रविवार, 31 अगस्त 2014

आस्था पर यह कैसा विवाद




( L. S. Bisht ) -  अभी देश पाकिस्तान की सीनाजोरी और लब जेहाद जैसे मुद्दों से निकल भी न पाया था कि दारकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने धर्म संसद बुला कर एक नया धार्मिक मोर्चा खोल दिया है । इस धर्म संसद में लगभग 300 साधु-संतों ने भाग लेकर यह तय किया कि है कि साईं बाबा न तो भगवान थे, न संत और न ही गुरू । इसलिए देश में उनकी पूजा नहीं की जानी चाहिए । मंदिरों से उनकी मूर्तियों को हटाने की भी बात कही गई है

वैसे तो देश में विवादों की कमी कभी नही रही । शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब कोई नया राजनीतिक या सामाजिक विवाद न जन्म लेता हो । लेकिन देश ऐसे विवादों का अभ्यस्त हो चुका है । यह पानी की बुलबुले की तरह उठते हैं और फिर कुछ दिन बाद स्वत: विलीन हो जाते हैं । लेकिन साईं बाबा को लेकर उठा यह विवाद हमारी आस्थाओं से जुडा है । यह सवाल उस देश में उठ रहे हैं जहां आस्था को लेकर कभी सवाल ही नहीं उठे ।

दर-असल यह समझ से परे है कि अचानक साईं बाबा को लेकर यह सवाल क्यों है । उनको मानने वाले आज या कल में तो उनके भक्त नहीं हुए । उनकी भक्ति की परंपरा भी बहुत पुरानी है । समाज के एक बडे वर्ग की आस्था साईं बाबा में हमेशा रही है । यह दीगर बात है कि इधर कुछ समय से उनके भक्तों की संख्या में तेजी से वृध्दि हुई है । परंतु आखिर धर्म और आस्था के क्षेत्र मे यह विवाद क्यों ।

गौर से देखें तो यह विवाद भी उसी जमीन से उपजा है जहां से नित नये विवाद जन्म ले रहे हैं । यह जमीन है निजी स्वार्थ, अहंकार, माया , लोभ व व्रर्चस्व की । इधर कुछ वर्षों मे आस्था का व्यापार तेजी से फला फूला है । अब वह दिन पीछे छूट चले हैं जब हमारी धार्मिक आस्था घर के एक कोने मे बनाये गये मंदिर तक सीमित हुआ करती थी । इसका सार्वजनिक स्वरूप कुछ विशेष अवसरों पर ही दिखाई देता था जैसे कि रामलीलाओं व दुर्गा मां की पूजा पंडालों पर या फिर जन्माष्टमी अथवा शिवरात्री जैसे पर्वों पर ।

इस आस्था का स्वरूप बहुत बदला है । कुछ मायनों मे इसका भी बाजारीकरण हुआ है । धर्म के नाम पर अलग तरह का निवेश किया जाने लगा है । देखते देखते हमारी धार्मिक आस्था का दोहन बखूबी किया जाने लगा है । इस बदले स्वरूप को समझने के लिए हमें थोडा पीछे जाना होगा ।

आज की रामलीलाएं चार तख्त बिछा कर बनाये गये मंच से पूरी नहीं होती और न ही दो चार ढोलक बजाने वालों के संगीत से । अब वह दौर हमारी यादों में बस एक याद बन कर रह गया है । अब पूरे ताम झाम और मंहगे संगीत और कलाकारों को जोड कर रामलीला का आयोजन किया जाता है । इसमें विज्ञापन, प्रचार, चंदा और स्थानीय राजनीति और पैसे की अच्छी खाशी भूमिका रहती है ।

इसके अलावा नवरात्रों के अवसर पर आयोजित जागरण कार्यक्र्म भी आस्था से ज्यादा व्यापार व दिखावे का कार्यक्र्म ही लगता है । यहां भी फुहडता, पैसा और स्वार्थों का काकटेल साफ नजर आता है । आयोजकों की चिंता चढावे और चंदे में ज्यादा दिखाई देती है । अब तो गुजरात से पनपी डांडिया संस्कृति ने इस आस्था को और भी रंगीन व व्यापारिक बना दिया है ।

