शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

अब किस ठौर हमारी नाव



गुजरात चुनावों के बाद से ही ऐसा लगने लगा था कि देश मे अल्पसख्यक राजनीति अब एक नई  करवट ले रही है | मोदी के गृहराज्य व भाजपा के एक मजबूत गढ मे जिस तरह से कांग्रेस ने अच्छा मुकाबला किया उसी को देखते हुये राहुल गांधी को यह एहसास हो चला था कि उदार हिंदु कार्ड खेलना लाभदायक रहा  |

      गुजरात चुनाव के बाद हाल मे हुये पांच राज्यों मे तो सेक्यूलर समझी जाने वाली कांग्रेस पूरी तरह से एक हिंदुवादी पार्टी मे तब्दील होती दिखाई दी और शिवभक्ति से लेकर रामभक्ति का जो नजारा राहुल गांधी ने दिखाया  उसका सीधा परिणाम मध्यप्रदेश, राजस्थान व छ्त्तीसगढ की विजय के रूप मे सामने आया | इन पांच राज्यों मे जिस तरह से राहुल गांधी पूरी तरह एक हिंदु के रूप मे सामने आये , उसे देख कर अब सवाल उठने लगा है कि क्या सत्तर सालों के बाद कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्षता का लबादा छोडने की राह पर चल पडी है ? क्या कांग्रेस पार्टी को यह एहसास हो चला है कि हिंदु बहुल इस देश मे मुस्लिम परस्ती का लेबल अब उसे चुनावी लाभ नही दे रहा ?

      गौर से देखें तो सोच मे यह बदलाव स्पष्ट तौर पर दिखाई देने लगा है | कांग्रेस इन पांच राज्यों के चुनावों मे एक सेक्यूलर पार्टी कम हिंदुवादी पार्टी ज्यादा नजर आ रही थी | अब तो यह लगता है कि कांग्रेस धीरे धीरे एक राजनीतिक पार्टी के रूप मे अपनी उस छ्वि को खत्म करना चाहेगी जो सत्तर वर्षों मे उसकी रही है| ऐसा प्रयास दिख भी रहा है | सवाल इस बात का भी है कि आखिर कांग्रेस जैसी पार्टी जिसने लंबे समय तक अपने को एक सेक्यूलर पार्टी के रूप मे स्थापित किया व सफ़लतापूर्वक चुनावों मे जीत हासिल की अब हिंदु चेहरा लगाने को क्यों मजबूर हो ग ई ? सवाल भी हैं और शंकाएं भी | इन सवालों का मंथन भी बेहद जरूरी है |

      वैसे देखा जाये तो आजादी के बाद से ही देश मे मुस्लिम राजनीति एक अलग सांचे मे ढल चुकी थी जिसमे अल्पसंख्यक होने का सामाजिक नुकसान भी था और राजनीति मे हाशिये मे प्डे रहने का भय भी | जैसा कि विभाजन के समय हुआ उच्च व मध्यम वर्ग ने पाकिस्तान की राह पकडी और अपेक्षाकृत गरीब मुस्लिम समुदाय ने भारत मे रहना मुनासिब समझा | इस पिछ्डे समुदाय की सोच मे निहित भय को राजनीतिक दलों ने भांप लिया और उसके दोहन के लिये उनका राजनीतिक इस्तेमाल किया जाने लगा | इस भय के दोहन मे सबसे आगे बढ कर कांग्रेस ने हिस्सा लिया और भारतीय मुसलमानों ने भी कांग्रेस को अपना रहनुमा मान  लिया |

      कांग्रेस को लंबे समय तक कोई विषेष राजनीतिक चुनौती नही मिली और वह मुसलमानों की एक मात्र पसंदीदा पार्टी के रूप मे बनी रही  | उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप भी लगते रहे लेकिन  वह इन सबसे बेपरवाह  अपनी राजनीतिक शैली मे ही आगे बढती रही | लेकिन राजनीति ने करवट बदली और देश मे गैर कांग्रेसी सरकारों की शुरूआत हुई | इस बीच भाजपा का तेजी से देश मे फ़ैलाव हुआ तथा उसे एक बडे हिंदु वर्ग दवारा स्वीकार भी किया जाने लगा | दुनिया भर मे पैर पसारते मुस्लिम  आतंकवाद ने भी हिंदु विचारधारा को मजबूत करने मे अहम भूमिका निभाई | पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने आग मे घी का काम किया | यही नही कांग्रेसी शासन मे बढते भ्र्ष्टाचार ने भी लोगों को सोचने के लिये मजबूर कर दिया

      इन सभी के चलते 2014 के आम चुनावों मे जिस तरह से कांग्रेस का सफ़ाया ही हो गया उसने स्वंय कांग्रेस को सोचने के लिये मजबूर कर दिया | उसे यह समझने मे समय नही लगा कि देश का एक बडा समुदाय भाजपा की राष्ट्र्वादी व हिंदु विचारधारा को देशहित मे सही मानने लगा है और इस राजनीतिक  दवाब ने उसे भी हिंदु समर्थक दिखाई देने के लिये मजबूर कर दिया | गुजरात चुनाव मे उसे इसका फ़ायदा भी मिलता दिखाई दिया और इन हाल के चुनावों मे तो उसे अप्रत्याशित विजय मिली | अब वह इसी रास्ते मे आगे बढती दिखाई देने लगी है |


      लेकिन अब सवाल मुस्लिम समुदाय के सामने है | अब तक वह
 कांग्रेस के साथ रहा है | भाजपा के बढते प्रभाव के कारण भी  उसे कांग्रेस के साथ रहने मे ही अपना हित नजर आया | यह दीगर बात है कि कुछ राज्यों मे उसे दूसरे क्षेत्रीय दलों के साथ रहना ज्यादा सुविधाजनक व लाभदायक रहा जैसे कि उत्तरप्रेदेश मे सपा व बसपा के साथ | लेकिन  चूंकि इन दलों की हैसियत राज्य तक सीमित  है | इसलिये राष्ट्रीय पार्टी के रूप मे मुस्लिम समुदाय की पसंद अभी तक कांग्रेस ही रही | लेकिन अब जब कांगेस स्वंय एक हिंदु पार्टी के रूप मे अपने को प्रस्तुत करने लगी है , सवाल अब इनके सामने है कि वह कहां जाएं ?

