रविवार, 12 जुलाई 2020

खुशियों के छ्लावे




      बहुत आगे निकल आये हम जिंदगी की राहों में, न जाने क्या कुछ पीछे छोड आए | अब तो इसकी भी सुध नही | हमने अपनी सुस्त सरल व सहज जिंदगी को छोड तेज रफ़्तार की दौड को चाह और हमारी कोशिशें भी रंग लाईं | हम एक नयी दुनिया मे आ गये जहां बहुत कुछ नया और अलग है | विकास और रंगनियों की रोशनी है | सबकुछ मनभावन है लेकिन भूल गये कि विकास और मानवीय मूल्य कभी साथ साथ नही चलते | इनका तो विरोधाभास सबंध रहा है |

       शायद इसीलिए विकास की रोशनी जब चौडी काली सडकों, शानदार माल्स , मल्टीफ्लैक्स और तिलिस्मी चकाचौंध के रूप मे जहां भी पहुंची उसने वहां की उन सभी चीजों की मासूमियत को डस लिया जिनमें कभी जिंदगी हंसती बोलती थी ।
      हम इस रंगीन चकाचौंध उजाले को देख खुश हुए, इतराये मानो हमे दुनिया-जहां की सारी खुशियां मिल गई हों । हमे यह उजाले पहले क्यों न मिले, इस पर मलाल करने लगे  लेकिन इन खुशियों के आगोश मे सिमटे हुए अंधेरों को न महसूस कर सके । आखिर करते भी तो कैसे हम तो मदहोशी की हालत मे जो पहुंच गये |
      घर घर मिट्टी के चूल्हों की कहावत को अंगूठा दिखाते हुए जब हमने रसोई गैस की नीली लौ मे अपने सुखों की तलाश की तो भूल गये कि चूल्हे की आग मे पके अन्न का सोंधापन और  पुरानी रसोई का अपनापन हमसे रूठने लगा है । हमें सभी सुविधाओं से लैस आधुनिक रसोई मिली जिसकी कभी हमने कल्पना भी न की थी लेकिन  पडोस से आग मांग कर चूल्हा जलाने की परंपरा ही खत्म हो गई । और  वह खुशियां हमसे रूठ गईं जो कभी चूल्हों और अंगीठियों से जुडी थीं ।
      पैसों की आमद ने जब अभावों की दुनिया को किनारा किया तो पडोस मे मुन्ना की मां के घर से चायपत्ती या चीनी मांगने का दस्तूर ही खत्म हो गया । महीने के आखिरी दिनों मे पडोसियों से उधारी की मजबूरियों से मुक्ति ने भी हमे बेइंतहा खुशियां दीं लेकिन यह खुशियां कब हमारे आपसी रिश्तों को डस गईं , पता ही नही चला ।
      भारी होती जेबों ने जब पहली तारीख के इंतजार की बेबसी से हमे छुटकारा दिलाया तो हम फिर खुशी से झूम उठे । लेकिन क्या पता था कि हमारी हमेशा यह भरी जेबें पहली तारीख से जुडी खुशियों की बराबरी न कर सकेंगी ।
      यही नही, शानदार शापिंग माल्स से रोज-ब-रोज खरीदे कपडों को पहन घमंड से इतराये तो जरूर लेकिन क्या पता था कि इन लकदक कपडों से जुडी खुशियां बहुत जल्द अपना दामन छुडा लेंगी और अभावों की दुनिया मे होली, दीवाली पर सिलाये गये कपडों से मिली खुशियां बरबस याद आयेंगी ।
      भरी जेबों के बल पर रोज खायी जाने वाली महंगी मिठाईयों और चटपटे व्यजनों ने तमाम बिमारियों को तो न्योता दे डाला लेकिन कभी तीज त्योहारों के अवसर पर ही नसीब होने वाली लड्डू-बर्फी से मिली उन खुशियों से हमारा नाता न जोड सकीं ।
      यही नही,  सरपट दौडती खूबसूरत कारों मे,   जिंदगी की  खुशियां तलाशने की कोशिश मे,  पगडंडियों पर साइकिल चलाने से मिली खुशियों को भी कहीं खो बैठे । कहां तक बयां करें दास्तानें उन मृगमरीचिकाओं की जिन्होने सिर्फ खुशियों के छ्लावे दिखाये । उन आंखों पर भी क्या तोहमत लगाएं जिन्होने फरेब को सच की तस्वीर माना । वक्त की बदली धारा ने मुट्ठी भर खुशियों की कीमत पर बेहिसाब  सच्ची खुशियों का सौदा किया ।


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