(L.S. Bisht ) - वर्षा ॠतु की विदाई के साथ हरी- भरी प्रकृति
और शीत ॠतु की सुनाई देने वाली दस्तक के बीच त्योहारों का जो सिलसिला शुरू होता है
वह शीत ॠतु की विदाई के साथ ही खत्म हो पाता है | लेकिन वक्त के साथ हमारे इन
त्योहारों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है | सही अर्थों में यह बदलता स्वरूप हमें
त्योहार के सच्चे उल्लास से कहीं दूर ले जा रहा है |
अगर थोडा पीछे देखें तो पता चलता है कि कुछ
समय पहले तक दीपावली की तैयारियां महीना भर पहले से ही शुरू हो जाया करती थी |
महिलाएं दीवारों, दरवाजों और फ़र्श को सजाने का काम स्वयं करती थीं | पूरा घर
अल्पना व रंगोली से सजाया करतीं लेकिन आज कहां है हाथों की वह सजावट | बडे उत्साह
के साथ दीये खरीदे जाते | उन्हें तैयार किया जाता और फ़िर तेल और बाती डाल कर उनसे
पूरे घर को दुल्हन की तरह सजा दिया जाता था | लेकिन अब किसे है इतनी फ़ुर्सत |
बिजली के रंगीन बल्बों की एक झालर डाल सजावट कर दी जाती है | लेकिन कहां दीये की
नन्ही लौ का मुण्डेर-मुण्डेर टिमटिमाते जलना और कहां बिजली के गुस्सैल बलबों का
जलना- बुझना | परंतु यही तो है बदलाव की वह बयार जिसने इस त्योहार के पारंपरिक
स्वरूप को डस लिया है | यही नही, अब कहां है पकवानों की वह खुशबू और खील, गट्टों
से भरी बडी-बडी थालियां जो बच्चों को कई कई दिन तक त्योहार का मजा देते थे |
दर-असल आज हमारे जीने का तरीका ही बदल गया है
| इस नई जीवन शैली ने हमें अपने त्योहारों मे निहित स्वाभाविक उल्लास से काट दिया
है | अब तो लोग दीपावली के दिन ही पटाखे और मिठाइयां खरीदने दौडते हैं | मिठाई भी
ऐसी कि चार दिन तक रखना मुश्किल हो जाए |
खुशियों का यह पर्व अब फ़िजूलखर्ची का पर्व भी
बन कर रह गया है | शहरों मे बाजार ह्फ़्ता भर पहले से ही जगमगा उठते हैं | चारों ओर
तामझाम और मंहगी आधुनिक चीजों से बाजार पट सा जाता है | महंगी मिठाइयां, मेवे,
गिफ़्ट पैक, खेल-खिलौने, चांदी-सोने की मूर्तियां और सिक्के और भी न जाने क्या-क्या
| इन सबके बीच दीपावली से जुडी पारंपरिक चीजें धीरे-धीरे गायब हो रही हैं |
पारम्परिक आतिशबाजी का स्थान ले लिया है दिल
दहला देने वाले बमों और पटाखों ने | एक से बढ कर एक महंगे पटाखे | हर साल करोडों
रूपये के पटाखे दीपावली के नाम फ़ूंक दिए जाते हैं | सरकार और गैर सरकारी संगठनों
की तमाम अपीलें भुला दी जाती हैं | बल्कि अब तो मुहल्ले स्तर पर आतिशबाजी की होड
सी लगने लगी है कि कौन कितने तेज और देर तक आतिशबाजी कर सकता है | यह एक तरह से
पटाखों की नही बल्कि दिखावे की होड है जिसे बाजार संस्कृति ने विकसित किया है |
कुछ ऐसा ही बदल गया है इस दिन घर-मकान की सजावट
का स्वरूप | अब दीये की झिलमिलाती बती का स्थान ले लिया है बिजली की सजावट ने |
किस्म किस्म की लकदक झालरें और सजावटी कलात्मक मंहगी मोमबत्तियां | बेचारे मिट्टी