      यह भी संभव है कि वह भाजपा के भय और तीखे हिंदुवाद के सामने कांग्रेस के उदार हिंदुत्व को ही स्वीकार कर ले या फ़िर क्षेत्रीय दलों के साथ  अपने हित देख कर अलग अलग राज्यों मे अलग अलग दलों के समर्थन मे रहे | इस बात से भी इंकार नही किया जा सकता कि मुस्लिम समुदाय के बीच से ही कोई नेतृत्व उभर कर सामने आये | बहरहाल उत्तर  प्रदेश , बिहार जैसे राज्यों मे कांगेस की बदलती छ्वि के साथ दूसरे दलों ने मुस्लिम वोटों के लिये कवायद शुरू कर दी है | लेकिन अब जब उनकी पुरानी पार्टी उनसे ही  दूरी बनाने लगी है जिससे वर्षों का साथ रहा है,  कोई फ़ैसला लेना आसान नही होगा |  
     

रविवार, 9 सितंबर 2018

हिमालय क्षेत्र का दर्द


                 जब हम हिमालय बेल्ट या क्षेत्र की बात करते हैं तो उसका विस्तार हिमाचल, जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तर पूर्व के उपेक्षित राज्यों तक जाता है । जिसमे उत्तराखंड भी सम्मलित है । मोटे तौर पर भौगोलिक रूप से यह ऊंची-ऊंची पहाडियों, घने जंगलों, वेगवती नदियों और बर्फ के संचित भंडार का क्षेत्र है । इस संपूर्ण क्षेत्र की जलवायू भी कमोवेश एक सी है । यही नहीं, यहां की समस्याओं और जरूरतों मे भी बहुत ज्यादा अंतर नही है । लेकिन यह इस क्षेत्र की त्रासदी रही है कि इस पर कभी पर्याप्त ध्यान दिया ही नही गया । एक तरफ जहां देश विकास की सीढियां चढता रहा वहीं दूसरी तरफ हिमालय क्षेत्र के राज्य विकास की बाट जोहते रहे ।
      क्या यह जानना अब भी शेष है कि देश की सुरक्षा की द्र्ष्टि से भी यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील व महत्वपूर्ण है । उत्तराखंड से लेकर उत्तर पूर्व के सीमांत राज्यों के भू-भाग पर चीन की नजर हमेशा रही है । समय- समय पर छोटी बडी घुसपैठ इस क्षेत्र मे आम बात हो गई है । अगर यहां सडकों, हवाई अड्डों का मजबूत जाल नहीं तो देश भला कैसे सुरक्षित रह सकता है । आज उत्तराखंड मे सडकों का जो जाल बिछा है, वह 1962 मे भारत-चीन युध्द के उपरांत ही विकसित हो सका । लेकिन अब इस संपूर्ण क्षेत्र को विकसित सुरक्षा तंत्र की जरूरत है क्योंकि चुनौतियां कहीं ज्यादा गंभीर हैं । मोदी सरकार इस क्षेत्र के इस संवेदनशील पहलू को अच्छी तरह समझ चुकी है ।
      यही नही, हमारी घोर उपेक्षा व अदूरदर्शी नीतियों ने इस क्षेत्र को गंभीर क्षति पहुंचाई है । हिमालय क्षेत्र जो संपूर्ण उत्तर भारत की जलवायू को नियंत्रित करता है, प्रदुषण की मार झेल रहा है । पर्वतारोहण अभियानों की बाढ इसे गंदगी का ढेर बना रही है । रास्तों मे कूडे के ढेर और पेड पौधों का सत्यानाश किया जा रहा है । जल धाराओं में भी गंदगी फैलाई जा रही है । पोलीथीन, खाली टिन के डिब्बे, जूस की बोतलें, रस्सी-खूटियों को कहीं भी देखा जा सकता है ।
      दूसरी तरफ वनों के अंधाधुंध दोहन ने एक नया ही संकट पैदा कर दिया है । वह घने जंगल जो कभी वर्षा बादलों को रोकने काम बखूबी किया करते थे, अब असहाय नजर आते हैं । वन माफियों की चोरी और सीनाजोरी ने इस क्षेत्र के वनों को बर्बादी की हद तक पहुंचा दिया है । सरकार की अदूरदर्शी नीतियां आग मे घी का काम कर रही हैं । उत्तराखंड का चिपको आंदोलन इस दर्द के गर्भ से ही उपजा और जंनसामान्य मे विस्तारित हो चेतना का प्रतीक बना । लेकिन वनों के दोहन का कुचक्र अभी खत्म नही हुआ है ।
      दूसरी तरफ खंनन ने भी हिमालयी क्षेत्र को कम नुकसान नहीं पहुंचाया । डायनामाइड विस्फोट से कमजोर हुई हिमालय की कच्ची पहाडियों मे हो रहा भू-स्खलन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । मौसम की पहली बरसात मे ही यहां भीषण भू-स्खलनों की श्रंखला शुरू हो जाती है । केदार घाटी का हादसा इस निर्मम सच का गवाह है । लेकिन कानूनी व गैरकानूनी खनन बदस्तूर जारी है ।
      हिमालय क्षेत्र पुरातन काल से ही प्राकृतिक संसाधनों की द्र्ष्टि से समर्ध्द रहा है । वन संपदा के साथ ही संपूर्ण क्षेत्र जडी-बूटियों का भी भंडार है । इस क्षेत्र के लोग पुरातन काल से यहां पाई जाने वाली औषधियों से ही अपना इलाज करते आये हैं । लेकिन अब यहां इनका भंडार खतरे मे है । इनकी चोरी और तस्करी आम हो गई है । तस्कर, ठेकेदार व् कुछ दवा कंपनियां अपनी जेबें भर रहे हैं । सरंक्षण के अभाव मे कई दुर्लभ बूटियां लुप्त होने की कगार पर हैं । इसे रोकना तभी संभव है जब हिमालय की इस संपदा के रख-रखाव व सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाये और इसके लिए कानून बने ।
      यही नही, बिगडते पर्यावरण के कारण बर्फ का संचित भंडार तेजी से पिघल रहा है । यही कारण है कि गो-मुख पीछे हटता जा रहा है । पहाडी नदियों व झीलों मे हिमखंड तैरने लगे हैं । भूवैज्ञानिकों की रिपोर्ट आने वाले खतरों की तरफ इशारा कर रही हैं । अगर यही स्थिति यही रही तो जलवायू का संतुलन तो बिगडेगा ही नदियों व सागरों में उथल-पुथल भी संभव है ।
      इस तरह एक तरफ तो इस हिमालय क्षेत्र की वन संपदा, जडी-बूटियों, पर्यावरण, धार्मिक स्थल व वन आधारित उधोग उपेक्षा की मार झेल रहे हैं तो दूसरी तरफ गलत नीतियों से भू-स्खलन व बिगडते पर्यावरण की समस्या गंभीर होती जा रही है । विकास के अभाव मे सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा भी चाक-चौबंद नही ।  इसमे कोई शक नही कि इस हिमालय क्षेत्र के विकास व सरंक्षण के बिना न तो देश के पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकेगा और न ही गंगा की पावन धारा को । 


मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या भ्रष्ट व्यवस्था के स्वयं पोषक हैं हम




     15 अगस्त 1947 को हम आजाद हुए | हमने खुशियां मनाई कि गुलामी की बेडियों से मुक्त हम युगों तक आजाद भारत में सांस लेते रहेंगे | 26 जनवरी 1950 को फ़िर हमने मिठाइयां बांटी, पटाखे छोडे कि अब हमारा राष्ट्र, हमारा जीवन हमारे ही द्वारा बनाए गए संविधान से आगे और आगे बढता रहेगा | हमने एक ऐसे गणतंत्र की आधारशिला रखी जिसमें सभी धर्म, जातियों तथा वर्गों को फ़लने-फ़ूलने का पूरा पूरा अवसर मिले |

     लेकिन आज गणतंत्र का जो स्वरूप सामने है, उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी | हमारे प्रजातंत्र का मूल मंत्र है, जनता के लिए,जनता द्वारा,जनता का शासन | इस उदार व्यवस्था में हमें ढेरों अधिकार मिले लेकिन आज उन अधिकारों के बाबजूद गणतंत्र की वह चमक जिसकी उम्मीद की गई थी,कहीं नहीं दिखती |

     स्वतंत्रता के पूर्व अपनी बदहाली का कारण हमें गुलामी समझ मे आता था | लेकिन उस अंधेरे मे हमारे पास अपनी पीडा सह लेने के अलावा और दूसरा रास्ता था भी नहीं | लेकिन अब वह बेबसी नही रही, वह अंधेरा नही रहा, हम किस जगह की तलाश करें जहां शिद्दत से उठते तमाम सवाल खामोश हो जाएं |

     आज देश की मांसपेसियां काम नही कर पा रही हैं | धमनियों व शिराओं में रक्त प्रवाह मंथर गति से हो रहा है | कुल मिला कर गौतम बुद्द, महावीर स्वामी व गांधी का देश अपना सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र खो चुका है | आजादी मिलने के बाद भारत विश्व का सबए बडा लोकतंत्र बना | तमाम राज्य बने और संविधान के तहत सभी को बराबरी का दर्जा मिला | परंतु सत्ता व वोटों की राजनीति ने एक ऐसे तांडव को जन्म दिया जिसकी चपेट में अब सारा राष्ट्र कराहने लगा है | साम्प्रदायिक दंगों की आग कभी यहां लगती है तो कभी वहां | मासूम लोगों की मोतों पर वोट की राजनीति करने से किसी को जरा भी परहेज नही | एक तरफ़ शहरों की चकाचौंध दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ रही है तो दूसरी तरफ़ आम आदमी का शोषण व बदहाली बढती जा रही है |

     यह सच है कि इस स्थिति के लिए हमारी सरकार तथा व्यवस्था काफ़ी बडी सीमा तक जिम्मेदार हैं | परंतु क्या हम कटघरे से बाहर हैं | इतिहास साक्षी है कि गुलामी के दौर में हम सभी ने कंधा से कंधा मिला कर बेडियों से मुक्ति पाई | परतु फ़िर स्वतंत्रता के बाद ऐसा क्या हुआ कि हम हिन्दु, मुसलमान, सिख, ईसाई या हरिजन तथा सवर्ण व अमीर तथा गरीब हो गए |