लगभग यही हाल दुर्गा पंडालों में भी दिखाई देगा । यही नहीं, हमारी आस्था का दोहन कहां तक हुआ है इसे देखना हो तो नामी गिरामी कथावाचकों के कार्यक्रमों में चले आएये । सत्यनरायण की कथा से जुडी हमारी आस्था का जो विस्तार इधर कुछ वर्षों में बडे बडे पंडालों के रूप में देखने को मिला है उसमें धर्म का अंश कम और अर्थ की चाह ज्यादा दिखाई देती है ।

लेकिन यह तो स्वीकार करना ही होगा कि हमारी पूजा-अर्चना अब सिर्फ पूजा पाठ तक सीमित न होकर एक अलग तरह का व्यापार भी बन गई है । जिसका विस्तार मंदिर के चढावों से लेकर आलीशान पूजा पंडालों तक हुआ है । यही नही, आस्था यह खेल राजनीति में भी रंग दिखाने लगा है । हमारे इन धार्मिक संतों, शंकराचार्यों का अपना एक राजनीतिक महत्व विकसित हुआ है जिसमें पैसा, शोहरत व सत्ता सभी कुछ है । थोडा गौर से देखें तो पता चलेगा कि धार्मिक आस्थाओं के रथ पर सवार होकर न जाने कितने लोग सत्ता सुख के भागीदार बने हैं और यह बदस्तूर जारी है ।

यानी कुल मिला कर यह विवाद धार्मिक क्षेत्र में अपने वर्चस्व को कायम रखने की लडाई है । हर किसी को अपनी पूजा करवाने तथा मह्त्व बनाये रखने की चाह है और यह तभी संभव है जब लोग उन्हें ' भगवान ' स्वीकार करें । साईं बाबा के भक्तों की बढती संख्या ने कुछ धार्मिक मठाधिशों मे इसी भय को जाग्रत किया है । वैसे यह भी कम अचरज का विषय नहीं कि इधर कुछ समय से साईं बाबा भक्तों के बीच कुछ ज्यादा ही लोकप्रिय हुये हैं । बल्कि युवतियों के एक बडे वर्ग मे तो उन्हें मानना और उनके मंदिर मे जाना एक फैशन के रूप में भी दिखाई देने लगा है । साईं बाबा आस्था के फैशन रूप मे कब और कैसे स्थापित हो गये, कह पाना मुश्किल है ।

बहरहाल इस विवाद मे आस्था के बहाने आस्था के प्रभाव के गणित को साधने की कोशिश ज्यादा दिखाई दे रही है । फिर भी यह धार्मिक विवाद कहीं से भी समाज व देश के हित मे नही है । अच्छा तो यही है कि इसे मुद्दा न बना कर इसे व्यक्ति विशेष की आस्था तक ही सीमित रखा जाए । यही इसका एक् मात्र हल है । 

शनिवार, 23 अगस्त 2014

पैसा और ग्लैमर डस रहा है क्रिकेट को

   

