शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

क्यों गाती है बुलबुल मीठे गीत (एक रहस्य कथा )

                 
         क्यों गाती है बुलबुल मीठे गीत  (एक रहस्य कथा )

 
      आज से करोड़ों वर्ष पहले जब यह दुनिया बनी थी तब सभी पक्षी देखने में एक जैसे लगते थे । फर्क सिर्फ आकार में था । एक दिन भगवान ने सोचा चलो अपनी बनाई दुनिया देख लें । कैसी लगती है । जल्द ही उन्हें आभास हो गया कि पक्षी इतने सुदंर नही बन सके । वह इन्हे सुदंर देखना चाहते थे । भगवान ने अपनी इच्छा फरिश्ता जिबराइल से बताई । उसे यह निर्देश दिया कि एक दिन वह सभी पक्षियों को बुलावा भेजकर उनके सामने उपस्थित करें जिससे उन्हें सुदंर बनाया जा सके ।
            फरिश्ते ने एक दिन सभी पक्षियों को इकट्ठा होने को कह दिया । दुनिया भर के पक्षी आकर इकट्ठे हो गये । उसने सभी की हाजिरी ली लेकिन एक मैना को शरारत सूझी । उसने फरिश्ते का हाजिरी वाला कागज उड़ा लिया । जब किसी तरह वह कागज मिला तो वह जगह जगह से फटा और मिट्टी से सना हुआ था । खैर फरिश्ते ने मान लिया कि दुनिया के सभी पक्षी हाजिर हैं (वास्तव मे ऐसा था नहीं ) भगवान को खबर पहुंचा दी गई कि वे आने की कृपा करें ।
      यह जान कर कि सभी पक्षी उपस्थित हैं भगवान कई प्रकार की चोचों से भरा एक बड़ा थैला और रंगों का डिब्बा लेकर आ गये । भगवान ने सभी पक्षियों को बताया कि सभी को अलग अलग रंग दिए जाएंगे और हर पक्षी को अपनी पसंद का रंग और चोंच चुनने की छूट है । यह सुन सभी पक्षी खुशी से झूम उठे ।
      सबसे पहले लालशुक तोता आगे आया । उसने मनचाहे रंग लगवाये और एक बड़ी सी मजबूत मुड़ी हुई चोंच चुन ली । ताकि अखरोट वगैरह  तोड़ सके । इतराता हुआ वह दक्षिण अमरीका की ओर उड़ गया । श्यामा पक्षी की बारी आयी लेकिन उसने लालशुक तोते वाली गलती नहीं की जब वह कई तरह के रंग अपने ऊपर लगवा रहा था तब भगवान सहित सभी पक्षी मंद मंद मुस्करा रहे थे । अत: उसने अपने लिए एकमात्र रंग चुना अत्यंत चमकीला काला रंग । रंगे जाने के बाद उसने अपने लिए एक पीली चोंच चुन ली और फुदक कर एक पेड़ की टहनी पर जा बैठी ।
      इसी प्रकार एक के बाद एक पक्षी आते रहे ओर अपनी पसंद का रंग करा चहकते हुए अपने देश की तरफ उड़ जाते । मोर को खुश करने के लिए भगवान को बहुत मेहनत करनी पड़ी लेकिन अंत में वह एक खूबसूरत पक्षी के रूप में दिखने लगा । लेकिन बेचारा मोर भगवान को खुश करने के लिए कोई गीत भी न गा सका । अलबत्ता वह झूम झूम कर नाचने लगा ।
      अब बहुत से पक्षी जा चुके थे । भगवान को थैले में एक बड़ी सी चोंच नजर आई । उन्होने सोचा शायद यह गलती से बन गई । वह उसे फेंकने वाले थे कि चील आ गई । उसने वही चोंच पसंद कर ली और भगवान ने उसे वह दे दी । जब भगवान रंग लगाते लगाते थक गये तब उन्होने बाकी बचे पक्षियों से कहा कि वह अपने आप अपनी पसंद का रंग लगा लें । यह कहने भर की देर थी कि सभी टूट पड़े । मैना, टिटहरी, नीलकंठ सभी ने जी भर कर रंग लगाया ।
      अब न कोई चोंच बची थी और न रंग। भगवान और फरिश्ता दोनो पर्वत से उतरने लगे। फरिश्ते ने भगवान से कहा देखिये दुनिया कितनी खूखसूरत हो गई है । यह देखिए काली कोयल कैसे गा रही है । तोता कितना सुदंर लग रहा है । अभी वह जंगल से जा ही रहे थे फड़फड़ाहट की आवाज सुनी । इतने में एक चिड़िया झाड़ियों से बाहर निकली। वह बुलबुल थी । “प्रभु मुझसे अभी अभी उसने कहा कि आपने सभी को नया रंग देने के लिए बुलवाया था । मैं अंदर झाड़ियों में रहती हूं, किसी ने मुझे खबर नही दी । मुझे अभी पता चला तो भागी भागी आ रही हूं । कहीं मुझे ज्यादा देर तो नही हो गई ।“
      भगवान बोले यहां मेरी उंगली पर तो बैठो । अब जरा चोंच खोलो । भगवान ने सुनहरे रंग वाला ब्रुश उठाया और धीमे से बुलबुल की जुबान से छुआ दिया । रंग का स्वाद इतना तीखा था कि वह तुरंत उड़ कर झाड़ियों में चली गई । फिर अचानक ही उसने गाना शुरू कर दिया । दुनिया में किसी ने इतना सुरीला कंठ पहले नहीं सुना था । इंसान, पशु-पक्षी सभी मंत्रमुग्ध हो गए । भगवान और फरिश्ता भी काफी देर तक बुलबुल का मीठा गाना सुनते रहे और फिर चल पड़े । काफी दूर पहुंच जाने पर भी भगवान के कानों में उसके मधुर गीत की आवाज सुनाई दे रही थी । तब से आज तक बुलबुल अपने मीठे बोलो से सभी का मन मोहती रहती है। (यह कथा रिचर्ड एडम्स की पुस्तक ‘द आइरन वुल्फ ऐंड अदर स्टोरीज ‘ पर आधारित है )
संपर्क :
एल.एस. बिष्ट,
11/508, इंदिरा नगर
लखनऊ- 226016

