शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

कुछ दर्द हैं वादी के वाशिदों के भी

इंतजार की भी एक सीमा होती है । अनंतकाल तक कोई किसी के लिए इंतजार नही करता और न ही किसी चीज के लिए । लेकिन लगता है वादी के वाशिंदों के लिए अपने घर की वापसी एक सपना बन कर रह गई है ।

साल-दर-साल नाउम्मीदी के बादल गहराते जा रहे हैं । भारतीय राजनीति का चरित्र देखिए तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण व जातीय मकडजाल के मोह से ऊपर उठ कर सोचने की कोई उम्मीद दिखाई नही देती ।कभी किसी  अखलाक तक  तो कभी किसी  रोहित वेमुला तक ही सीमित रह जाती है सारी राजनीतिक चिंताएं और सरोकार ।  बडी बडी घोषणाओं और वादों के सब्जबाग हमेशा हरे रहें इसलिए तल्ख सच्चाईयों से मुंह फेरने की बेशर्म कोशिशें जारी हैं । क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है ।

थोडा पीछे देखें  तो  घाटी मे कभी कश्मीरी पंडितों का भी  समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ ।  उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।

इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार  जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।

शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब  सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं

दर्द की दरिया बने वादी की जिंदगी को देख बरबस याद आते हैं  कवि हरि ओम पंवार -  मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ........    

कश्मीर है जहां देश की धडकन रोती है
संविधान की जहां तीन सौ सत्तर अडचन होती है
कश्मीर है जहां दरिंदों की मनमानी चलती है
घर घर मे ए.के. छ्प्पन की राम कहानी चलती है
कश्मीर है जहां हमारा राष्ट्र्गान शर्मिंदा है
भारत मां को गाली देकर भी खलनायक जिंदा है ।

गूंगा बहरापन ओढे सिंहासन है
लूले लंगडे संकल्पों का शासन है
फूलों का आंगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मैं इस कोढी कायरता की लाश उठाने निकला हूं
मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ।

लेकिन इंसानों की मौतों और जलते आशियानों पर राजनीति की रोटियां सेंकने वाले कभी बेघर जिंदगी के दर्द को भी समझ पायेंगे, पता नही । सरकारें बदलती हैं । कसमें-वादों की नई पोटलियां खुलती हैं । उम्मीदें जगने लगती हैं । लेकिन फिर सबकुछ कहां विलीन हो जाता है, पता नही ।

राष्ट्र्वाद व हिंदुत्व की धारा कब और क्यों घाटी तक पहुंचते पहुंचते दम तोडने लगती है, पता नही । लेकिन इतना जरूर है कि इन बेघर, बेबस लाचार लोगों की आने वाली पीढियों को इसका जवाब हमारे हुक्मरानों को देना ही होगा । यह भ्रम न रहे कि दर्द और पीडा की कोई आवाज  नही होती । सच तो यह है कि यह खामोशी के साथ   समय के सीने मे दफन हो जाती हैं और फिर समय आने पर सवाल उठाती हैं । यह सवाल राजनीति मे आने वाली नश्लों को शर्मिंदा न करें , इसके प्र्यास किये जाने चाहिए ।

सोमवार, 18 जनवरी 2016

भारतीय जनमानस की यह कैसी सोच है

रविवार को छ्त्रसाल स्टेडियम मे आड-ईवन नियम की सफलता पर केजरीवाल भाषण दे रहे थे तभी एक युवती भीड से निकल कर आई और मंच के नीचे से ही उन पर स्याही फेंक दी । ऐसा पहली बार नही हुआ । पहले भी स्याही फेंकने के मामले सामने आये हैं । यहां गौरतलब यह भी है राजनीति मे आम आदमी पार्टी के उदय के साथ ही ऐसी घटनाएं होती रही हैं । इसका दुखद पहलू यह भी है कि राजनीतिक विरोध की इस शैली का जो विरोध होना चाहिए वह कहीं दिखाई नही देता । बल्कि इसे एक मनोरंजक घटना के तौर मे ले लिया जाता है । इस घटना को गहराई से देखें तो कई और सवाल भी उठते हैं ।