 ( L. S. Bisht ) -  इंग्लैंड में भारतीय क्रिकेट खिलाडियों ने जिन्हें देश मे भगवान का दर्जा प्राप्त है जो शर्मनाक प्रदर्शन किया उसने फ़िर देश में क्रिकेट को लेकर कई सवाल खडे किए हैं | सबसे अमीर कहा जाने वाला भारतीय क्रिकेट बोर्ड की अंदरूनी राजनीति, खिलाडियों का चयन और उनका मैदान में प्रदर्शन फ़िर कटघरे में है | लेकिन हमेशा की तरह गंभीर सवालों और चिंताओं पर बोर्ड ने एक बार फ़िर मिट्टी डालने का काम बखूबी किया है |
     टेस्ट सीरीज में भारतीय खिलाडियों ने जिस तरह से आत्मसमर्पण किया उससे न सिर्फ़ भारतीयों का सिर नीचा हुआ अपितु विदेशी मीडिया के ताने सुनने को भी मजबूर होना पडा | लेकिन बोर्ड ने आलोचना से बचने के लिए आनन-फ़ानन में कमेंट्री करने वाले रविशास्त्री को भारतीय क्रिकेट टीम का निदेशक नियुक्त कर दिया और डंकन फ़्लेचर को एक तरह से अधिकारविहीन कर, जाने के संकेत दे दिये हैं | इसके अलावा अपने कुछ चेहतों को कोचिंग स्टाफ़ में शामिल कर लिया है |
     देखा जाए तो बोर्ड की यह कवायद आग लगने पर कुआं खोदने जैसी है | उसे पता है कि कुछ समय बाद यह आग स्वत: ठंडी पड जायेगी और फ़िर सब्कुछ सामान्य दिखने लगेगा | इस खेल के भविष्य और खिलाडियों के गैर जिम्मेदाराना पहलू पर बोर्ड गंभीरता से सोचने की जहमत नही उठाना चाहता | दर-असल जडों को खोदने पर स्वयं वह कटघरे में खडा दिखाई देगा |
     देखा जाए तो क्रिकेट में पैसे और ग्लैमर के बढते प्रभाव ने इस खेल की नींव को खोखला करना शुरू कर दिया है | अब अस्सी या नब्बे के दशक का क्रिकेट नही रहा जब पैसे को नही खेल को महत्व दिया जाता रहा और खिलाडियों के लिए भी पैसा ही सबकुछ नही हुआ करता था |
     आई पी एल ने जिस तरह से इस खेल को करोडों के खेल मे तब्दील कर दिया उसने इस खेल के स्वरूप को भी बहुत हद तक बदला  है | इसने खिलाडियों की सोच में देश भावना को नहीं बल्कि पैसे की भावना को जागृत करने का काम किया है | खिलाडियों का सारा ध्यान क्रिकेट के इस बाजार पर केन्द्रित होकर रह गया है | अब इनका एकमात्र मकसद इसमें अच्छा प्रदर्शन कर अधिक से अधिक रकम पर हाथ साफ़ करना है न कि क्रिकेट में देश का नाम ऊंचा करना | ग्लैमर व विज्ञापनों के तडके ने इस क्रिकेट सर्कस को और भी जायकेदार बना दिया है |
     देखने वाली बात यह है कि खेल के इस संस्करण का मूल चरित्र ही ताबडतोड, बेफ़्रिक बल्लेबाजी है जिसमें तकनीक की कोई खास जरूरत भी नहीं | छ्क्के और चौकों की बरसात पैसे और विज्ञापनों की दुनिया का दरवाजा भी खोलती है और इस रंगीन दुनिया मे भला कौन नही आना चाहेगा | सही मायनों में खेल की इस शैली ने क्रिकेट की नींव को खोदने का काम बखूबी किया है | यह सोच पाना ज्यादा मुश्किल नही कि आई पी एल खेलने वाले यह धुरंधर टेस्ट मैच कितना अच्छा खेल पायेंगे जिसमे तकनीक, दमखम और धैर्य की असली परीक्षा होती है |
     यहां गौरतलब यह भी है कि अब भारतीय टीम के चयन का आधार भी यही आई पी एल सर्कस बन गया है | यहां जिस खिलाडी ने धूम मचा दी उसका भारतीय टीम में भी चयन लगभग पक्का है | अभी हाल में भारतीय टीम मे जितने नये चेहरे शामिल किए गये हैं वह सभी इस जमीन से ही आये हैं | यह अब भारतीय क्रिकेट की जडों को खोखला करने लगा है |  टेस्ट संस्करण  तो भारी संकट मे  है | इस प्रारूप मे हमारी विश्व रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है |
     इस संबध मे इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइकल वान का कहना बिल्कुल सही लगता है कि भारत के युवा क्रिकेटरों को आई पी एल के दायरे से बाहर निकल कर काउंटी क्रिकेट खेलना चाहिए | उन्हें लीग की कशिश और बेशुमार कमाई के दायरे से बाहर निकलकर बाहर की बडी दुनिया से बाबस्ता होना पडेगा |
     दूसरी तरफ़ इंग्लैंड के ही पूर्व कप्तान स्टीवर्ट की बात भी कहीं से गलत नही लगती कि फ़्लैचर भारतीय बल्लेबाजों के बदले बैटिंग नहीं कर सकते | वह अपना ज्ञान बांट सकते हैं | लेकिन बैट बैट्समैन पकडते हैं और मैदान पर उन्हें ही खेलना होता है | कोच खिलाडियों को तैयार करता है और उन्हें प्र्दर्शन करना होता है | भारतीय खिलाडी प्रदर्शन नही कर पाए |
     इसमें कोई संदेह नही कि यह स्थिति बनी रहेगी जब तक हम अपने गिरेबां मे झांकने का ईमानदार प्रयास नहीं करेंगे | हमें यह मानना ही पडेगा कि हमारे खिलाडियों के लिए पैसा, विज्ञापन और ग्लैमर देश के सम्मान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है | इन्हें इस संबध मे कडा संदेश देना ही होगा कि देश के सम्मान और भावनाओं से खिलवाड बर्दाश्त नहीं किया जायेगा |
     अब समय आ गया है कि खेल के तीनों प्रारूपों की कप्तानी पर भी नये सिरे से सोचा जाए | टेस्ट प्रारूप मे धोनी  अच्छे कप्तान कतई नही हैं लेकिन बोर्ड मे अपनी अच्छी पकड के कारण वह अभी तक बने हुए हैं | समय के साथ साथ वह एक अडियल और जिद्दी कप्तान ज्यादा दिखने लगे हैं जो भारतीय क्रिकेट के हित मे नहीं है | टीम के लिए खिलाडियों के चयन का आधार आई पी एल तो कतई नही हो सकता | इसके लिए एक निष्पक्ष नीति बनानी होगी जो सभी प्रकार के दबाबों से मुक्त हो | अगर ठोस कदमों की पहल न की गई तो भारतीय क्रिकेट अपनी ही बुराईयों के भार से अपनी चमक खो देगा |


