सोमवार, 31 अगस्त 2015

दरकते रिश्तों की त्रासदी

( एल.एस. बिष्ट ) - मुबंई के बहुचर्चित शीना बोरा हत्याकांड ने आज सभ्यता के ऊंचे पायदान पर खडे हमारे समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया । दर-असल अपराध के नजरिये से देखें तो इसमें ऐसा कुछ भी नही जिसे देख या सुन कर कोई हैरत मे पड जाए या जो कल्पना से परे लगे । यह ह्त्याकांड इसलिए भी खास नही कि इस कहानी की नायिका यानी इंद्राणी मुखर्जी ने कपडों की तरह अपने पति बदले। न ही इसलिए कि इस ह्त्या कथा का जाल एक औरत के दवारा बुना गया जिसे भारतीय समाज मे अबला समझा जाता रहा है । दर-असल इस घृणित हत्या कथा ने हमारे समाज के उस चेहरे को उजागर किया है जिससे हम मुंह चुराते आए हैं । ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे भी अंधेरे की एक दुनिया आबाद रह सकती है, इस सच से हम रू---रू हुए ।
इंसानी जिंदगी के चटक़ और भदेस रंगों को समेटे यह ह्त्याकथा हमे उस दुनिया मे ले जाती है जहां सतह पर ठहाकों की गूंज सुनाई देती है और थोडा अंदर जाने पर सिसकियों और बेबसी का ऐसा क्र्दंन कि सहज विश्वास ही न हो । दर-असल विश्वास न होने के भी अपने कारण हैं । भला एक रंगीन, चहकती और खुशियों मे मदहोस दुनिया के अंदर की परतों मे इस कदर उदासी और अवसाद का दमघोंटू अंधेरा होगा, भला कैसे सोचा जा सकता है । लेकिन यह भी एक सच है, इसे इंद्राणी और शीना की इस पेचीदी कहानी ने पूरी शिद्दत से सामने रखा है ।
देखा जाए तो यह कहानी सिर्फ शीना बोरा की हत्या की कहानी नही है बल्कि यह कहानी है इंसानी महत्वाकांक्षाओं, सपनों और उडानों की । एक ऐसी लडकी की कहानी जिसका स्वंय का बचपन एक् भयावह सपने से कम नही था । जिसे स्वंय घर की चाहरदीवारी के अंदर की ऐसी जिंदगी से गुजरना पडा जिस पर सात परदे डालने की ' दुनियादार प्रथा ' आज भी कायम है । उसे एक ऐसी जिंदगी जीने को अभिशप्त होना पडा जहां सिसकियां भी दम तोड देती हैं ।
लेकिन महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार उस लडकी ने अपने लिए एक ऐसी दुनिया रच डाली जो उसकी उम्र की लडकियों के लिए दिवास्वप्न देखने जैसा ही है । लेकिन इंद्राणी के लिए यह एक हकीकत की दुनिया थी जहां उसने वह सबकुछ पाया जिसकी चाह उसे अपने किशोरवय उम्र के सपनों मे रही होगी
लेकिन सपनों सरीखी इस जिंदगी को जिन मूल्यों पर हासिल किया यही इस ह्त्याकांड का सबसे भयावह सच है । पति परमेश्वर की अवधारणा पर टिके समाज को जिस तरह वह ठेंगा दिखाती हुई , कपडों की तरह अपने लिए पति बदलती रही, इसने एक बडा सवाल हमारे सामाजिक मूल्यों पर उठाया है । यही नही, दया और ममता की जीती जागती मूर्ति समझे जाने वाली मां के किरदार मे जिन रंगों को भरा उसने सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर हम किस दिशा की ओर बढने लगे हैं ।