     आज हम बेशक राजनीति व व्यवस्थ को कोस लें परंतु वह राजनीति व व्यवस्था कायम नहीं रह सकती जिसे हम अस्वीकार कर दें | लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं किसी न किसी स्तर पर हम स्वय इसके पोषक हैं |

     सत्य तो यह है कि हम सभी ने देश पर ध्यान देने की बजाय अपने अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर दिया | हमारा राष्ट्र चरित्र हमारा व्यक्तिगत चरित्र बन गया | फ़िर प्रत्येक ने उसे कई हिस्सों में अपने अपने हितों के अनुरूप बांट लिया | चरित्रों के बंटवारे की इस अंधी दौड में वह भूल ग्या कि यह वह देश है जहां मर्यादा के लिए कभी राम ने अपनी पत्नी का भी त्याग किया | यह वह देश है जहां महात्मा बुद्द ने सारे माया बंधनों को अस्वीकार कर मोक्ष प्राप्त किया | वह भूल गया कि यह भगवान श्रीकृष्ण की भूमि है जिसने द्रोपदी की लाज बचाई |

     यह सब भूल कर वह अपनी स्वार्थ सिध्दि की अंधी दौड में शामिल हो वह सब करने लगा जिससे उसका अपना घर भर सके | आज स्थिति यह है कि अपना चरित्र खो सभी चोरी, कपट और भ्र्ष्टाचार में लगे हैं | परंतु सभी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं | लेकिन कडवा सच  यह है कि संतरी से लेकर मंत्री तक सभी एक ही रास्ते में चल रहे हैं | देश प्रेम, जनहित, नैतिकता जैसे शब्द उपहास की वस्तु बन कर रह गए हैं | स्त्य व अहिंसा जैसे शब्दों का चीरहरण हो चुका है |

     दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि अपने हितों को देख्कर हम राष्ट्रीय हित को एक्दम नजरांदाज कर रहे हैं| यही कारण है कि आज सभी को अपनी पडी है | किसी को आरक्ष्ण की बैसाखी चाहिए तो किसी को विशेष पैकेज तो किसी को अलग प्रदेश | देश का क्या होगा, इस पर सोचने की जरूरत किसी को महसूस नहीं होती |
     हमारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई उपलब्धियां रहीं, यह कहते, सोचते हमारे नेता नही थकते | बहुत सारे तमगे हमारे ताज पर चमक रहे हैं | लेकिन सत्य तो यह है कि शिखर चमकाने के चक्कर में हम नींव पर ध्यान देना भूल गए |

     आज स्थिति यह है कि जो जहां मजबूत स्थिति में है वह दूसरे कमजोर का शोषण कर रहा है | भौतिक सुविधाओं की होड में वह अमानवीय व्यवहार की हद तक जा चुका है | भ्रष्ट नौकरशाह, मिलावट करने वाला व्यापारी, भ्र्ष्ट ठेकेदार, भ्र्ष्ट पुलिस, स्ररकारी अफ़सरान, तीन तिकडम पढाने वाला मैकेनिक, ठगने वाला व्यापारी, संसद में बैठने वाला नेता, कहीं बाहर से तो नहीं आते | हम ही किसी न किसी रूप में इनमें से एक हैं |

     कडवा सच तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद हमारा चारित्रिक पतन हुआ है | हम स्वार्थी और अपने हित साधने में चालाक हुए हैं | और जिस देश के नागरिकों की सोच में राष्ट्रहित सबसे अंत में आए वहां इससे अच्छी स्थिति की कल्पना की भी नहीं जा सकती | अगर हम चाहते हैं कि आने वाले वर्षों में  तस्वीर बदले तो हमें स्वयं को भी बदलना होगा | यह गन्दी राजनीति व व्यवस्था तब ही बदलेगी जब हम स्वय इसके पोषक न रहें |


रविवार, 10 जून 2018

सिनेमाई नंगई के विरोध मे कौन जलाएगा मोमबत्ती


देश के किसी शहर मे किसी महिला के साथ  बलात्कार होता है तो मोमबत्तियां लिए एक सैलाब सड़कों पर आ जाता है | नारे, धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला ही चल पड़ता है और भारतीय मीडिया तो वहां अपना तम्बू ही गाड़ देता है | टीवी न्यूज चैनलों पर तीखी बहसें शुरू हो जाती हैं | लेकिन जब पूरे समाज के साथ बलात्कार होता है तब कहीं कुछ नहीं | एकदम खामोशी | बल्कि उस सिनेमाई बलात्कार को प्रयोगवादी फिल्म का टैग लगा कर और महिला सशक्तिकरण से जोड़ कर उसे सही ठहराने की पुरजोर कोशिश की जाती है |

       पिछले वर्ष प्रदर्शित विवादास्पद फिल्म “ लिपस्टिक अंडर माए बुर्का “ और अभी सिनेमाहालों मे चल रही  “ वीरे द वेडिंग “ यह सोचने के लिए मजबूर करती है की आखिर देश मे हम किस तरह के महिला सशक्तीकरण की वकालत कर रहे हैं या कहें सपना संजो रहे हैं |