गुरुवार, 14 अगस्त 2014

क्या भ्रष्ट व्यवस्था के स्वयं पोषक हैं हम

         

( L.S. Bisht )-      15 अगस्त 1947 को हम आजाद हुए | हमने खुशियां मनाई कि गुलामी की बेडियों से मुक्त हम युगों तक आजाद भारत में सांस लेते रहेंगे | 26 जनवरी 1950 को फ़िर हमने मिठाइयां बांटी, पटाखे छोडे कि अब हमारा राष्ट्र, हमारा जीवन हमारे ही द्वारा बनाए गए संविधान से आगे और आगे बढता रहेगा | हमने एक ऐसे गणतंत्र की आधारशिला रखी जिसमें सभी धर्म, जातियों तथा वर्गों को फ़लने-फ़ूलने का पूरा पूरा अवसर मिले |
     लेकिन आज गणतंत्र का जो स्वरूप सामने है, उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी | हमारे प्रजातंत्र का मूल मंत्र है, जनता के लिए,जनता द्वारा,जनता का शासन | इस उदार व्यवस्था में हमें ढेरों अधिकार मिले लेकिन आज उन अधिकारों के बाबजूद गणतंत्र की वह चमक जिसकी उम्मीद की गई थी,कहीं नहीं दिखती |
     स्वतंत्रता के पूर्व अपनी बदहाली का कारण हमें गुलामी समझ मे आता था | लेकिन उस अंधेरे मे हमारे पास अपनी पीडा सह लेने के अलावा और दूसरा रास्ता था भी नहीं | लेकिन अब वह बेबसी नही रही, वह अंधेरा नही रहा, हम किस जगह की तलाश करें जहां शिद्दत से उठते तमाम सवाल खामोश हो जाएं |
     आज देश की मांसपेसियां काम नही कर पा रही हैं | धमनियों व शिराओं में रक्त प्रवाह मंथर गति से हो रहा है | कुल मिला कर गौतम बुद्द, महावीर स्वामी व गांधी का देश अपना सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र खो चुका है | आजादी मिलने के बाद भारत विश्व का सबए बडा लोकतंत्र बना | तमाम राज्य बने और संविधान के तहत सभी को बराबरी का दर्जा मिला | परंतु सत्ता व वोटों की राजनीति ने एक ऐसे तांडव को जन्म दिया जिसकी चपेट में अब सारा राष्ट्र कराहने लगा है | साम्प्रदायिक दंगों की आग कभी यहां लगती है तो कभी वहां | मासूम लोगों की मोतों पर वोट की राजनीति करने से किसी को जरा भी परहेज नही | एक तरफ़ शहरों की चकाचौंध दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ रही है तो दूसरी तरफ़ आम आदमी का शोषण व बदहाली बढती जा रही है |
     यह सच है कि इस स्थिति के लिए हमारी सरकार तथा व्यवस्था काफ़ी बडी सीमा तक जिम्मेदार हैं | परंतु क्या हम कटघरे से बाहर हैं | इतिहास साक्षी है कि गुलामी के दौर में हम सभी ने कंधा से कंधा मिला कर बेडियों से मुक्ति पाई | परतु फ़िर स्वतंत्रता के बाद ऐसा क्या हुआ कि हम हिन्दु, मुसलमान, सिख, ईसाई या हरिजन तथा सवर्ण व अमीर तथा गरीब हो गए |
     आज हम बेशक राजनीति व व्यवस्थ को कोस लें परंतु वह राजनीति व व्यवस्था कायम नहीं रह सकती जिसे हम अस्वीकार कर दें | लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं किसी न किसी स्तर पर हम स्वय इसके पोषक हैं |