के दियों का कोई पुरसाहाल नहीं | कुछ तो तेल महंगा और कुछ बदली रूचियों व अधुनिकता
की मार |
दीपावली पर उपहार देने की भी परम्परा रही है
| लेकिन उपहार व तोहफ़ों का यह स्वरूप भी मिठाई अथवा खील बताशों तक सीमित नहीं रहा
| सजावटी घडी, चांदी के खूबसूरत सिक्के, कलात्मक मूर्तियां व गहने, डिब्बाबंद मेवे
और भी तमाम चीजें जुड गई है उपहार-तोहफ़ों से | यही नही, विदेशी शराब की बोतलों को
भी उपहार मे देने की संस्कृति तेजी से विकसित हुई है | विदेशी चाकलेट के महंगे
गिफ़्ट पैक भी उपहार मे दिये जाने लगे हैं | विज्ञापन संस्कृती ने इसकी जडें जमाने
मे मह्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है |
कुल मिला कर देखें तो इस त्योहार पर जो
उत्साह, उल्लास कभी हमारे दिलो-दिमाग में बरबस घुल जाया करता था, अब चोर दरवाजे से
बस एक परम्परा का निर्वाह करते हुए आता है | सच तो यह है कि त्योहार के नाम पर हम
अपने संस्कारों व परम्परा का निर्वाह भर कर रहे हैं और वह भी इसलिए कि सदियों से
पोषित विचारों से हम अपने को एक्दम से अलग नहीं कर पा रहे हैं | आधुनिकता और
परंपरा के बीच हम संतुलन बनाने की जिद्दोजहद मे में उलझे हुऐ हैं | महंगे होते इस
त्योहार के साथ मध्यम वर्ग तो येन-केन अपने कदम मिलाने मे समर्थ हो पा रहा है
लेकिन कामगारों से पूछिए कि महंगा होता यह त्योहार उनकी जिंदगी को कितना छू पा रहा
है | उनके चेहरे की मायूसी बता देगी कि रोशनी का यह त्योहार बदलते स्वरूप में उनकी
अंधेरी जिंदगी के अंधेरों को कहीं से भी छू तक नहीं पा रहे हैं |
सच् तो यह है कि अपने अपने बदल रहे चरित्र
में यह रोशनी का पर्व सामर्थ्यवान लोगों के लिए धूम-धडाके, फ़ूहड नाच-गाने, होटलों
के हंगामे और हजारों लाखों के जुआ खेलने का त्योहार बन कर रह गया है | लेकिन तेजी
से आ रहे बदलाव के बाबजूद एक बडा वर्ग है जो अपने तरीके से निश्छ्ल खुशी के साथ
इसे मना रहा है | यह दीगर बत है कि उसके सांस्कृतिक मूल्य भी जमाने की हवा से
अछूते नही रहे | फ़िर भी इस पर्व से जुडे उसके मूल संस्कार बहुत बदले नही हैं | आज
भी वह घर आंगन की झाड-बुहार करने में बहुत पहले से ही व्यस्त हो जाता है | मिठाई
खरीदना और मित्र-रिश्तेदारों में बांटना वह नही भूलता | इस अवसर पर बच्चों के लिए
नये कपडे खरीदना भी उसकी परम्परा का हिस्सा है |
बहरहाल तेजी से बदल रहा है दीपावली का स्वरूप
| लेकिन जिस तरह से ह्मरी आस्था से जुडे इस पर्व का सांस्कृतिक स्वरूप बिगड रहा
है, उसे अच्छा तो नही कहा जा सकता | धन-वैभव, सामर्थ्य प्रदर्शन, चकाचौंध, दिखावा
व स्वार्थ की जो प्रवत्ति तेजी से विकसित हो रही है इससे तो इस पर्व का मूल
उद्देश्य ही खत्म हो जाऐगा | दूसरे पर्वों व उत्सवों की तरह इसे तो एक त्योहार की
तरह ही हमारी जिंदगी से जुडना चाहिए |
Very good essay, it really helped
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