       यह इत्तफाक ही है की पॉर्न फिल्मों को भी पीछे छोड देने वाली तथाकथित प्रयोगवादी फिल्म “ लिपस्टिक अंडर माए बुर्का “ और वीरे द वेडिंग , दोनों मे चार महिला चरित्रों की कहानी है जो जिंदगी को अपने तरीके से  जीना चाहती हैं | लेकिन दोनों  फिल्म देख लीजिए “ जीने  की अलग ललक “ के नाम पर सिर्फ और सिर्फ सेक्स फंतासी है जिसे पूरी फूहड़ता के साथ फिल्माया गया है | “ लिपस्टिक ........... मे अगर सेक्स आजादी के नाम पर खुले द्र्शय हैं तो वीरे द वेडिंग मे साक्षी की भूमिका मे  स्वरा भास्कर ने जो अश्लील संवाद बोले हैं उससे तो बेशर्मी भी शर्मा जा जाए | सड़क छाप सेक्स संवादों से लबरेज इस फिल्म ने उन सेक्स  उपकरणों से भी लड़कियों को परिचित करा दिया जिन्हें वह अभी तक जानती न थीं |

      अब एक सवाल उन तथाकथित प्रगतिशील लोगों से भी जो यह मानते हैं की पुरूषों /लड़कों के बारे मे तो इस तरह के सवाल नही उठाए जाते, तो फिर महिलाओं या लड़कियों के बारे मे ही क्यों ? उनसे यही कहना है की वे अपने किशोर या युवा बच्चों के साथ इस फिल्म को देखने जरूर जाएं और फिर इस तरह के फिल्मों की वकालत करें | समझ मे आ जाएगा की यह फिल्मे महिला आजादी के नाम पर क्या परोस रही हैं |

       सवाल यह है कि यह किस तरह का महिला सशक्तीकरण है जो इन फिल्मों मे सिर्फ सेक्स के इर्द गिर्द ही घूम रहा है | या फिर इस बहाने सेक्स परोस कर पैसा कमाने का प्रयास भर है ? अगर यही महिला आजादी का शंखनाद है तो अब वह समय ज्यादा दूर नही जब स्कूली लड़कियां भी अपने बस्तों मे कंडोम के पैकेट लेकर घूमती मिलेंगी | बेटियां बचानी   है तो इस सिनेमाई नंगई के विरोध मे भी मोमबत्तियां जलानी होंगी |

सोमवार, 4 जून 2018

महज मोमबत्ती जलाने से दूर नही होगा अंधेरा


गौर से देखें तो महिला संगठन अपनी नेतागिरी और मध्यमवर्गीय समाज मोमबत्तियां जला कर रोष व शोक व्यक्त कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं | राजनीतिक दल अवसर का लाभ उठा एक दूसरे की टांग खींचने को ही अपनी भूमिका मानने लगा है | दर-असल देखा जाए तो दुष्कर्म की यह घटनाएं ,कम से कम शहरो व म्हानगरों मे हमारे स्वंय के विकसित किए गये सामाजिक परिवेश का भी प्रतिफ़ल हैं |

  हमने इधर कुछ वर्षों से अपनी नैतिक संस्कृति को किनारे कर पश्चिम से अधकचरी आधुनिकता का जो माड्ल आयात किया है उसके गर्भ मे ही यह सामाजिक दोष निहित थे | याद कीजिए 70 और 80 के दशक मे ऐसी घटनाएं कभी सुनने मे नही आईं | बल्कि 90 का दशक भी ठीक ठाक गुजरा | लेकिन यहीं से हमारे समाज मे कम्प्यूटर क्रांति आई, इंटरनेट तक पहुंच हुई, मोबाइल क्रांति ने अपना डंका पीटा और सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम मे भी अश्लीलता के सारे रिकार्ड टूट गये | ‘ यू तथा सर्टिफ़िकेट का कोई मतलब नही रह गया |


यही नही, पैसे की चकाचौंध व उसका मह्त्व भी इसी कालखंड मे सर चढ कर बोलने लगा | एक तरफ़ इंटरनेट मे बच्चों से लेकर बूढों तक अश्लील साइटों का आनंद उठा रहे हैं, कोई रोक टोक नही | दूसरी तरफ़ हर एक के मोबाइल मे दिलकश नजारों का भंडार सुरक्षित है | सांसद से लेकर स्कूली बच्चे सभी मन बहला रहे हैं | दूरदर्शन के विज्ञापन किसी ब्लू फ़िल्म से कम नही | कंडोम के विज्ञापनों मे सिसकारियों को साफ़ सुन सकते हैं | अधखुले कपडे पहन अपनी मांसल देह का प्रर्दशन करना आधुनिकता मे शामिल है | शराब और दूसरे नशों मे भी कोई प्रतिबंध नही | यानी चारों तरफ़ से एक उत्तेजक परिवेश तैयार है | लेकिन अगर कहीं कोई बधंन है तो सेक्स पूर्ति का कोई साधन नही, सिवाय विवाह के |
ऐसे मे नैतिकता के बंधन ढीले पड्ना स्वाभाविक ही है | धर्म-अधर्म का विवेक कामेच्छा डस लेती है |

                  ऐसे माहौल मे बौराये लोग आसान शिकार की तलाश मे निकल पड्ते हैं | यह जानते हुए भी कि इस जुर्म की सजा क्या है | ठीक वैसे ही जैसे हर हत्या करने वाला जानता है | दर-असल इस समस्या को सिर्फ़ सख्त कानून बना देने से नही रोका जा सकता | इसके लिए उन तमाम चीजों पर गहन चिंतन की जरूरत है जो इसके कारण बनते हैं | बहुत संभव है जिसे हम आधुनिकता व सामाजिक खुलापन कहते हैं उस्को भारतीय परिवेश मे नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस हो | साथ मे कुछ चीजों को नियत्रित करने की भी

