मंगलवार, 29 मार्च 2016

उत्तराखंड के हित मे नही राजनीतिक अस्थिरता

उत्तराखंड की यह त्रासदी रही है कि आजादी के बाद लंबे समय तक यह राजनीतिक रूप से उत्तरप्रदेश का एक उपेक्षित हिस्सा रहा है । अपनी विशेष भौगोलिक संरचना के कारण विकास की दौड मे भी यह पर्वतीय अंचल प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों की तुलना मे कहीं पीछे छूटता चला गया । इसके आर्थिक पिछ्डेपन का एक बडा कारण इसका राजनीतिक रूप से कम महत्वपूर्ण होना भी रहा है । लेकिन नवम्बर 2000 मे इसे एक अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ और उम्मीद की गई कि यह छोटा उपेक्षित पर्वतीय अंचल विकास की राह पर आगे बढेगा । लेकिन विकास को  वह गति न मिल सकी जिसकी अपेक्षा की गई थी । इसका एक बडा कारण इस नव प्रदेश मे राजनीतिक स्थिरता का न होना भी रहा ।

उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो परंपरा से यह कांग्रेस का एक मजबूर गढ रहा है । इसका एक बडा कारण स्वतंत्रता आंदोलन मे इस क्षेत्र के लोगों की भूमिका का होना भी है । यही कारण है कि कांग्रेस के कर्मठ व प्रतिबध्द नेताओं की यहां लंबी परम्परा रही है । लंबे समय तक कांग्रेस को इस क्षेत्र से कोई विशेष राजनीतिक चुनौती का सामना भी  नही करना पडा । लेकिन राममंदिर आंदोलन के बाद से राजनीतिक स्थितियां तेजी से बदलीं तथा भाजपा ने इस क्षेत्र मे एक मजबूत उपस्थिति दर्ज करने मे सफलता प्राप्त की ।

चूंकि इस राज्य के गठन मे भाजपा की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है इसलिए भी यहां के लोगों का पार्टी के प्रति रूझान होना भी स्वाभाविक ही है । वैसे भी राज्य निर्माण के बाद भाजपा को ही इस राज्य की सत्ता प्राप्त हुई तथा नित्यानंद स्वामी इस प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने ।  लेकिन उसके बाद कांग्रेस बनाम भाजपा की राजनीतिक लडाई के चलते इस राज्य मे मुख्यमंत्री बदलते रहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक जारी है ।

तेरह जिलों वाले इस हिंदु बहुल प्रदेश मे धार्मिक व जातीय आधार पर बहुत ज्यादा उलझाव तो नही हैं लेकिन राजपूत व ब्राहमण बहुलता के कारण राजनीति के समीकरणों मे इन दो जातीयों का प्रभाव हमेशा से रहा है । अन्य जातियों का प्रभाव कुछ विशेष क्षेत्रों तक ही सीमित है । मुस्लिम आबादी भी महज 12% होने के कारण बहुत ज्यादा प्रभावी भूमिका मे कभी नही रही ।

यहां की राजनीति के संदर्भ मे गौरतलब यह भी है कि उत्तराखंड दो मंडलों से मिल कर बना है । पहला कुमाऊं मंडल जिसमे छ: जिले हैं और गढवाल मंडल इसमे सात जिले सम्मलित हैं । इनमे भाषाई भिन्नता के साथ कुछ अन्य सामाजिक -सांस्कृर्तिक विभिन्नताएं भी हैं । इन भिन्नताओं के कारण ही यहां की राजनीति मे गढवाल व कुमांऊ फेक्टर की अपनी भूमिका हमेशा रही है । तमाम छोटे बडे राजनीतिक फैसलों को इसी नजरिये से देखा जाता है । मौजूदा राजनीतिक घटनाक्र्म मे भी इस पहलू को नजर-अंदाज नही किया जा सकता । यहां गौरतलब है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत कुमांऊ मंडल से हैं तथा विजय बहुगुणा व हरकसिंह रावत गढवाल मंडल से ।

यहां यह समझना भी जरूरी है कि मौजूदा दौर मूल्यों की राजनीति का नही बल्कि अवसरवादिता, घात-प्रतिघात व हद दरजे की सत्ता लौलुपता का है । कुर्सी की ललक ने सारी मर्यादाओं को हाशिए पर डाल दिया है । दल विशेष से जुडाव उसकी नीतियों या राजनीतिक दर्शन के कारण नही बल्कि सत्ता सुख से है । कांग्रेस सरकार के पतन के पीछे भी यही कारण रहे हैं । स्वंय कांग्रेस के नौ विधायकों ने बगावत का झंडा लहरा कर सरकार के सामने अस्तित्व का संकट खडा किया और अंतत: उसकी दुखद परिणति राष्ट्रपति शासन के रूप हुई ।
लेकिन ऐसा सिर्फ उत्तराखंड के साथ ही नही है । अभी हाल मे अरूणाचल प्रदेश को भी यही त्रासदी झेलनी पडी है । झारखंड, गोवा व उत्तरपूर्व के राज्यों मे भी ऐसा होता रहा है । ऐसा इसलिए भी संभव हो जाता है कि कम सदस्यों वाली इन राज्य विधानसभाओं आठ दस लोगों के पाला बदलने से राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल जाते हैं और सरकार  आसानी  से अल्पमत मे आ जाती है । यही उत्तराखंड मे हुआ है ।