     सत्य तो यह है कि हम सभी ने देश पर ध्यान देने की बजाय अपने अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर दिया | हमारा राष्ट्र चरित्र हमारा व्यक्तिगत चरित्र बन गया | फ़िर प्रत्येक ने उसे कई हिस्सों में अपने अपने हितों के अनुरूप बांट लिया | चरित्रों के बंटवारे की इस अंधी दौड में वह भूल ग्या कि यह वह देश है जहां मर्यादा के लिए कभी राम ने अपनी पत्नी का भी त्याग किया | यह वह देश है जहां महात्मा बुद्द ने सारे माया बंधनों को अस्वीकार कर मोक्ष प्राप्त किया | वह भूल गया कि यह भगवान श्रीकृष्ण की भूमि है जिसने द्रोपदी की लाज बचाई |
     यह सब भूल कर वह अपनी स्वार्थ सिध्दि की अंधी दौड में शामिल हो वह सब करने लगा जिससे उसका अपना घर भर सके | आज स्थिति यह है कि अपना चरित्र खो सभी चोरी, कपट और भ्र्ष्टाचार में लगे हैं | परंतु सभी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं | लेकिन कडवा सच  यह है कि संतरी से लेकर मंत्री तक सभी एक ही रास्ते में चल रहे हैं | देश प्रेम, जनहित, नैतिकता जैसे शब्द उपहास की वस्तु बन कर रह गए हैं | स्त्य व अहिंसा जैसे शब्दों का चीरहरण हो चुका है |
     दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि अपने हितों को देख्कर हम राष्ट्रीय हित को एक्दम नजरांदाज कर रहे हैं| यही कारण है कि आज सभी को अपनी पडी है | किसी को आरक्ष्ण की बैसाखी चाहिए तो किसी को विशेष पैकेज तो किसी को अलग प्रदेश | देश का क्या होगा, इस पर सोचने की जरूरत किसी को महसूस नहीं होती |
     हमारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई उपलब्धियां रहीं, यह कहते, सोचते हमारे नेता नही थकते | बहुत सारे तमगे हमारे ताज पर चमक रहे हैं | लेकिन सत्य तो यह है कि शिखर चमकाने के चक्कर में हम नींव पर ध्यान देना भूल गए |
     आज स्थिति यह है कि जो जहां मजबूत स्थिति में है वह दूसरे कमजोर का शोषण कर रहा है | भौतिक सुविधाओं की होड में वह अमानवीय व्यवहार की हद तक जा चुका है | भ्रष्ट नौकरशाह, मिलावट करने वाला व्यापारी, भ्र्ष्ट ठेकेदार, भ्र्ष्ट पुलिस, स्ररकारी अफ़सरान, तीन तिकडम पढाने वाला मैकेनिक, ठगने वाला व्यापारी, संसद में बैठने वाला नेता, कहीं बाहर से तो नहीं आते | हम ही किसी न किसी रूप में इनमें से एक हैं |
     कडवा सच तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद हमारा चारित्रिक पतन हुआ है | हम स्वार्थी और अपने हित साधने में चालाक हुए हैं | और जिस देश के नागरिकों की सोच में राष्ट्रहित सबसे अंत में आए वहां इससे अच्छी स्थिति की कल्पना की भी नहीं जा सकती | अगर हम चाहते हैं कि आने वाले वर्षों में गणतंत्र की तस्वीर बदले तो हमें स्वयं को भी बदलना होगा | यह गन्दी राजनीति व व्यवस्था तब ही बदलेगी जब हम स्वय इसके पोषक न रहें |