दर-असल गौर करें तो इधर उपभोक्ता संस्कृर्‍ति ने एक ऐसे सामाजिक परिवेश को तैयार किया है जहां हमारे परंपरागत सामाजिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हुआ है । नैतिक-अनैतिक जैसे शब्द अपना महत्व खोने लगे हैं । महत्वाकांक्षाओं और सबकुछ पा लेने की होड मे अच्छे बुरे के भेद की लकीर न सिर्फ कमजोर बल्कि खत्म सी होती दिखाई देने लगी है । समाज के हर स्तर और पहलू पर यह गिरावट साफ तौर पर देखी जा सकती है ।
देश के किसी भी शहर के अखबार पर नजर डालें तो एहसास हो जाता है कि हम एक ऐसी बदलती दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं जहां वासना और ख्वाहिशों की मिनारें रोज--रोज ऊंची होती जा रही हैं । पत्नी अपने प्रेमी के लिए और पति अपने ' सपनों की रानी ' के लिए उन हदों को भी लांघ सकता या सकती है, जिनके मजबूत बंधनों पर भारतीय समाज गर्व करता रहा है । ऐसी घटनाएं अब किसी अखबार की सुर्खियां भी नही बनतीं क्योंकि यह हर शहर गांव कस्बे का सच बनती दिखाई दे रही है ।
अभी हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो वासना की आंधी मे गिरते हुए मूल्यों की हकीकत को समझा जा सकता है । यही नही, प्यार और कामवासना मे अपना विवेक खो देने वाली अमरोहा ( .प्र. ) की उस लडकी को लोग अभी भूले नही हैं जिसने प्रेमी के साथ मिल कर पूरे अपने परिवार की ही ह्त्या कर दी थी । अभी हाल मे लखनऊ शहर के मडियाव मे एक महिला ने छ्ह साल के एक मासूम की जान सिर्फ इसलिए ली कि वह अपने प्रेमी के साथ फिरौती से मिले पैसों से ऐश कर सके । वह महिला रिश्ते मे उस बच्चे की सगी चाची थी ।
इस तरह की घटनाएं किसी एक शहर या राज्य तक सीमित नही हैं । इनका चंहुमुखी विस्तार हुआ है । ऐसा भी नही कि यह वर्ग विशेष तक् सीमित हो बल्कि यह जहर हर वर्ग को अपनी चपेट मे ले चुका है । अगर एक तरफ शहरी मध्यम वर्ग के आकाश छूते सपने हैं तो दूसरी तरफ उच्चवर्ग मे ऐशो आराम की ग्लैमर भरी जिंदगी की ख्वाहिशें कम हिलोरें नही मारतीं । किसी को पावर की भूख है तो किसी को खूबसूरत जिस्मों की तो कोई सपनों सी जिंदगी जीने को आतुर दिखाई देता है । यानी कुल मिला कर जिंदगी जीने की वह पुरानी सामाजिक अवधारणाएं अब कहीं हाशिए पर आती नजर आ रही हैं ।
बात यहीं तक नही है । बल्कि इन्हें पाने की एक ऐसी होड भी जिसमे सबकुछ लुटा कर भी पाने का दुस्साहस दिखाई दे रहा है । इस तरह देखा जाए तो बात चाहे इंद्राणी मुखर्जी की महत्वाकांक्षा भरी जिंदगी की हो या फिर उन महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढती शीना की जिंदगी की या फिर एक गुमनाम सी जिंदगी जीते मिखाइल या फिर मां बाप के अजीब रिश्तों की सजा भुगतने वाली विधि की , सभी को कहीं न कहीं बदले हुए उन मूल्यों ने ही डसा है जिनमे रिश्ते-नातों का कोई मूल्य नही रह जाता । भावनाएं महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ जाती हैं ।