क्या बेचारे केजरीवाल जी ने ही पिछ्ले जन्म मे इतने खराब कर्म किए थे कि इस जन्म मे भुगतना पड रहा है भारतीय राजनीति मे पहले भी और आज भी जाने कितने भ्र्ष्ट, चरित्रहीन, पाखंडी और अपराधी नेता रहे हैं ऐसे भी जिन्होने जानवर के चारे से लेकर कोयला तक खाने मे कोई परहेज नही किया चरित्र इतना महान कि अपने से आधी उम्र की लडकियों को गर्भवती बनाने मे भी पीछे नही रहे जब मामला सामने आया तो उनकी हत्या करवाने मे भी कोई संकोच नही

संसद के मंदिर मे मोबाइल मे पोर्न देखने मे भी कोई संस्कार आडे नही आए यही नही ह्त्या कराने मे भी एक से बढ कर रिकार्डधारी नेता भारतीय राजनीति के क्षितिज मे हमेशा चमकते रहे और आज भी चमक रहे हैं अपने ही चुनावी घोषणा पत्रों को सत्ता मिल जाने के बाद कूडे की टोकरी मे फेक , सत्ता सुख भोगने वाले कल भी थे और आज भी ।दूसरे राज्यों मे भी कोई दूध के धुले नही हैं और ही वहां रामराज है लेकिन इतनी गालियां, इतनी आलोचना तो शायद ही किसी को सुननी पडी हो जितनी केजरीवाल जी को

इतना ही नही, भारतीय राजनीति मे नेताओं की हनक, रूतबा और सुरक्षा इतनी कि मुख्यमंत्री तो बहुत दूर , पिद्दी भर के किसी मंत्री के आस-पास भी आम आदमी पहुंच नही पाता ।इनके सुरक्षाकर्मियों की मार खानी पडे इतना ही बहुत है कभी कधार तो इनके काफिले सडक चलते आम आदमी को कुचलते हुए आगे बढ जाते हैं ।और कोई कुछ नही कर पाता लेकिन यहां तो एक मुख्यमंत्री के मुंह मे स्याही फेंक कर चलते बन रहे हैं

यहां अजीब विरोधाभास दिखाई देता है कहीं तो इतना आक्रामक और असहनशील राजनीतिक विरोध और कही मानो सबकुछ स्वीकार कर लिया गया हो, कोई शिकायत नही कहीं ऐसा तो नही कि हम एक विशेष किस्म के नेताओं और राजनीतिक शैली के ही अभ्यस्त हो चले हैं । इससे अलग को हम स्वीकार नही कर पाते या फिर ' खराब ' लोगों से हम स्वंय सीधे रहते हैं और वहां कुछ कहने और करने का हमारा साहस नही होता लेकिन जिसमे थोडी बहुत अच्छाई हो उसके लिए स्वंय ' शेर ' बन जाते हैं । बहरहाल इस बिंदु पर आकर सोचने के लिए मजबूर हो जाना पडता है कि भारतीय जनमानस का यह कैसा चरित्र है और क्यों ?

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शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

चकाचौंध जिंदगी का अंधेरा

विकास् और मानवीय मूल्यों का एक विरोधाभास सबंध रहा है । शायद इसीलिए विकास की रोशनी जब चौडी काली सडकों, शानदार माल्स , मल्टीफ्लैक्स और तिलिस्मी चकाचौंध के रूप मे जहां भी पहुंची उसने वहां की उन सभी चीजों की मासूमियत को डस लिया जिनमें कभी जिंदगी हंसती बोलती थी ।
हम इस रंगीन चकाचौंध उजाले को देख खुश हुए, इतराये मानो हमे दुनिया-जहां की सारी खुशियां मिल गई हों । लेकिन इन खुशियों के आगोश मे सिमटे हुए अंधेरों को न महसूस कर सके ।

