शनिवार, 29 नवंबर 2014

अवध की मुजरेवालियां

     

( यह फ़ीचर ‘ मुक्ता ‘ पत्रिका के फ़रबरी,1987 के अंक में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित हुआ था । लखनऊ महोत्सव के अवसर पर इसे अपने ब्लाग में पुन: प्रकाशित किया है | मुक्ता के लिए इस फ़ीचर को लिखने में जिन परेशानियों से गुजरना पड़ा उसकी एक अलग दास्तां है   )

----- बनारस की सुबह की तरह कभी लखनऊ की शाम भी मशहूर थी | लेकिन रोमानियत से भरी वह शाम अब लगभग ढ्ल चुकी है | रंगीनियों का दौर बदल चुका है | इत्र और गुलाब की महक कम हो गई है और घुंघरूओं की झंकार भी धीमी पड़ चुकी है |
     अब न वे मुजरेवालियां रहीं और न वे मुजरे | हकीकत की वह दुनिया अब लखनऊ में कहीं नहीं दिखती,सिवाय कुछ भूलती बिसरती जा रही यादों के | वे गलियां अब सूनी पडी हैं | कहीं किसी अंधेरे कोने में कुछ पुरानी सांसों को छोड कर, जिन के पास है दिलकश मुजरों की यादें और मुजरेवालियों की रंगीन दुनिया के तमाम एहसास |
     फ़ूलवाली गली, जिस में कभी पायलों की झंकार और मुजरों की सुरीली आवाजें गूंजा करती थीं, अब एक भीड़ भरी गली से ज्यादा कुछ नहीं | अब लोग जानते हैं उस चावल वाली गली को, जो मुजरों की कब्रगाह है | जहां अब राग-रागिनियों का नहीं, बल्कि जिस्म का सौदा होता है | इसके गवाह हैं आसपास टहलते, मंडराते खाकी वरदी पहने कुछ इनसानी जिस्म |
     लेकिन ऐसा नहीं है कि वे मुजरे, दिलकश आवाजें पूरी तरह इतिहास में तब्दील हो गईं, अब भी उस दुनिया के कुछ खंडहर बाकी हैं, इस उम्मीद में कि शायद फ़िर क्भी अवध के गुजरे लमहे लौट कर आ जाएं |
     “ आप भी किस जमाने की बातें कर रहे हैं हुजूर “ चावल वाली गली की अब बूढी हो चली तवायफ़ कहती है, “ अब देख रहे हैं इस गली को, पूरे लखनऊ की सबसे बदनाम गली, कौन विश्वास करेगा कि कभी यहां नवाब और रईसजादे आते थे, लेकिन वह जमाना ही दूसरा था | एक से एक आला मुजरेवाली यहां इन कोठों में रहती थीं | तहजीब इतनी कि परदेसी के मुंह से आवाज न निकले मारे शर्म के | मुजरों की मांग इतनी कि यह फ़ैसला करना मुशकिल हो जाता था कि कहां जाएं ? किस को नाराज करें और किसे खुश | धीरे-धीरे सब खत्म हो गया | अब जो रह गया है वह तो आप देख ही रहे हैं , सिर्फ़ जिस्म का सौदा |
     सच भी है अवध में मुजरा व मुजरेवालियों की जिंदगी का इतिहास बहुत पुराना है | नवाबी दौर में इसे वही सम्मान व स्थान प्राप्त था जो मुर्गबाजी, कबूरतरबाजी, बटेरबाजी व पतंगबाजी को था |
