरक्षित सेक्स के तरीके भी समझाती नजर आयेंगी | बहुत संभव है रिश्तों की मर्यादा के लिए बनाए गये बंधनों की भी हंसी उडाती नजर आएं और ऐसे सेक्स माहौल की वकालत करती दिखें जहां कोई रिश्ता मायने नही रखता सिवाय यौन सुख के | यहां सवाल उठता है कि क्या हम ऐसे समाज की कल्पना कर रहे हैं |
            यहां यह भी समझना जरूरी है कि जब ‘ माई च्वाइस ‘ या मेरी मर्जी की निरकुंश सोच को किसी भी सामाजिक व्यवस्था के मूल्य व बंधन स्वीकार नही तो फ़िर बलात्कार या किसी प्रकार के दैहिक शोषण के मामलों मे उसे उस समाज को कोसने का भी कोई अधिकार नही | समाज के अपने कुछ बंधन होते हैं जिन्हें सामाजिक प्राणी होने के नाते सभी को स्वीकारना होता है | उनसे विद्रोह और निरंकुश मर्जी के चलते किसी भी घटना / दुर्घटना होने पर समाज को उसके लिए उत्तरदायी नही ठहराया जा सकता | यह कतई संभव नही कि एक तरफ़ तो आप “ मेरी मर्जी , मेरी मर्जी “ के नारे लगाते हुए समाज के किसी बंधन को स्वीकार न करना चाहे और दूसरी तरफ़ उसी समाज से सुरक्षा की उम्मीद लगायें |               
              इस संदर्भ मे गौरतलब यह भी है कि जब ‘ माई च्वाइस ‘ (मेरी मर्जी) सोच की समर्थक युवतियों को अपनी मर्जी के आगे किसी तरह के सामाजिक बंधन स्वीकार्य नहीं तो बलात्कारी व नारी शरीर को भोग की वस्तु समझने वालों से कैसे किसी बंधन की आशा रख सकती हैं | बलात्कार करना उनकी भी ‘ च्वाइस ‘ हो सकती है | वह जब चाहे जिसके साथ चाहें इस घृणित कार्य को करने के लिए स्वतंत्र है^ | यह समझना जरूरी है कि समाज मे अंकुश सभी पर लागू होते हैं , एक तरफ़ा नही |
     बहरहाल बात सिर्फ़ इस विवादास्पद वीडियो तक सीमित नही है | अगर आज महिलाओं की स्वतंत्रता, उत्थान व सशक्तिकरण के मुद्दे पर इसी तरह ‘ महिला फ़ोबिया ‘ से ग्रसित होकर बढ चढ कर जयकारे लगाये जाते रहे और हर सही गलत पर इसी तरह ताली पीटते रहे,  तो वह दिन दूर नही जब हमे एक ऐसा नजारा देखने को मिलेगा जिसकी कल्पना तक हमने न की होगी | भारतीय पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों की बिखरी हुई चिंदयों को समेटना भी चाहेंगे तो समेट न  सकेंगे |

            एल.एस.बिष्ट , 11/508 इंदिरा नगर, लखनऊ