घर घर मिट्टी के चूल्हों की कहावत को अंगूठा दिखाते हुए जब हमने रसोई गैस की नीली लौ मे अपने सुखों की तलाश की तो भूल गये कि चूल्हे की आग मे पके अन्न का सोंधापन और  पुरानी रसोई का अपनापन हमसे रूठने लगा है । हमें सुविधाओं से लैस आधुनिक रसोई मिली तो पडोस से आग मांग कर चूल्हा जलाने की परंपरा ही खत्म हो गई । लेकिन वह खुशियां हमसे रूठ गईं जो कभी चूल्हों और अंगीठियों से जुडी थीं ।

पैसों की आमद ने जब अभावों की दुनिया को किनारा किया तो पडोस मे मुन्ना की मां के घर से चायपत्ती या चीनी मांगने का दस्तूर ही खत्म हो गया । महीने के आखिरी दिनों मे पडोसियों से उधारी की मजबूरियों से मुक्ति ने भी हमे बेइंतहा खुशियां दीं लेकिन यह खुशियां कब हमारे आपसी रिश्तों को डस गईं , पता ही नही चला ।
भारी होती जेबों ने जब पहली तारीख के इंतजार की बेबसी से हमे छुटकारा दिलाया तो हम फिर खुशी से झूम उठे । लेकिन क्या पता था कि हमारी हमेशा यह भरी जेबें पहली तारीख से जुडी खुशियों की बराबरी न कर सकेंगी ।
यही नही, शानदार शापिंग माल्स से रोज-ब-रोज खरीदे कपडों को पहन घमंड से इतराये तो जरूर लेकिन क्या पता था कि इन लकदक कपडों से जुडी खुशियां बहुत जल्द अपना दामन छुडा लेंगी और अभावों की दुनिया मे होली, दीवाली पर सिलाये गये कपडों से मिली खुशियां बरबस याद आयेंगी ।
भरी जेबों के बल पर रोज खायी जाने वाली महंगी मिठाईयों और चटपटे व्यजनों ने तमाम बिमारियों को तो न्योता दे डाला लेकिन कभी तीज त्योहारों के अवसर पर ही नसीब होने वाली लड्डू-बर्फी से मिली उन खुशियों से हमारा नाता न जोड सकीं ।
यही नही,  सरपट दौडती खूबसूरत कारों मे,   जिंदगी की  खुशियां तलाशने की कोशिश मे,  पगडंडियों पर साइकिल चलाने से मिली खुशियों को भी कहीं खो बैठे । कहां तक बयां करें दास्तानें उन मृगमरीचिकाओं की जिन्होने सिर्फ खुशियों के छ्लावे दिखाये । उन आंखों पर भी क्या तोहमत लगाएं जिन्होने फरेब को सच की तस्वीर माना । वक्त की बदली धारा ने मुट्ठी भर खुशियों की कीमत पर बेहिसाब खुशियों का सौदा किया ।......सलाम । 

रविवार, 10 जनवरी 2016

जरूरी है राष्ट्रवाद की भावना


कुछ समय बाद पठांनकोट आतंकी हमले की पूरी जांच रिपोर्ट सामने आएगी । लेकिन शुरूआती संकेतों से ऐसा लग रहा है कि इसमे कहीं न कहीं दाल मे कुछ काला जरूर है । वैसे भी देश मे हो रहे आतंकी हमले बिना स्थानीय सहायता के संभव नही हैं । गत कई हमलों मे यह बात सामने भी आई है । वैसे भी समय समय पर दुश्मनों को महत्वपूर्ण सूचनाएं भेजने के आरोप मे कई लोग पकडे भी जाते रहे हैं ।