     सही अर्थों मे अवध की नृत्यकला को जो शोहरत हासिल हुई, वह यहां की नाचने गानेवाली वेश्याओं के कारण ही मिली | पूरे देश में यहां की नर्तकियों का कोई सानी नहीं था | बताते हैं ल्खनऊ की तवायफ़ गौहरबाई ने अवध के बाहर दूर-दूर तक बहुत नाम कमाया | नजाकत व प्रणय का भाव जैसे यहां की नर्तकियां अभिव्यक्त करती थीं, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं था |
     शाम ढलते ही चौक की फ़ूलवाली गली में दिलकश तानें सुनाई देने लगती थीं | नफ़ीस कड़ाई में सजेधजे कुरते पहने, हाथों में गजरा लपेटे और मुंह में सुगंधित पान दबाए लोग कोठों में जमा होने लगते | रात होते-होते पूरी गली दिलकश बोलों और झंकारों से गूंजने लगती | रात में बहुत देर तक मुजरे होते रहते | लेकिन मजाल कि कोई गंदी हरकत कर ले | सिर्फ़ पैरों की थिरकन व आवाज का सौदा होता |
     दलालों (भडुओं) की भी अपनी शान थी | वे कुर्ता-पायजामा पहने, आंखों में सुरमा लगाए, दिन भर घूमा करते थे | बडे अदब से पेश आते थे | एक ही नजर में भांप लेते कि यह हुजूर मुजरे के शौकीन हैं और सही कोठा तलाश रहे हैं | बस सलाम करते और इतनी अदब से बात करते कि आखिर उन्हें इनके कहने पर इनके बताए कोठे पर ही जाना पडता |
     अवध का वह नवाबी दौर खत्म हुआ और उसी के साथ अवध की वह तहजीब भी खत्म होने लगी | मुजरेवालियों की दुनिया में साल-दर-साल अंधेरों का घेरा कसता गया | अब अपने को तवायफ़ बताने का मतलब है अपने को एक गाली देना | अब मुजरेवालियों की सोहबत शान व प्रतिष्ठा की बात नहीं बल्कि चरित्रहीनता समझी जाने लगी है |
     आर्थिक दबावों व बदलती संस्कृति ने मुजरेवालियों को वेश्यावृत्ति के गड्ढे मे धकेल दिया | भडुओं की भी वह शान नही रही | उन्हें अब जिंदा जिस्म का दलाल समझ कर हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है | उस जमाने के कुछ भडुआ परिवारों ने तो मजबूरन जिंदगी के दूसरे रास्ते खोज लिए | मुजरों को संगीत में बांधने वाले साजिदों की हालत और भी बदतर है | पुराने लखनऊ में ऐसे बहुत से उजडे साजिंदे अब महज दिन काट रहे हैं |
     नाम न छापने के अनुरोध के साथ कुछ तवायफ़ों ने अवध की इस कला पर लंबी बातचीत की | कभी जगमगाते आबाद कोठों से लेकर अब दड्बेनुमा कोठरियों में गुंडों, दलालों व ग्राहकों के बीच कैद तिलमिलाती जिंदगी की परत-दर-परत दास्तान बताती हैं कुछ गए जमाने की तवायफ़ें और मौजूदा व्यवस्था की भंवर में फ़ंसी वेश्याएं |
     अब बदहाली मे दिन काट रही बूढी तवायफ़ बताती है “ उस जमाने के रईसजादे सलामत रहें, क्या लखनऊ बसाया था उन्होने | अब ठीक से तो याद नहीं,सुना था नवाब शुजाउद्दोला ने तवायफ़ों को बहुत सहारा दिया था | उनके बाद मुजरों की महफ़िल मे आना अमीरों का शौक ही बन गया था | उस समय भी कहा जाता था कि जब तक आदमी को वेश्याओं की सोहबत हासिल न हो, वह सही इन्सान नहीं बन सकता | हमारे देखे की बात है, क्या तमीजदारी थी उन तवायफ़ों में | आदमी एक बार बात कर ले तो गुलाम हो जाए | एक साहब थे हकीम मेंहदी | वह नवाब के मंत्रियों मे बहुत लायक समझे जाते थे | उन्हें इस ऊंचाई तक पहुंचाने मे उस समय की एक तवायफ़ प्याजू ने बहुत कुछ किया | बताते हैं अपनी दौलत भी उसने उनके कदमों पर रख दी | ऐसी मुहब्बत थी उनमें |