             अगर आज के समाज मे यह संभव नही तो फ़िर कामेच्छा को एक मानवीय जरूरत मान कर देह व्यापार को भी आधुनिक समाज की आधुनिकता की परिधि मे लाया जाये | सिर्फ़ इस बिन्दु पर ही नैतिकता व पुरातन मूल्यों के पाखंडी व्यवहार का प्र्दशर्न क्यों वरना यह अधकचरी आधुनिकता कई और बिमारियों को जन्म देगी |
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रविवार, 15 अप्रैल 2018

एक आंसू का सफरनामा (16 अप्रैल जन्मदिवस पर)


आज जब दुनिया से हंसी गायब हो रही है बरबस याद आते है चार्ली चैपलिन । दुनिया भर के बच्चे जिस चेहरे को आसानी से पहचान लेते है वह चार्ली चैपलिन का ही है। चैपलिन की फिल्म 'द किड' 1921 में बनी थी उसमे चैपलिन के साथ एक चार साल के बच्चे जैकी कूगन ने अदभुत अभिनय किया था । 'द किड के बाद चैपलिन बुढापे मे कूगन से मिल पाए । यह एक मार्मिक मुलाकात थी । 4 साल का बच्चा अब 57 साल के गंजे आदमी मे बदल चुका था। बूढे चैपलिन की आखो मे आंसू आ गए।

चार्ली की आत्मकथा 1964 में छपी थी। उस समय वह 75 के थे पांच सौ से भी अधिक पृष्ठों वाली इस किताब में चैपलिन ने यादों के सहारे अपने लंबे जीवन का पुनसर्जन किया था । कैसा था उनका बचपन और उनकी जिंदगी, यह सब लिखा है चैपलिन ने ।

"सच तो यह है कि गम और तनाव में डूबे, लोगों को हंसाने वाले मुझ मसखरे कलाकार की जिंदगी में घोर अंधेरा रहा है। सच तो यह है कि मेरी जिंदगी का सफर भीड़ भरे शहर लंदन से शुरू हो कर हालीवुड की रंगीन दुनिया में जाकर ही खत्म नहीं होता । इस सफर में बहुत से मोड़ हैं। जहां शोहरत और ग्लैमर का उजाला ही नहीं बल्कि घोर गरीबी और हालातों का गहरा अंधेरा है। ऐसा अंधेरा जिसे भरपूर उजाले के हाथ कभी छू तक नहीं सके। मेरी यादों में एक छोटा सा घर, उसके अंदर सिमटी दुनिया अब भी जिंदा है । पिता की मौत के बाद किस तरह बदल गई थी मेरी दुनिया और मैं किस तरह घर की सुरक्षित बाहों से छिटक कर मां के साथ खुले आसमान के नीचे आ गया, यह भूला भी कैसे जा सकता है। मैं एक तरह से अनाथ हो गया। पेट की आग ने मुझे कब थिएटर में ला खड़ा किया पता नहीं। रोटी के लिए लगाए गए ठहाकों और मसख़री में मेरी जिंदगी के दुख दर्द पता नहीं कहां दब गए। मैंने दुनिया को हंसाया और हंसते हुए देखा लेकिन मै कब रोया किसी को पता नहीं।"

बुढापे को चार्ली ने अपनी ही शर्तों पर स्वीकार किया । आज चैपलिन हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी फिल्में हमेशा साथ रहेगी। 25 दिसंबर 1977 को यह मसखरा दुनिया को हंसता छोड विदा हो गया।

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

वसंतोत्सवों का चरम है होली


साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यन्त रूपवान युवक के रूप में की गई है और ऋतुराज वसंत को उसका मित्र माना गया है ।कामदेव के पास पांच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है ।य़ह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, और नीलकमल । वह तोते में बैठ कर भ्रमण करते हैं । संस्कृत की कई प्राचीन पुस्तकों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख मिलता है ।
इन उल्लेखों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में वसंत उत्सवों का काल हुआ करता था । कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसंत का और वसंतोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है । ऐसे ही एक उत्सव का नाम था मदनोत्सव यानी प्रेम प्रर्दशन का उत्सव ।यह कई दिनों तक चलता था ।राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठ कर उल्लास का आनंद लेता था । इसमें कामदेव के वाणों से आहत सुंदरियां मादक नृत्य किया करती थीं । गुलाल व रंगों से पूरा माहैल रंगीन हो जाया करता था । सभी नागरिक आंगन में नाचते गाते और पिचकारियों से रंग फेकते (इसके लिए श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है } नगरवासियों के शरीर पर शोभायामान स्वर्ण आभुषण और सर पर धारण अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे । युवतियां भी इसमें शामिल हुआ करती थीं इस जल क्रीड़ा में वह सिहर उठतीं (श्रंगक जल प्रहार मुक्तसीत्कार मनोहरं ) महाकवि कालिदास के “कुमारसंभव” में भी कामदेव से संबधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है ।

     इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन कुमारसभंव में मिलता है ।  

     अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है । सुदंर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे । “रत्नावली” में भी यह उल्लेख है कि अंत;पुर की परिचारिकाएं हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं ।यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानो इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जायेगी ।

     “चारूदत्त” में भी एक उत्सव का उल्लेख मिलता है । इसमें कामदेव का एक भब्य जुलूस बाजों के साथ निकाला जाता था । यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसंतसेना की नायक चारूदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी ।

     बहरहाल यह गुजरे दौर की बातें हैं । कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसंत उत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इसका स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही बल्कि जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर एसिड फेकता है । प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण बन कर रह गया है । कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई ।

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

नाकाम मोहब्बत की एक दास्तां / मधुबाला (पुण्य तिथि 23 फरबरी )



“ हमे काश तुमसे मुहब्बत न होती, कहानी हमारी हकीकत न होती .........