शनिवार, 9 अगस्त 2014

हर साल दरकते पहाड़ की पीड़ा

                       

{ L.S. Bisht } -     मौसम की पहली बरसात ने ही केदारनाथ व बदरीनाथ पहुंचने के तमाम रास्ते बंद कर दिये | जगह जगह पहाड़ की चट्टाने टूट कर गिरने लगीं | ऐसा पहली बार नहीं है | बरसात के मौसम मे इसी तरह साल-दर-साल घायल होता हिमालय क्षेत्र आज हमारी उपलब्धियों के तमाम दावों को झुठलाने लगा है | साथ ही विकास नीतियों की खामियों को भी उजागर कर रहा है | वैसे तो पहाड़ की टूट फ़ूट प्रकृति का चक्र है लेकिन जिस तरह से इधर हाल के वर्षों से पहाड़ मे भू-स्खलन की घटनाएं बढी हैं, यह हमारे लिए खतरे का संकेत है | विडंबना तो यह है कि दूसरी तरफ़ हम पर्यावरण की रक्षा की बात करते नही थक रहे |
     अब तो स्थिति यह है कि थोडी सी बरसात मे ही पहाड़ दरकने लगे हैं | आवागमन का ठप होना तो बरसात के मौसम मे रोज की बात है | दरकते हुए पहाड़ इस बात का संकेत हैं कि पर्यावरणीय विनाश की सीमा अब खतरे के निशान को भी पार करने लगी है | इससे पर्वतीय विकास की मूलभूत सरकारी नीतियों तथा नजरिये पर एक प्रशनचिन्ह लग गया है | विकास की यह उल्टी चाल इस तथ्य को भी उजागर कर रही है कि आज पर्वतीय विकास के लिए धन नही वरन नियोजन की अधिक आवश्यक्ता है | साथ ही यह चेतावनी भी कि सिर्फ़ एक माडल के आधार पर पर्वतीय विकास की योजनाएं तैयार नही की जा सकती हैं | इसके लिए जरूरी है इस अंचल की भौगोलिक परिस्थितियों , तराइ-भावर, मध्य हिमालय व उच्च हिमालय श्रेणियों मे विभाजित कर योजनाएं बनाई जानी चाहिए |
     दर-असल आज घायल होते हिमालय क्षेत्र की इस पीडा के पीछे सरकारी गलत नीतियों तथा पर्यावरण के प्रति हमारी घोर उपेक्षा की एक लंबी कहानी है | कभी यह क्षेत्र अपनी वन सपंदा के लिए जाना जाता था |  लेकिन आज स्थिति यह है कि दूर दूर तक वन उजड चुके हैं | यहां तक कि गांवों मे चारे ईधन तक का संकट उपस्थित हो गया है | खनिज दोहन के लोभ ने भी पहाड़ की छाती पर गहरे घाव लगाए हैं | डायनामाइट विस्फ़ोट से कच्चे पडे पहाडों से अब मिट्टी निकल निकल कर बहने लगी है | और परिणामस्वरूप भू-स्खलन व भूक्ष्ररण की गति उत्तरोत्तर तेज हो रही है |
     विनाश की यह प्रकिया आज भी जल, जानवर और जडी बूटी की लूट, सडक और बांधों का क्रूरतापूर्ण निर्माण, निरन्तर हो रहे असंतुलित खनन आदि के रूप मे जारी है | यह विनाश जिस बिंदु पर पहुंचा है उसी का परिणाम है भू-स्खलन से टूटता पहाड़ और थोडी सी बरसात मे पहाड़ी नदी-नालों का ताडंव |
     दर-असल पहाड़ के शोषण की परम्परा एक शताब्दी पूर्व की औपनिवेशक शासकों की देन रही है | खास कर ईस्ट इंडिया कंपनी के काल खंड के दस्तावेजों को देखने से पता चलता है कि इनकी नजर यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर थी | फ़्रांसिस ह्वाइट ( 1837 ) के यात्रा विवरणों मे मसूरी की पहाडियों मे चूना खदाने होने का उल्लेख मिलता है | लेकिन काफ़ी समय तक इन्हे कोई नुकसान नही हुआ | य्हां तक की 1883 तक इनसे कोई छेड़छाड़ नही की गई |
