भारतीय संसदीय इतिहास मे संभवत: यह पहला अवसर है जब विपक्ष ने बौखलाहट मे जनसमर्थन को नकारते हुए आत्मघाती कदम उठाने का दुस्साहस किया है । जन भावनाओं को अनदेखा कर कालेधन को लेकर विपक्ष ने जिस तरह की राजनीति की और नोटबंदी के खिलाफ हुंकार भरी उसने राजनीति की दिशा पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है । आखिर यह कैसा विरोध है जिसमे जन भावनाओं को ही पूरी तरह से नजर-अंदाज कर दिया गया हो और उसके राजनीतिक परिणामों की तनिक भी परवाह न की गई हो । जब कि किसी भी लोकतांत्रिक देश् मे जनभावनाएं ही राजनीति की धुरी का काम करती हैं । उसके विरूध्द जाकर राजनीति करने की तो कल्पना भी नही की जा सकती ।
अगर सत्ता पक्ष जनभावनाओं के मद्देनजर अपनी योजनाओं व नीतियों का निर्धारण करता है तो विपक्ष भी जनभावनाओं को नजर-अंदाज किये जाने के आरोप को लेकर ही जनता के बीच अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करने मे कहीं पीछे दिखना नही चाहता । यानी कि संसदीय राजनीति जन-भावनाओं के इर्द गिर्द ही घूमती नजर आती है । लेकिन इधर विपक्ष की राजनीति के सुर कुछ अलग हैं ।
इस नकारात्मक राजनीति की शुरूआत जे.एन.यू कन्हैया प्रकरण से मानी जा सकती है । इसके बाद तो मानो यह राजनीति ही विपक्ष का हथियार बन गई । देखा जाए तो भारतीय सेना दवारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर भी विपक्ष ने जिस नकारात्मक राजनीति का सहारा लिया, उसने देश के एक बडे वर्ग की भावनाओं को आहत करने का ही काम किया । यहां तक कि कुछ विपक्षी नेताओं के बोलों ने तो भारत को ही कटघरे मे खडे करने का प्र्यास किया । विरोध की राजनीति के सरूर मे राष्ट्रहित कब आहत हो गया, इन्हें इसका आभास तक नही । देशहित को नजर-अंदाज कर विरोध की इस राजनीति से कई सवाल भी उठे ।
गौरतलब है कि ऐसा भी नही कि ऐसे हालात पहली बार बने हों । लेकिन ऐसी राष्ट्र विरोधी नकारात्मक राजनीति न तो 1971 के युध्द के समय नजर आई और न ही करगिल युद्ध के समय । इन अवसरों पर देश हित को ही महत्व देते हुए दलगत भावना से ऊपर उठ कर विपक्ष ने सरकार के फैसलों पर अपनी सहमति की मुहर लगाई । अगर कहीं कुछ मतभेद भी थे तो उन्हें इस तरह सार्वजनिक नही किया गया कि वह राष्ट्रहित के विरूध्द लगे । लेकिन इधर विपक्ष की राजनीति मे यह देशहित की भावना नदारत है और अब तो जन भावनाओं की भी अनदेखी की जाने लगी है ।
देखा जाए तो सवाल विरोध या वैचारिक मतभेदों का नही है । बल्कि जिस तरह से विरोध को अभिव्यक्त किया जा रहा है, वह अवशय सोचने को मजबूर करता है । कालेधन को लेकर मोदी सरकार के फैसले पर जो नकारात्मकता संसद के अंदर व बाहर दिखाई दी व जिस तरह से जनभावनाओं को नजर-अंदाज किया गया, वह अवश्य एक गंभीर विश्लेषण की मांग करता है । क्या यह इस बात का संकेत है कि अब राजनीति मे राजनीतिक स्वार्थों का महत्व ज्यादा व जनभावनाओं का कम होता जा रहा है ?
अगर निकट भविष्य मे राजनीतिक स्वार्थ व जनभावनाओं का टकराव होता है, जैसा कि नोटबंदी के मुद्दे पर साफ तौर पर दिखाई दिया, तो क्या जनता की आवाज को भी हाशिये पर डाल कर राजनीति का खेल खेला जा सकता है ?
बहरहाल, कालेधन को लेकर नोटबंदी के मुद्दे पर जनता ने भी अपना फैसला सुना दिया है । राजनीतिक स्वार्थों के चलते विपक्ष की विरोध राजनीति को नकार कर यह संदेश भी दे दिया है कि जनता अब बहुत कुछ समझने लगी है । यह जरूरी नही कि वह उनके हर क्दम पर उनके साथ रहे । यह एक स्वस्थ संकेत है जिसका भविष्य की राजनीति मे दूरगामी प्रभाव पडेगा । लेकिन जिस तरह से जनता की भावनाओं को नकारते हुए विपक्ष ने अपनी राजनीति का खेल खेलने मे भी परहेज नही किया, इसने भी सोचने को मजबूर किया है कि आखिर जनसमर्थन की राजनीति की बजाय जनविरोध की यह कैसी राजनीति है जिसे अपनी ही कब्र खोदने का जोखिम भी स्वीकार है ।