मो. 9450911026

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

चीनी गौरैया ( जापानी हास्य कथा )

              चीनी गौरैया        ( जापानी हास्य कथा )




     एक बार एक व्यापारी को छ: चीनी गौरैया मिल गई । “ राजा के लिए यह बहुत बढ़िया सौगात होगी “  उसने सोचा । वह जानता था कि राजा बहुत अंधविशवासी है और हमेशा शगुन अपशगुन की चिंता मे रहता है । हो सकता है छ: चिड़िया देना वह अशुभ समझे । उसने एक जापानी गौरैया भी उसमें मिला दी ताकी उनकी संख्या सात हो जाए और सात की संख्या शुभ है ।


     राजा इतनी असाधारण सौगात से बहुत प्रसन्न हुआ । उसने चिड़ियों की बहुत प्रशंसा की और हर एक को ध्यान से देखने लगा । “ बड़ी अजीब बात है ।“ राजा ने कहा “ इनमें एक जापानी लगती है ।“ व्यापारी को समझ में नहीं आया कि क्या कहे । वह डर गया और सिर झुका लिया लेकिन जापानी गौरैया अपनी चोंच खोल कर बोल पड़ी “ महाराज, मैं दुभाषिया हूं ।“

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

धरती पर संकट में है गिध्दों की दुनिया

                                                 धरती पर संकट में है गिध्दों की दुनिया

अभी हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में गिध्दों की संख्या बडी तेजी से कम हो रही है । इसे लुप्त होने की कगार पर मान लिया गया है । हमारी दुनिया के लिये यह एक बुरी खबर है । दरअसल गिध्द हमारा एक अच्छा सेवक रहा है । धरती की गंदगी को साफ कर इसे सुंदर बनाने का काम यह करते रहे हैं । लेकिन यह बेचारा जीव हमेशा लोगों की घृणा  का पात्र ही बना रहा ।
वैसे तो रामायण में उल्लेख है कि जटायू नामक गिध्द ने ही उस समय रावण का रास्ता रोक लिया था जब वह सीता जी को बलपूर्वक लंका ले जा रहा था । जटायू और रावण के बीच युध्द भी हुआ और वह घायल हो जमीन पर गिर पडा । बाद में जब राम सीता जी की खोज में निकले तब उसने ही उन्हें सीता जी के बारे में बताया था ।
दुनिया के दूसरे देशों में भी गिध्दों को लेकर कई कथाएं हैं । कहीं कहीं तो इनकी पूजा भी की जाती है । सिंदबाद की यात्रा कथाओं में भी इनका उल्लेख है ।
गिध्द अपनी कुछ विशेषताओं के कारण जाने जाते हैं । इनकी नजर बहुत तेज होती है और यह बहुत ऊचाई से भी धरती पर चीज को देख लेते हैं । इनमें एक गुण यह भी है कि यह काफी ऊंचाई पर भी बिना पंख हिलाए उड सकता है और बडी तेज गति से सीधे नीचे आ सकता है ।इन्हें श्मशानों, मुर्दाघरों और कुछ ऐसे ही स्थानों में आसानी से देखा जा सकता है । जब किसी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा से जीव मर जाते हैं तब इन्हें आकाश में मंडराते देखा जा सकता है । यह कडाके की ठंड और बारिस को ज्यादा सहन नही कर पाते लेकिन गर्मी इन्हे बहुत पंसद है ।