यह वह मूल्य हैं जो उपभोक्ता संस्कृति से उपजे हैं । और जिनका नशा सर चढ कर बोलता है और अंतत: उस मोड पर आकर खत्म हो जाता है जहां जिंदगी अपना अर्थ खो देती है । दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस अंधेरे का घेरा हमारी जिंदगी मे कसता ही जा रहा है । हम इससे मुक्त हो सकेंगे या नही, यही एक बडा सवाल है । 

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

बैसाखियों की दरकार


( एल.एस. बिष्ट ) - यह कहीं अच्छा और सुखद होता अगर गुजरात मे यह आंदोलन आरक्षण पाने के लिए नही बल्कि आरक्षण खत्म करने के लिए किया जाता । लेकिन जब देश की नसों मे स्वार्थ का रक्त संचारित होने लगा हो तो ऐसी आशा करना दिवास्वप्न देखने जैसा हो जाता है । दरअसल इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि पिछ्ले कुछ दशकों से भारतीय समाज व्यापक हितों से हट कर संकीर्ण स्वार्थों की सोच का शिकार बन कर रह गया है । राजनीतिक परिद्रश्य को ही देखें तो यहां भी व्पापक हित की सोच सिरे से नदारत है ।महज अपने हित की राजनीति को ही राजनीति का उद्देश्य मान लिया गया है । गौर करें तो स्वार्थ की यह सोच राजनीति के गलियारों से होती हुई सामाजिक जीवन के हर पहलू मे समाहित हो गई है ।
गुजरात जिसने विकास के एक माडल के रूप मे अपनी पहचान बनाई और दूसरों के लिए भी समृर्‍ध्दि के नये मुहावरे गढे, रातों रात असंतोष की आग मे जलने लगा । आश्चर्य यह कि वह उस समुदाय के कोप का शिकार बना जिसकी राजनीति से लेकर आर्थिक व सामाजिक सभी क्षेत्रों मे एक महत्वपूर्ण भागीदारी रही है । पटेलों का यह समाज एक ताकतवर व समृर्‍ध्द समाज के रूप मे जाना जाता है । यही नही, गुजरात की क्षेत्रीय राजनीति भी इनके इर्द गिर्द ही घूमती दिखाई देती है। फिर ऐसा क्या हो गया कि यह समुदाय अपने आप को पिछ्डा समझने लगा है । नब्बे के दशक मे हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन एक हिस्सा बने इस पटेल समुदाय को ही आरक्षण की बैसाखी क्यों रास आने लगी है ।
इतिहास मे थोडा पीछे जांए तो पता चलता है कि संविधान सभा मे शामिल सदस्यों के बीच इस आरक्षण व्यवस्था को लेकर मतभेद था । लेकिन दलित समाज व जन-जातियों की जो दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति उस दौर मे थी उसे देखते हुए इन जाति समुदायों के लिए संविधान मे 15 7.5 प्रतिशत के आरक्षण की व्यवस्था पर सहमति बन ही गई । लेकिन दस वर्ष उपरांत इसकी समीक्षा की जानी थी । बस यहीं से देश का दुर्भाग्य इससे जुड गया और वोट की राजनीति से जुड आरक्षण व्यवस्था ने स्थायी रूप ले लिया
भारतीय राजनीति दलित आरक्षण के इस प्रेत से अभी मुक्त हो भी न सकी थी कि संकीर्ण राजनीति ने कोढ पर खाज का काम कर दिया । कमंडल के प्रभाव को खत्म करने के उद्देश्य से वी.पी.सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए पिछ्डी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी । बस यहीं से शुरू हुई सरकारी सेवाओं मे आरक्षण पाने की चुहा दौड जो आज भी जारी है ।
उत्तर भारत ही नही, दक्षिण भारत मे भी राजनीतिक हितों को देखते हुए पिछ्डी जातियों का चयन किया जाने लगा । ऐसे मे उत्तर व दक्षिण मे कई ताकतवर जातियां राजनीतिक समीकरणों के चलते पिछ्डे वर्ग मे शामिल कर दी गईं । देखा देखी दूसरी जातियों ने भी इसके लिए संगठित होना शुरू किया ।
उत्तर भारत मे राजस्थान, हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश के एक ताकतवर जाट समाज ने भी आरक्षण के लिए गुहार लगाना शुरू कर दिया है । जब कि कभी अपने को पिछ्डा कहे जाने पर इन्हें सख्त विरोध था । यही स्थिति पटेलों की भी रही है । लेकिन आज यह भी इस ठ्सक को किनारा कर पिछ्डा कहलाने की होड मे लग गये हैं । यह हिंसक आंदोलन इसी का प्रतिफल है ।
यह सबकुछ नही होता अगर समय रहते इस आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की पहल कर दी जाती । लेकिन वोट राजनीति के चलते ऐसा संभव न हो सका । बल्कि इसे वोट् कमाने का एक माध्यम बना दिया गया । आरक्षण को लेकर की गई स्वार्थपरक राजनीति ने देश के सामाजिक ताने बाने को ही छिन्न भिन्न कर दिया । गुजरात तो महज एक बानगी भर है ।
आसानी से सरकारी नौकरी मिल जाने के लोभ ने जातीय समुदायों को संगठित कर लडने का साहस दिया । जाट आंदोलन और अब गुजरात मे पटेल समुदाय की लडाई इसका उदाहरण है । यही नही, आरक्षण अब एक ऐसा मुद्दा बन गया है कि इस लालीपाप को दिखा कर कोई भी रातों रात नेता बन सकता है । हार्दिक पटेल उन्हीं नेताओं मे एक हैं ।
आरक्षण की इस बैसाखी को पाने के लिए अभी कई और जातीय समूह अपनी जमीन तलाश रहे हैं । समय रहते इस खतरे को न समझा गया तो इसका गंभीर परिणाम देश को भुगतना पड सकता है । इसलिए यह समय है कि राजनीतिक स्वार्थों को छोड कर आरक्षण को खत्म करने की पहल राजनीतिक स्तर पर की जानी चाहिए । वरना आरक्षण का यह दैत्य देश के भविष्य पर एक बडा सवाल बना रहेगा ।