     लेकिन इसके बाद वनों के शोषण का काला अध्याय शुरू हुआ | वनों का अंधाधुंध दोहन कर रेलवे स्लीपर बनाये जाने लगे | व्यापारिक द्र्ष्टिकोण से ही चीड़ के वनों का विस्तार किया गया | इससे लीसा निकालने की प्रकिया भी तभी शुरू हुई | एक तरफ़ व्यापारिक उद्देश्यों के लिए वनों का निर्मम दोहन हुआ दूसरी तरफ़ कृषि योग्य भूमि के विस्तार के लिए भी वनों को साफ़ किया जाने लगा परिणाम्वरूप 1930 के आसपास से हिमालय क्षेत्र मे भू-स्खलन और बाढ की घटनाएं शुरू हो गईं |
     1940 के बाद खनिज खनन का कार्य शुरू हुआ | खुलेआम डायनामाइटों का प्रयोग शुरू हुआ | खनन कार्य के फ़लस्वरूप भू-स्खलन की गति और तेज हो गई | यह सब आजादी के पूर्व की बात है परन्तु हिमालय क्षेत्र का दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्रता के बाद भी उसके प्रति शासकों का द्र्ष्टिकोण नही बदला | हमारे नीति निर्माता ऐसी विकास योजनाएं बनाने मे असफ़ल रहे जिनसे पर्यावरण के साथ पहाड़ की अर्थव्यवस्था मे भी सुधार होता |
     60 के दशक से विकास के नाम पर सड्कों का निर्माण कार्य शुरू हुआ | इसका परिणाम यह निकला कि ठेकेदारों ने पहाड़ के जंगलों तथा खेतों के साथ खूब मनमानी की | रही सही कसर सरकारी बिजली परियोजनाओं ने पूरी कर दी | टिहरी जैसा विशालकाय बांध बनाना वह भी हिमालय क्षेत्र में, हमारी गलत नीतियों का सबसे अच्छा उदाहरण है |
     बहरहाल इन तमाम गलतियों का परिणाम आज सामने है | परन्तु इससे बडी गलती यह रही कि समय समय पर समितियों की चेतावनियों को बार बार नजर-अंदाज किया जाता रहा जो आज भी जारी है | इस हिमालय क्षेत्र के भू-स्खलन के कारणों और पर्यावरण के असंतुलन पर न जाने कितने  अध्ययन  किए गये और सिफ़ारिशें सरकार को दी गईं लेकिन सभी अलमारियों मे धूल खाती रहीं | उन्हें कभी गंभीरता से लिया ही नही गया | बद्रीनाथ धाम के बिगडते पर्यावरण पर दी गई चेतावनी, नैनीताल मे पहाड धसकने की डा नौटियाल की शंका को भी नजर-अंदाज कर दिया गया |
     दर-असल हिमालय की पहाड़ियां कच्ची और नई हैं और इसलिए संवेदनशील भी | इनके साथ थोड़ी सी लापरवाही भी घातक सिध्द हो सकती है | इधर कुछ समय से उत्तराखंड मे टूरिज्म के विकास को गति मिली है | सड्कों का जाल बिछा है और पहाडियों पर बढते वाहनों का दवाब निरंतर बढ रहा है | इससे भी जरा सी बरसात भू-स्खलन को न्योता देने लगी है | आज यहां पांच सितारा पर्यटन की अवधारणा के तहत तमाम होटल पूरी सज धज के साथ सडक किनारे स्वागत के लिए खडे हैं | इनसे इन पहाडियों पर दवाब लगातार बढता जा रहा है | गाड़ियों का आवागमन पिछ्ले वर्षों  की तुलना मे कई गुना बढ गया है | लेकिन इन सब बातों से यहां किसी को कोई लेना देना नही |
     आज जरूरत इस बात की है कि पहाड़ की योजनाएं यहां के भौगोलिक रचना के हिसाब से संतुलित व सुनियोजित हों | आर्थिक विकास हेतु उठाये जा रहे किसी भी कदम से पूर्व पर्यावरणीय पहलू पर भी उचित ध्यान दिया जाए | अन्यथा  इस तरह तो एक दिन पहाड का अस्तित्व ही खतरे मे पड जाऐगा |
    
एल.एस.बिष्ट,

11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ-16