ज्यादा ठंड होने पर यह चुपचाप अपने घोंसलों में दुबक जाते हैं । यह ऊंचे पेडों की टहनयों या फिर पुरानी इमारतों के खंडहरों में ही मिलते हैं । मादा गिध्द अपने अंडे यहीं देती हैं और जब तक बच्चे बाहर नही आ जाते गिध्द ही मादा के लिये भोजन की व्यवस्था करता है ।
गिध्द एक ऐसा पंछी है जो अपने वजन से भी ज्यादा मांस खा जाता है । वह भी सडा मांस     चूकि इसके सूंघने की क्षमता नहीं के बराबर होती है इसलिए मांस सडा हो या ताजा इससे कोई फर्क नही पड्ता । यह मांस का इतना शौकिन है कि इसे किसी मरे जानवर के पास कई कई दिन तक देखा जा सकता है । भोजन के मामले मे यह न सिर्फ पेटू होता है अपितु जल्दबाज भी होता है । लेकिन एक अच्छी आदत भी है यह समूह में बिना किसी गिले शिकवे के भोजन कर लेता है।यह इतनी तेजी से खाता है कि बडे से बडे जानवर को भी 40-50 गिध्द पांच मिनट में साफ कर जाते हैं । लेकिन कभी खराब समय आने पर एक माह तक भूखा भी रह सकता है।
जब यह भोजन कर रहा होता है तब खुशी मे अपनी कर्कश आवाज में चिल्लाता भी है। लेकिन कुछ मामलों में यह अपने समाज के नियमों का पालन हमेशा करता है। यदि कोई समूह खा रहा हो तो दूसरा समूह चुपचाप इंतजार करता है। और फिर जो भी बचा खा लेता है। इनके समाज में एक नियम य्ह भी है कि भोजन की शुरुआत सबसे पहले वह गिध्द करता है जिसने उस भोजन की तलाश की हो। इस नियम का लाभ उसे यह मिलता है कि जीव के सबसे स्वादिष्ट हिस्से का मांस का स्वाद आराम से मिल जाता है। यह अनुशासन दूसरे जीवों में कम ही दिखाई देता है।
इन्हे कभी कभी बाहरी हमलों का भी सामना करना पड जाता है। इन्हें मांस खाते देख लोमडी, भेडिया व कुत्ते आदि भी आ ट्पकते हैं और कौशिश करते हैं कि थोडा बहुत मिल जाए। लेकिन उनकी यह इच्छा आसानी से पूरी नही होती। इन्हें आता देख गिध्द इनमें झपट पडते हैं और इन्हें भगाने के लिए अपनी चोंच का इस्तेमाल करते हैं तथा अपने फंख फड्फडा कर इन्हें दूर भगाने की कोशिश करते हैं।
दुनिया में इंनकी कई प्र्जातियां हैं लेकिन भारत में आमतौर पर चमर गिध्द, राजगिध और गोबर गिध्द ही पाये जाते हैं। चमरगिध हमारे यहां सबसे अधिक पाये जाते हैं। यह समूह में रहते हैं। वैसे राजगिध दूसरों की तुलना में ज्यादा सुदंर माने जाते हैं। इनकी गर्दन का रगं लाल होता है। तेज उडान भरने में कोई इनकी बराबरी नही कर सकता। यह जोडे में रहते हैं। द. अमरीका, पेरु व चिली आदि देशों में बडे आकार के गिध्द पाये जाते हैं। इनके सर पर एक कलगी भी होती है। लेकिन यह खतरनाक भी होते हैं। छोटे बच्चों को ले उड्ते हैं। दुनिया में ऐसे भी गिद्ध हैं जो मांस नही खाते हैं।
कुल मिला कर गिद्ध चाहे कितना ही बदसूरत क्यों न हों हमारी दुनिया को गंदगी का ढेर बनने से बचाता है। अगर यह न होता तो हमारी दुनिया इतनी सुंदर न दिखती। 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सपने में सच (मेरी यह लघुकथा दै.जागरण 14 जुलाई, 1985 को प्रकाशित हुई थी )