शायद यह किसी को भी न पता था कि सिनेमा के परदे पर अनारकली बनी मधुबाला पर फिल्माया यह गीत उनकी असल जिंदगी का भी एक दर्दनाक गीत बन  जाएगा  और बेमिसाल हुस्न की मलिका की जिंदगी नाकाम मोहब्बत की एक दर्दनाक  दास्तां  | लेकिन ऐसा हुआ | आखिरकार  तन्हा जिंदगी को समेटे “  पूरब की वीनस “  कही जानी वाली अपार सौंदर्य की इस मालिका ने  23 फ्रबरी 1969 को इस दुनिया को अलविदा कहा था | लेकिन एक दौर गुजर जाने के बाद भी , मुझ जैसे करोड़ों सिने प्रेमियों की यादों मे वह आज भी जिंदा हैं |

       एक अजीब इत्तफाक ही तो है कि 14 फरबरी यानी वेलेंटाइन डे पर इस दुनिया मे आने वाली इस बेमिसाल अदाकारा को न सिर्फ ताउम्र प्यार के लिए तरसना पड़ा बल्कि वह नाकाम मोहब्बत के दंश ताउम्र झेलती रहीं |

       कहते हैं कमाल अमरोही की मोहब्बत मे चोट खाई मधुबाला ने दिलीप कुमार को जुनून की हद तक चाह और प्यार किया लेकिन एक मोड पर आकर यह दास्तान-ए-मोहब्बत भी दफन हो गई और इसी के साथ मधुबाला की तमाम हसरतें भी |

       यह बहुत कम लोग जानते हैं कि सिल्वर स्क्रीन की इस मालिका को जिसने हिंदी सिनेमा की आज तक की सबसे बेमिसाल फिल्म मुगल-ए-आजम मे अनारकली का कभी न भूल सकने वाला किरदार निभाया , जीते जी कोई पुरस्कार नही मिला |  भाग्य का सितम देखिये कि एक ऐसी अदाकारा  जिसने शौक से नही बल्कि अपनी गरीबी से निजात पाने और घर चलाने के लिए नौ वर्ष की उम्र मे सिनेमा की दुनिया मे कदम रखा , उसे जिंदगी के आखिरी कुछ साल अपनी बीमार काया के साथ बिस्तर पर गुजारने पड़े | दर-असल उनके दिल मे एक छेद था और वह उन्हें मौत के आगोश तक ले आया | मात्र 36 वर्ष की उम्र मे हुस्न की इस मलिका को  इस दुनिया से अलविदा कहना पड़ा  | 

       बेशक वह अब इस दुनिया मे नही हैं लेकिन आज भी मोहब्बत मे नाकाम प्रेमियों की उदासियों मे उनकी  दर्दभरी यह आवाज सुनाई देती है....... मोहब्बत की झूठी कहानी पे  रोये , बड़ी चोट खाई जवानी मे रोये | विनम्र श्र्ध्दांजलि |  

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

लड़की की आंखों मे लट्टू होता मीडिया


एक लड़की ने आंख क्या मारी पूरा देश मानो उसका दीवाना हो गया | अपने को जिम्मेदार चौथा खंभा कहने वाले भारतीय मीडिया को तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई हो | वह आंख मारने के तौर तरीकों, किस्मों और उसके विशेष प्रभावों पर चौपाल लगाने लगा | बड़े बड़े मुद्दे पीछे छूट गए | यहां तक की सीमा पर रोज-ब-रोज शहीद होते जवानों और उसके बीच पाकिस्तान की गीदड़ भभकी , यह सब कहीं भुला दिये गए | सबसे महत्वपूर्ण खबर बन गई प्रिया प्रकाश नाम की लड़की का आंख मारना |
       प्रिंट मीडिया भी कहीं पीछे नही दिखा | शायद ही कोई अखबार रहा हो जिसमे उसकी फोटो न छपी हो | यही नही, सोशल मीडिया ने तो वह धूम मचा दी की पूरा फेसबुक, टिवटर और वाटसएप प्रिया प्रकाश के ही रंग मे सराबोर हो गया |परिणामस्वरूप एक लड़की जिसे कोई ठीक से जानता तक नही था , कुछ ही घंटों मे सेलीब्रेटी बन गई | उसकी थर्ड ग्रेड दक्षिण भारतीय फिल्मों  के वितरण के लिए होड सी मचने लगी  | निर्माता उसके घर के चक्कर लगाने लगे | उसे स्कूल  मे पढ़ाने वाले टीचर तक उसके गुरू होने पर गर्व करते हुए इंटरव्यू देने लगे | देश भर मे उसकी हम  उम्र की लड़कियां उसके भाग्य से ईषर्या करने लगीं  |
       ऐसा पहली बार नही हुआ | कोलावरी डी गाने से लेकर बेवफा सोनम गुप्ता तक की यही कहानी है | लेकिन जब ऐसी बातों से रातों रात स्टार बनने के लिए देश भर मे लड़कियां ऊंटपटांग हरकते करने लगेंगी , तब यही प्रिंट , इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया गहरी चिता जताने लगेगा और उसे सांस्क्र्र्तिक प्रदूषण का नाम भी देगा | सारा दोष लड़कियों पर मढ़ते हुए यह  भूल जाएगा की आखिर ऐसे मामलों मे उसने किस ज़िम्मेदारी का परिचय दिया है  और कैसी भूमिका निभाई | सच कहा जाये तो सोशल मीडिया सहित प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया का यह चरित्र जाने- अनजाने बेहूदेपन को ही बढ़ावा दे रहा है | इसे महसूस किया जाना चाहिए |

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

सेक्स अपराधों मे पुरूष ही कटघरे मे क्यों ?

