पांच राज्यों के चुनावी शोर के बीच फ़िर उठ
रहा है राजनीति मे अपराधियों के बढ्ते वर्चस्व का मुद्दा | प्रत्येक राजनीतिक दल
अपने को पाक साफ़ होने और दूसरों पर उंगुली उठाने का काम बडी ही खूबसूरती से कर रहा
है | लेकिन यह भी तय है कि चुनाव खत्म होते ही यह मुद्दा फ़िर कहीं खो जायेगा |
लोकतंत्र की गाडी अपने राह चलती रहेगी |
लेकिन सच यह भी है कि शायद ही कभी हमने गंभीरता से अपने लोकतंत्र का
पोस्ट्मार्ट्म किया हो । अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवनकाल मे हमारा यह लोकतंत्र
न जाने कितनी व्याधियों से ग्रस्त हो चला है लेकिन हम हैं कि इसकी काया को आज भी
निरोगी मान इतराते फिर रहे हैं । कभी कधार किसी गंभीर व्याधि पर चर्चा होती भी है
लेकिन जल्द ही वह चर्चा व बहस गुल गपाडे मे तब्दील हो पृष्ठभूमि मे चली जाती है ।
अब जब फ़िर देश के पांच
राज्यों मे चुनावी उत्सव जारी है, जरूरी है कि हम थोडा शांत भाव से सोचने की जहमत
उठायें कि आखिर चुनावी उत्सव का चेहरा साल
दर साल बदरंग क्यों होता जा रहा है । आम जन की उम्मीदें नाउम्मीदों मे क्यों
तब्दील हो रही हैं । आखिर क्यों हमारी ससंद व विधानसभाएं अपराधी तत्वों की शरणगाह
बनती जा रही हैं । दरअसल हमने ईमानदारी
से स्वंय के गिरेबां में झांकने का प्रयास कभी नही किया । कहीं ऐसा तो नही कि
जाने- अनजाने इसमे हमारी भी भागीदारी रही हो ।
अकादमिक बहस व आंकडों को
दरकिनार करते हुए अगर इस पहलू पर गंभीरता से सोचें तो कहीं न कहीं हम भी इसके लिए
जिम्मेदार हैं । दरअसल कई बार हम अपने स्वार्थ में व्यापक सामाजिक हितों की अनदेखी
कर देते हैं । हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो जाती है कि हमे सिर्फ अपने जिले, शहर या मुहल्ले का ही हित दिखाई देता है और राबिनहुड जैसे दिखने
वाले माफियों, गुंडों व बदमाशों को इसका लाभ
मिलता है । अगर कोई अपराधी तत्व हमारे मुहल्ले की सड्कों व नालियों आदि का काम
करवा लेता है और हमारे मुहल्ले का निवासी होने या किसी अन्य प्रकार के जुडाव से
हमारे काम करवा लेता है तो हम उसके पक्ष मे आसानी से खडे हो जाते हैं । यहां हम
अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज के हित मे इसे ससंद या विधानसभा के लिए चुनना इस
लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक होगा । ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेगें जहां समाज
की नजर मे एक अपराधी,
मोहल्ले या समुदाय विशेष का "भैय्या " बन चुनाव मे जीत हासिल कर
लेता है । दरअसल अपने तक सीमित हमारी सोच ऐसे लोगों का काम आसान करती है ।
यहां यह गौरतलब है कि कुछ
समाचार पत्र अपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों का कच्चा चिट्ठा प्रकाशित करते हैं और अब तो चुनाव आयोग ने
भी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का पूरा ब्योरा
देने की बाध्यता को लागू कर दिया है इस
उम्मीद में कि मतदाता इनके असली चेहरे से परिचित होने पर इन्हें अपना मत नही देग़ा
। लेकिन इन प्रयासों का कोई खास परिणाम नजर नही आता । कई अपराधी तत्व चुनाव जीत कर
विधानसभा व लोकसभा तक पहुंच ही जाते हैं ।
अपने हितों तक सीमित रहने
वाली हमारी इस सोच का इधर कुछ वर्षों मे व्यापक प्रसार हुआ है । महाराष्ट्र मे
दिया जाने वाला नारा ' बजाओ
पुंगी, भगाओ लुगीं ' को हमारी इस मानसिकता के फलस्वरूप ही व्यापक जंनसमर्थन मिला
था । जहां महाराष्ट्र के लोगों ने सिर्फ अपने हित मे इसे उचित समझा । लेकिन इसके
दूरगामी प्रभाव क्या होंगे इस पर सोचने की जरूरत नही समझी गई । अब यदा कदा ऐसे ही
स्वर दूसरे प्रदेशों से भी सुनाई देते हैं । य्ह तभी संभव है जब हम अपने हित के
लिए समाज के व्यापक हित को नजरअंदाज कर देते हैं ।
राजनीतिक अपराधीकरण मे हमारी
यही सोच कुछ गलत लोगों को ससंद व विधानसभाओं मे पहुंचाने मे सहायक रही है । यही
कारण कि ऐसे कई नाम भारतीय राजनीति के क्षितिज पर हमेशा रहे हैं । जिन्हें समाज का
एक बडा वर्ग तो अपराधी , माफिया
या बदमाश मानता है लेकिन अपने क्षेत्र से वह असानी से जीत हासिल कर सभी को मुंह
चिढाते हैं ।
यहां गौरतलब यह भी है कि कुछ
लोग मानते हैं कि चुनाव मे यह फर्जी मतदान के सहारे जीत हासिल करते हैं । लेकिन
गहराई से देखें तो यह सच नही है । सांसद या विधायक के भाग्य का फैसला लाखों वोटों
की गिनती के बाद ही संभव हो पाता है। दो-एक बूथों में फर्जी मतदान करा लेने
या कब्जा कर लेने से दो या चार हजार मत ही
पक्ष मे हो सकते हैं( एक बूथ पर 1500 से ज्यादा वोटर नही होते ) अब सवाल उठता है
कि यह हजारों या लाखों वोट मिले कहां से ।
स्वाभाविक है यह मत दिए गये हैं ।
अब अगर हमे इन बाहुबलियों, माफियों, गुंडों
व बदमाशों को रोकना है तो अपने संकीर्ण हितों की बलि देनी होगी । व्यक्ति का चुनाव
समाज व देश के व्यापक हित मे सोच कर किया जाना चाहिए । अगर आपके लिए भैय्या बना
उम्मीदवार समाज के बहुसंख्यक लोगों के लिए एक अपराधी तत्व है तो उसे आपको भी
अपराधी ही मानना होगा । अन्यथा एक दिन यह लोकतंत्र
के चेहरे को पूरी तरह से बदरंग बना देगें
।
- एल एस बिष्ट
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