     सपने में सच  (मेरी यह लघुकथा दै.जागरण 14 जुलाई, 1985 को प्रकाशित हुई थी )





      वह सुबह बिस्तर से उठी । उसका चेहरा आज उदास नहीं था । आज क्यों इतना खुश है रेनू , मां ने पूछा । “ मैने आज एक सपना देखा मां ।“ क्या देखा तूने , मां ने पूछा । कोई बहुत सुन्दर राजकुमार जैसा ....सफेद घोड़े में बैठ कर ...”। ऐसा कुछ तो मैने भी देखा , मां ने कहा । “ तुमने क्या देखा मां ¿ उसने पूछा । “ बिल्कुल ऐसा ही लेकिन पता नहीं क्यों शादी के बीच मे ही झगड़ा होने लगा । तुम्हारे बापू जोर जोर से कुछ कहने लगे और फिर नींद खुल गई ।“बापू आपने भी कुछ देखा । उसने चहकते हुए पूछा । हां बेटे । “ मैने लड़के वालों से झगड़ा होने के बाद भी देखा , बापू ने कहा । “ तब तो ये सपना जरूर सच होगा न “ उसने मासूमियत से कहा । “ नही नही बेटे ऐसा नही कहते।“ कहते हुए बापू का चेहरा उदास हो गया ।

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

जीवन में बहने वाला संगीत है बसंत – वसंतोत्सवों से मदनोत्सव तक

साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यन्त रूपवान युवक के रूप में की गई है और ऋतुराज वसंत को उसका मित्र माना गया है ।
कामदेव के पास पांच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है ।य़ह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, और नीलकमल । वह तोते में बैठ कर भ्रमण करते हैं । संस्कृत की कई प्राचीन पुस्तकों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख मिलता है । इन उल्लेखों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में वसंत उत्सवों का काल हुआ करता था । कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसंत का और वसंतोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है । ऐसे ही एक उत्सव का नाम था मदनोत्सव यानी प्रेम प्रर्दशन का उत्सव ।यह कई दिनों तक चलता था ।राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठ कर उल्लास का आनंद लेता था । इसमें कामदेव के वाणों से आहत सुंदरियां मादक नृत्य किया करती थीं । गुलाल व रंगों से पूरा माहैल रंगीन हो जाया करता था । सभी नागरिक आंगन में नाचते गाते और पिचकारियों से रंग फेकते (इसके लिए श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है } नगरवासियों के शरीर पर शोभायामान स्वर्ण आभुषण और सर पर धारण अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे । युवतियां भी इसमें शामिल हुआ करती थीं इस जल क्रीड़ा में वह सिहर उठतीं (श्रंगक जल प्रहार मुक्तसीत्कार मनोहरं ) महाकवि कालिदास के “कुमारसंभव” में भी कामदेव से संबधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है ।
     इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन कुमारसभंव में मिलता है ।  
     अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है । सुदंर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे । “रत्नावली” में भी यह उल्लेख है कि अंत;पुर की परिचारिकाएं हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं ।यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानो इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जायेगी ।
     “चारूदत्त” में भी एक उत्सव का उल्लेख मिलता है । इसमें कामदेव का एक भब्य जुलूस बाजों के साथ निकाला जाता था । यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसंतसेना की नायक चारूदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी ।