वाकई हम एक भेड़चाल समाज है | एक सुर मे चलने वाले लोग | जब पहला सुर टूटता है तब दूसरे को पकड़ लेते है और इसी तरह तीसरे सुर को | इस तरह ताले बजाने वाले इस सुर से उस सुर मे शिफ्ट हो जाते है |
       आजकल महिला सशक्तिकरण का शोर है | शोर ही नही जोश भी है और इस जोश मे कहीं होंश की भी कमी साफ दिखाई दे रही है | किसी महिला के साथ कहीं कुछ हुआ तो  बस दुनिया के सारे पुरूषों को कठघरे मे खड़ा कर दिया जाता है | फांसी से नीचे तो कोई बात ही नही होती | इसमे एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो दोहरा चरित्र रखते है | मन से महिलाओं के हितेषी बेशक न हो लेकिन वाह, वाह करने मे सबसे आगे |

       इधर कुछ समय से अपने स्वार्थों तक सीमित रहने वाले समाज ने अपने हित मे एक ऐसा माहौल बना दिया जिसमे दीगर बात करने वाले या अलग सोच रखने वाले के लिए कोई जगह बची ही नही | अगर किसी ने साहस करके कुछ कहने का प्रयास किया भी तो महिलावादियों की फौज ने उसे “ बैक टू पेवलियन “ के लिए मजबूर कर दिया | वैसे इसका एक दुष्परिणाम यह भी निकला कि दुष्कर्म जैसे मामलों मे जैसे जैसे दवा की गई मर्ज बढ़ता गया | फांसी की सजा के बाबजूद  कोई विशेष प्रभाव पड़ता नजर नही आया |  दर-असल कारणों को जानने के लिए सभी के विचारों को समझा जाना जरूरी था लेकिन महिला हितों के झंडाबरदार कुछ भी अपने विरूध्द सुनने को तैयार नही है | इसलिए तमाम नारों और सख्त कानूनों के बीच समस्या जस की तस है |
       लेकिन जब अति होने लगती है तो कुछ लोग सामने आकर सही और सच कहने का साहस जुटाते है | ऐसा ही एक प्रयास वकील ऋशी मल्होत्रा ने एक याचिका के माध्यम से किया है जिस पर उच्चतम न्यायालय 19 मार्च को सुनवाई करेगा | याचिका मे कहा गया है की आईपीसी की कुछ धाराओं मे सिर्फ पुरूषों को ही अपराधी माना गया है और महिला को पीड़िता | याचिकाकर्ता का कहना है की “ अपराध और कानून को लिंग के आधार पर नही बांटा जा सकता | क्योंकि महिला भी उन्हीं आधारों और कारणों से अपराध कर सकती है जिन कारणों से पुरूष करते है | ऐसे मे जो अपराध करे उसे कानून के मुताबिक दंड मिलना चाहिए |

       दरअसल दुष्कर्म के मामले मे यह माना जाता है की ऐसा सिर्फ पुरूष ही करते है महिलाएं नहीं | जबकी ऐसा महिलाए /लड़कियां भी करती है और कई बार तो सेक्स करने के लिए मजबूर तक  कर देती है| कम उम्र के लड़कों के साथ बहुधा ऐसा होता है | अपने सेक्स जीवन से असतुषट अधेड़ उम्र की महिलाओं दवारा बहला फुसला कर  कम उम्र के किशोरों का शोषण क्या बलात्कार नही ? ज्यादा उम्र की लड़कियों दवारा भी किशोर उम्र के लड़कों के शोषण के मामले समाज मे दिखाई देते है लेकिन उसे कम उम्र के लड़के के साथ दुष्कर्म  क्यों नही माना जाता ? मौजूदा कानून यहीं पर भेदभाव करता है | यही नही अपनी मर्जी से सेक्स संबध बनाने वाली महिला किसी के दवारा देखे जाने पर ज़ोर जबरदस्ती या शोषण का  आरोप पुरूष पर लगा कर अपने को सामाजिक बदनामी से बचा लेती है और कानून सिर्फ पुरूष को कठघरे मे खड़ा कर देता है | ऐसे मामलो की भी कमी नही | 

 
          यही नही, आज जो खुलेपन का परिवेश बन रहा है , उसमें तो इसकी संभावना और भी बढ़ जाती है |   यह अलग बात है की ऐसे मामले दर्ज नही होते लेकिन यह मानना की ऐसा होता ही नही सच से मुंह मोड़ना है | ऐसे मे कानून एकतरफा कैसे हो सकता है ?, महिला हमेशा पीड़िता और पुरूष अपराधी  | दर-असल कानून को “ जेनडर न्यूट्र्ल “ (  लिंग निरपेक्ष ) होना चाहिए लेकिन इन मामलों मे ऐसा है नही | सेक्स अपराधों मे यह कानून  महिला को पूरी तरह से निर्दोष मानता है |  अब समय आ गया है उच्चतम न्यायालय दुष्कर्म व सेक्स अपराधों के इस पहलू पर भी विचार करे और लिंग के आधार पर पक्षपातपूर्ण वाली आईपीसी की  धाराओं की समीक्षा करे |