     चावल वाली गली की एक अंधेरी कोठरी में दयनीय जिंदगी जी रही वेश्या ने बताया “ लखनऊ में शेर ओ शायरी की महफ़िलें और गोष्ठियां हर  छोटे-बडे मुहल्ले में हुआ करती थीं | इनमें शरीफ़ व रईस लोग शामिल् होते थे | कुछ ऐसी तवायफ़ें भी थीं जो अपनी शालीनता व तहजीब के लिए दूर-दूर तक जानी जाती थीं | उनके यहां भी गोष्ठियां होती थीं और लोगों को वहां जाने मे शर्म या संकोच महसूस नहीं होता था | एक ऐसी तवायफ़ थी हैदरजान | उसके यहां नाच-रंग की महफ़िलों और गोष्ठियों का आयोजन होता था | बडे बडे अमीर वहां जाते थे | नसीमबानों और मेहरून्निसा नाम की तवायफ़ें भी अपनी तमीजदारी व खातिरदारी के लिए जानी जाती थीं | अब कहां रहीं वह तहजीब | उस जमाने की ज्यादातर तवायफ़ें तो आज नहीं रहीं | कुछ ने जिस्मफ़रोशी का धंधा अख्तियार कर लिया और थोडी बहुत बनारस चली गईं | नई लडकियां हैं, जिस्म बेचती हैं | तहजीब और अदब की समझ कहां ?
     यह दास्तां है गए जमाने की और अवध की उस कला की जो दम तोड रही है | मुजरों की जगह है बेसुरी आवाज और जिस्मफ़रोशी | लेकिन यह सब यकायक नही हुआ | जमाना बदला तो तहजीब बदली, लोग बदले और रूचियां बदलीं | एक तरफ़ आर्थिक दवाब बढे तो दूसरी तरफ़ कला की कद्र कम हुई | मजबूरी ने उन्हें वेश्यावृत्ति के दलद्ल मे ध्केल दिया | कुछ ने पेट भरने कि लिए दूसरे रास्ते खोज लिए और कुछ गुमनामी के अंधेरों में खो गईं | आज भी चौक, नक्खास, हुसैनाबाद,चौपटिया और ठाकुरगंज में कुछ गुमनाम आवाजें दम तोड रही हैं |
     अब फ़ूलवाली गली इतिहास में दर्ज होकर रह गई है | चावलवाली गली पर वेश्यावृत्ति का काला धब्बा लग चुका है | लेकिन वेश्यओं को यहां भी ठिकाना नहीं | उनके बसने व उजडने का सिलसिला बरसों से चल्र रहा है | आज लखनऊ और आसपास के जिलों के तमाम इक्के-तांगे वाले अपने को नवाबी खानदान से जुडा बताते हैं और कुछ समय के लिए ही सही उनका सिर गर्व से ऊपर उठ जाता है | लेकिन शायद ही कोई वेश्या अपने को मुजरेवाली बताने का साहस कर सके | इस स्थिति के लिए काफ़ी हद तक हमारी व्यवस्था भी जिम्मेदार रही है | राजे-रजवाडों को पेंशन दी गई | उन्हें बसाया गया लेकिन इन्हें किसी ने नही पूछा | यह तवायफ़ें सिर्फ़  इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गईं |