     बहरहाल यह गुजरे दौर की बातें हैं । कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसंत उत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इसका स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही बल्कि जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर एसिड फेकता है । प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण बन कर रह गया है । कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई ।


 

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

अब कहीं खो गई है बसंत की वह मादकता

बंसत उत्तरायण सूर्य का ऋतुराज है । प्रथम उत्सव है उसका । आखिर क्यों न हो जब से सूर्य दक्षिणायन होता है उसी समय से ऋतुराज बंसत उसके उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करता है । इस बीच वह नयी कोपलों में फूटने , नव पुष्पों में खिलने और झरनों में बहने के लिए बुनता और रचता है एक सुंदर संसार । बंसत के आगमन पर दिशाएं रंगों से भर जाती हैं । धरती बासंती चूनर पहन कर इतरा उठती हैं । आकाश झूमने लगता है । लाल लाल टेसू दहक उठते हैं । वन उपवन महकने लगते हैं । सरसों के फूलों से खेत बासंती रंग में लहलहाने लगते हैं । पक्षी चहकने लगते हैं । एक उत्सव का माहोल बन जाता है ।   
     प्रकर्ति में व्यापत बसंत के मादक इंद्रधनुषी रंगों से भारतीय काव्य भी अछूता नही है । कालिदास से लेकर नयी पीढ़ी के कवियों ने अपने अपने ढंग से बसंत के सतरंगी रंगों को शब्दो में ढाला है । रीतिकालीन काव्य तो मानो  बसंत की मादकता से ही भरा है । देव और पदमाकर ने बसंत का अत्यंत ह्रदयग्राही वर्णन किया है । हिंदी कवियों की बात तो अलग मुसलमान कवियों ने भी ढेरों स्याही ऋतुराज की मोहकता पर उडेली है ।
          शहरी चकाचौंध के बीच गगंनचुंबी इमारतों में भागती दौड्ती जिदगी में लगता है कि शायद भूल गया हू मैं उस बसंत को जो मेरे गांवों में और ' परदेस् ' बने शहरों में कभी रचा बसा था । पेडों के झुरमुट , पनघट जाती बालाएंगांव के कोने मे खडे बूढे बरगद के नीचे बतियाते लोग , खेलते नंग धड्ग बच्चे, । सब कुछ कहीं खो गया है । कच्चे मकानों का वह गांव भी बदल गया है । युवक गांव छोड ' परदेस ' में रम गये हैं । किसी को कभी कधार याद आ जाती है, लेकिन अब ये गांव के रमेसर , भोलू या ननकऊ नहीं रहे । ' बाबू जी ' बन कर लौटते हैं यहां और दुनियादारी की तिकड्मों के बीच खुब छ्नती है दारु । गांवों की मासूम संस्कर्ति , खेतों खलियानों तथा वहां के लोगों के मन में अब नहीं दिखता वह बसंत ।
     शहरों को भी ड्स लिया है आपसी ईष्या देष व स्वार्थ ने । पैसे कमाने की होड और सुख सुविधाओं की दौड में व्यस्त शहरी समाज को तो सिर्फ दुरदर्श्न के पर्दे और पत्र पत्रिकाओं के रंगीन पन्नों से ही पता चलता है कि बसंत दस्तक दे रहा है ।
     लेकिन प्रकृति का चक्र घूमता है वह नही थका । आज भी वह आता है हमारे बंद मानस दवार पर दस्तक देने लेकिन सौंदर्य का यह विनम्र निवेदन भी हमें कहीं से कचोट नही पाता ।हमारे विचारों और भावनाओं का उत्तरायण कब होगा पता नहीं ।