पहले पहल किसी मुस्लिम नाम के ब्यक्ति की बात् सामने आते ही पूरे देश मे एक अलग सी प्रतिक्रिया होती रही है लेकिन इधर कुछ राष्ट्रद्रोही मामलों मे ऐसे नाम भी सामने आए हैं जिनसे यह बात साफ हो चली है कि राष्ट्रविरोधी कार्यों का धर्मविशेष के लोगों से ही संबध नही है बल्कि लालच किसी को भी राष्ट्रद्रोही बना सकता है । अभी हाल मे राजस्थान मे एक पटवारी को देश की गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान को भेजने के आरोप मे गिरफ्तार किया गया । वह सीमा से लगे भारतीय सैन्य ठिकानों की सामरिक जानकारी पाकिस्तान को भेजता रहा है । इसके पूर्व सेना के कुछ अधिकारियों को भी इसी आरोप मे गिरफ्तार किया गया था । सबसे चिंताजनक बात जो सामने आई है वह यह कि कई भूतपूर्व सैनिकों का इस्तेमाल आतंकी व पाक खुफिया एजेंसी करती रही हैं । चंद रूपयों के लिए यह भूतपूर्व सैनिक व अधिकारी अत्यंत महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध कराते रहे हैं । गौरतलब है कि पकडे गये लोगों मे हिंदु भी हैं और मुस्लिम भी । सवाल उठता है ऐसा क्यों हो रहा है ?

दर-असल आजादी के बाद हमारी राष्ट्रीय नीतियों मे राष्ट्रनिर्माण व चारित्रिक गुणों को विकसित करने की सोच का नितांत अभाव रहा है । बल्कि जाने अनजाने हमने एक आत्मकेन्द्रित समाज का ताना बाना जरूर बुन लिया जिसके तहत एकमात्र उद्देश्य अपने हित साधना रह गया है । अपने लिए, अपने परिवार के लिए पैसा कमाओ और् सुविधासम्पन्न जीवन जिओ । इस सोच मे देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावना सिरे से नदारत रही है ।

बात यहीं तक सीमित नही है । हमने समाज की उन्नति व विकास का जो ढांचा तैयार किया उसमें सिर्फ और सिर्फ पैसे का ही महत्व रहा है । संस्कारों और मूल्यों को हमने हाशिए पर डाल दिया । इधर तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यबस्था ने अनजाने ही कोढ पर खाज का काम किया । बाजारवादी और उपभोक्ता संस्कृति ने मानवीय मूल्यों और उच्च गुणों को पूरी तरह से अप्रासंगिक कर हर व्यक्ति को ऐनकेन पैसा कमाने की होड मे शामिल कर दिया ।

ऐसे मे लालच और महत्वाकाक्षांओं के बशीभूत हो पैसे के लिए देश व समाज को धोखा देने की प्रवत्ति को बढावा मिला है । आज स्थिति यह है कि अगर देश की अस्मिता व सम्मान को गिरवी रख कर भी पैसा मिलता है तो कहीं अपराध भाव जाग्रत नही होता । रोज--रोज देशद्रोहियों की बढती संख्या के पीछे यह एक बडा कारण है ।

अब अगर इस कुचक्र को तोडना है तो आने वाली पीढी को राष्ट्र्वाद की शिक्षा स्कूली स्तर से देनी होगी और उन्हें ऐसे उच्च संस्कारों से लैस करना होगा जिसमे सबसे ऊपर स्थान राष्ट्र का हो । यह संस्कार ही उन्हें भटकाव से दूर रख सकेंगे । अगर ऐसा कर सके तो एक समयावधि के बाद इसके सुखद परिणाम अवश्य दिखाई देंगे । जिस देश के नागरिकों के रक्त मे राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होता है, वहां आतंकवाद की जडें आसानी से नही जम सकतीं । आतंकवाद को आतंकित करने के लिए जरूरी है कि देश के नागरिकों मे देश प्रेम के इस मंत्र को जाग्रत किया जाए ।