     

बुधवार, 26 नवंबर 2014

क्रिकेट से खिलवाड़

                
 ( L.S. Bisht ) क्रिकेट फिर कटघरे मे है । आइपीएल स्पाट फिक्सिंग मामले में उच्चतम न्यायालय ने श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन की भूमिका किसी भेदिया जैसी बताई है । इसके अलावा मुदगल समिति की रिपोर्ट मे नामजद खिलाड़ियों के नाम उजागर करने की अपील पर भी सुनवाई की मंजूरी दे दी है । देखना है पिटारे से क्या निकलता है । कुछ निकलता भी है कि नहीं । लेकिन इतना तय है कि जो भी हो रहा है वह  इस खेल के हित में तो कतई नही है ।
देखा जाए तो क्रिकेट में पैसे और ग्लैमर के बढते प्रभाव ने इस खेल की नींव को खोखला करना शुरू कर दिया है | अब अस्सी या नब्बे के दशक का क्रिकेट नही रहा जब पैसे को नही खेल को महत्व दिया जाता रहा और खिलाडियों के लिए भी पैसा ही सबकुछ नही हुआ करता था |
आई पी एल ने जिस तरह से इस खेल को करोडों के खेल मे तब्दील कर दिया उसने इस खेल के स्वरूप को भी बहुत हद तक बदला  है | इसने खिलाडियों की सोच में देश भावना को नहीं बल्कि पैसे की भावना को जागृत करने का काम किया है | खिलाडियों का सारा ध्यान क्रिकेट के इस बाजार पर केन्द्रित होकर रह गया है | अब इनका एकमात्र मकसद इसमें अच्छा प्रदर्शन कर अधिक से अधिक रकम पर हाथ साफ़ करना है न कि क्रिकेट में देश का नाम ऊंचा करना | ग्लैमर व विज्ञापनों के तडके ने इस क्रिकेट सर्कस को और भी जायकेदार बना दिया है |
देखने वाली बात यह है कि खेल के इस संस्करण का मूल चरित्र ही ताबडतोड, बेफ़्रिक बल्लेबाजी है जिसमें तकनीक की कोई खास जरूरत भी नहीं | छ्क्के और चौकों की बरसात पैसे और विज्ञापनों की दुनिया का दरवाजा भी खोलती है और इस रंगीन दुनिया मे भला कौन नही आना चाहेगा | सही मायनों में खेल की इस शैली ने क्रिकेट की नींव को खोदने का काम बखूबी किया है | यह सोच पाना ज्यादा मुश्किल नही कि आई पी एल खेलने वाले यह धुरंधर टेस्ट मैच कितना अच्छा खेल पायेंगे जिसमे तकनीक, दमखम और धैर्य की असली परीक्षा होती है |
यहां गौरतलब यह भी है कि अब भारतीय टीम के चयन का आधार भी यही आई पी एल सर्कस बन गया है | यहां जिस खिलाडी ने धूम मचा दी उसका भारतीय टीम में भी चयन लगभग पक्का है | अभी हाल में भारतीय टीम मे जितने नये चेहरे शामिल किए गये हैं वह सभी इस जमीन से ही आये हैं | यह अब भारतीय क्रिकेट की जडों को खोखला करने लगा है टेस्ट संस्करण  तो भारी संकट मे  है | इस प्रारूप मे हमारी विश्व रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है |
कुछ समय पूर्व इस संबध मे इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइकल वान का कहना बिल्कुल सही लगता है कि भारत के युवा क्रिकेटरों को आई पी एल के दायरे से बाहर निकल कर काउंटी क्रिकेट खेलना चाहिए | उन्हें लीग की कशिश और बेशुमार कमाई के दायरे से बाहर निकलकर बाहर की बडी दुनिया से बाबस्ता होना पडेगा |
दूसरी तरफ़ इंग्लैंड के ही पूर्व कप्तान स्टीवर्ट ने बाहरी पिचों पर जब भारतीय बल्लेबाजी देखी तो तो जो बात कही वह  कहीं से गलत नही लगती कि फ़्लैचर भारतीय बल्लेबाजों के बदले बैटिंग नहीं कर सकते | वह अपना ज्ञान बांट सकते हैं | लेकिन बैट बैट्समैन पकडते हैं और मैदान पर उन्हें ही खेलना होता है | कोच खिलाडियों को तैयार करता है और उन्हें प्र्दर्शन करना होता है इसमें कोई संदेह नही कि यह स्थिति बनी रहेगी जब तक हम अपने गिरेबां मे झांकने का ईमानदार प्रयास नहीं करेंगे | हमें यह मानना ही पडेगा कि हमारे खिलाडियों के लिए पैसा, विज्ञापन और ग्लैमर देश के सम्मान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है | इन्हें इस संबध मे कडा संदेश देना ही होगा कि देश के सम्मान और भावनाओं से खिलवाड बर्दाश्त नहीं किया जायेगा |
       लेकिन जिस तरह से इस खेल मे पैसे का प्रभाव बढा है लगता नही कि भारतीय क्रिकेट का इससे कोई भला होगा बल्कि सट्टेबाजी और फिक्सिंग का ग्रहण इसे नीचे ही ले जायेगा । श्रीनिवासन जैसे लोग अपने फायदे के लिये इस खेल को पैसे के एक सर्कस मे बदल कर ऱख देंगे । अदालत के माध्यम से ही सही
इस खेल का और इसके अंदर की दुनिया का पूरा पोस्टमार्टम होना जरूरी है । अगर समय रहते य़ह न
किया गया तो देश मे न तो इस खेल की और न ही इसके खिलाडियों की कोई साख रह जायेगी । 
अब समय आ गया है कि खेल मे आ रही बुराइयों पर गंभीरता से  सोचा जाए | हमें यह भी समझना होगा  कि टीम के लिए खिलाडियों के चयन का आधार आई पी एल तो कतई नही हो सकता | इसके लिए एक निष्पक्ष नीति बनानी होगी जो सभी प्रकार के दबाबों से मुक्त हो | अगर ठोस कदमों की पहल न की गई तो भारतीय क्रिकेट अपनी ही बुराईयों के भार से अपनी चमक खो देगा |