लेकिन  विकास की राह चलते इस प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए यह  राजनीतिक अस्थिरता कतई हितकारी नही है । अगर यहां विकास को गति देनी है तो राजनीतिक स्थायित्व का होना बेहद जरूरी है । दुखद तो यह है कि दल बदल कानून के बाबजूद ऐसा हो पा रहा है । छोटे राज्यों मे इस राजनीतिक दोष को देखते हुए जरूरी है कि कानूनों मे कुछ बदलाव किये जांये जिससे इस प्रकार की स्थितियां आसानी से उत्पन्न न हो सकें ।






 

शनिवार, 19 मार्च 2016

चुनावी राजनीति का बदलता चेहरा



हर सुबह के साथ भारतीय राजनीति का चेहरा कुछ और कुरूप होता जा रहा है । अब इस बात की संभावना कहीं नही दिखती कि यह मूल्यों की राजनीति के अपने पुराने दौर की तरफ वापसी कर सकेगी । दर-असल वोट के माध्यम से जनसमर्थन की अभिव्यक्ति के महत्व ने ही इसे इस स्थिति मे ला खडा किया है ।

क्या यह जानना अफसोसजनक नही होगा कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अब असम मे कन्हैया कुमार को अपना पोस्टर ब्वाय बनाने जा रही है । रोहित वेमुला की आत्महत्या की तस्वीरें भी कांग्रेस के लिए वोट मांगती दिखाई देंगी । कल अगर उमर खालिद का चेहरा भी साम्यवादी दलों के चुनावी पोस्टरों मे दिखाई दे तो कोई आश्चर्य नही ।

वोट राजनीति के इस घिनौने चेहरे को क्या अब भारतीय जनमानस की बदलती सोच का एक संकेत मान लिया जाए या फिर खलनायकों को राजनीति मे महिमा मंडित कर हीरो बनाने की एक घृणित राजनीतिक सोच । क्या अब भारतीय चुनावी राजनीति का दर्शन कुछ इस तरह से बदलने जा रहा है जिसमे गांधी, नेहरू और चरखे को अप्रासंगिक मान लेने की सोच् आकार लेती दिखाई दे रही है ।

बदलते सामाजिक परिवेश मे शायद यह माना जाने लगा है कि आज के युवाओं के लिए गांधी या नेहरू सिर्फ इतिहास मे दर्ज एक किताबी आयकन बन कर रह गये हैं जिनकी युवा सोच मे कोई प्रासंगिकता नही रही । युवाओं के लिए वह विद्रोही चरित्र आदर्श हैं जो पूरी मुखरता के साथ शासन -सत्ता के विरूध्द किसी भी  सीमा तक जा सकने का साहस रखते हैं । इसमे कोई फर्क नही पडता कि वह पारंपरिक मूल्यों व आदर्शों के विरूध्द है या फिर देश प्रेम की अवधारणा को ही खारिज कर रहे हैं । शायद यह मानते हुए ही गैर भाजपा राजनीतिक दल इन्हें अपनी चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा बनाने के प्रयोग से भी गुरेज नही कर रहे ।

यह जानना व समझना भी जरूरी है कि क्या केन्द्र मे गैर कांग्रेसी सत्ता का वर्चस्व दीगर राजनीतिक विचारधाराओं को पारंपरिक चुनावी सोच से हट कर कुछ अलग और नया करने को विवश कर रहा है । अगर ऐसा है तो  यह उनके अंदर पनपी राजनीतिक असुरक्षा व हाशिए पर चले जाने की चिंता को भी उजागर कर रहा है ।
बहुत संभव है कि गत आम चुनावों मे जिस तरह से मोदी एक चमत्कारिक छवि के रूप मे पूरे देश को अपने मोह पाश मे बांध एक अकल्पनीय चुनावी जीत के नायक बने उसने गैर भाजपा राजनीतिक दलों मे राजनीतिक असुरक्षा की भावना को पैदा करने मे अहम भूमिका निभाई हो ।

लेकिन कारण कुछ भी हों, अगर चुनावी राजनीति का यह चेहरा सामने आता है तो शायद भविष्य मे देश के अंदर सच्चे हीरो बनने की नही बल्कि विलेन बनने की भी एक होड  आकार लेती दिखाई देगी और यह देश हित के नजरिये से ताबूत मे एक और कील  साबित होगी ।