बुधवार, 19 नवंबर 2014

आस्था और राजनीति का काकटेल


( एल.एस. बिष्ट ) सतलोक आश्रम में संत रामपाल की गिरफ्तारी को लेकर जो हुआ उसने एक बार फिर 1984 के आपरेशन ब्लू स्टार की याद दिला दी जिसमें भिंडरांवाले व उनके समर्थकों को मंदिर से बाहर निकालने के लिए तत्कालीन सरकार को पूरी ताकत झोंकनी पडी थी । आस्था और राजनीति के घालमेल का यह एक अकेला उदाहरण नहीं है । 6 दिसम्बर 1982 बाबरी मस्जिद विध्वंस को लोग अभी तक भूले नहीं हैं ।
आपरेशन ब्लू स्टार को लेकर सरकार ने जो श्वेत पत्र जारी किया था उसके अनुसार उसमें 83 सैनिक मारे गये थे और 249 घायल हुए थे । 493 चरम्पंथी या आम नागरिक भी मौत के शिकार बने । वहीं बाबरी मस्जिद घटना के बाद भडकी हिंसा में विशेष रूप से सूरत, अहमदाबाद, कानपुर व दिल्ली आदि शहरों मे 2000 से ज्यादा लोग मारे गये थे । इन दो बडी घटनाओं का गवाह रहा है हमारा लोकतंत्र । समय समय पर होने वाली छोटी बडी घटनाओं की तो एक लंबी फेहरिस्त है ।
इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में जायें तो धर्म-आस्था और राजनीति का घालमेल ही दिखाई देता है । हरियाणा मे संत रामपाल के आश्रम सतलोक मे हुई हिंसा इन्हीं घटनाओं की एक और कडी है । इस बात पर अभी तक संतोष किया जा सकता है कि इस घटना मे ज्यादा जानमाल का नुकसान नहीं हुआ है । लेकिन इसने भविष्य के लिए एक खतरे की घंटी जरूर बजा दी है ।
दर-असल इधर कुछ वर्षों से राजनीति और धर्म व आस्था को लेकर जो विवाद व संघर्ष चलते रहे हैं, यह घटना उसकी दुखद परिणति ही है । बात चाहे साईं-शंकराचार्य विवाद की हो या लव जिहाद की या फिर संत रामपाल के भक्तों की , सभी की पृष्ठभूमि मे राजनीति की एक अहम भूमिका रही है और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि आस्था के सवाल पर इन सामाजिक विवादों का राजनीति के घालमेल से एक खतरनाक चेहरा बनने लगा है ।
कहते हैं धर्म से बडी राजनीति कोई नहीं होती और राजनीति से बडा धर्म कुछ नहीं होता और शायद यही कारण है कि तमाम राजनीतिक दल धर्मगुरूओं की चौखट पर पहुंचते हैं और उनका समर्थन लेने की पुरजोर कोशिश करते हैं । अब तो उनके समर्थन व सहयोग के लिए धर्म ससंद जैसे आयोजन भी किए जाने लगे हैं । दर-असल धर्म और राजनीति का यह मिलन ही इन घटनाओं की पृष्ठभूमि को तैयार करता है । इससे ही जन्म लेती है धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरता और धर्मगुरूओं दवारा भी राजनीति मे अपना रूतबा बनाने की चुहा दौड ।
इस संदर्भ में डा. राममनोहर लोहिया जी के विचारों को जानने व समझने का प्रयास करें तो आज के दौर की राजनीति मे उनके विचार कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं । उन्होने कहा था " धर्म और राजनीति के दायरे अलग अलग हैं पर दोनों की जडें एक हैं । धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म है । धर्म का काम है अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे । राजनीति का काम है बुराई से लडे और उसकी निंदा करे । जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है । और राजनीति जब बुराई से लडती नहीं, केवल निंदा भर करती है तो वह कलही हो जाती है । इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ मे आ जाए । धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनो को भ्र्ष्ट कर देता है । फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से संपर्क न तोडें, मर्यादा निभाते रहें । "
लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने इन मर्यादाओं को ताक पर रख कर जिस राजनीतिक शैली को जन्म दिया है यह घटनाएं उसी का परिणाम हैं । आज स्थिति यह है कि एक तरफ राजनेता अपने वोट बैंक के लिए धर्म और आस्था से जुडे धर्म गुरूओं की चौखट पर जाकर सजदा कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ यह धर्म गुरू भी राजनीतिक गलियारों मे अपना रूतबा कायम करने की कोशिश मे हैं । धर्म को राजनीति का संरक्षण और राजनीति दवारा धर्म का इस्तेमाल इन स्थितियों को जन्म दे रहा है । यह अल्पकालिक हित साधने की सोच देश के हित मे तो कतई नहीं है । अब अगर इस विकृति से समाज, राजनीति व देश को मुक्त रखना है तो धर्म - आस्था और राजनीति सभी को अपनी मर्यादाओं का निर्वाह करना ही होगा । इनका अविवेकी घालमेल पूरे सामाजिक व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर देगा ।





रविवार, 16 नवंबर 2014

हताशा और अवसाद का दंश झेलते बच्चे

    

( L.S. Bisht ) अभी हाल में हमने नेहरू जी को बडी शिद्दत से याद किया | नेहरू यानी जिन्हें उनकी राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा पंचशील, गुलाब और बच्चों के लिए जाना जाता है | लेकिन शायद उनकी विरासत की छीना-झपटी के चलते हम बच्चों की दुनिया को करीब से देखने और समझने का अवसर गंवा बैठे | सत्ता के गलियारों से निकले नारे, घोषणाएं और वादे जल्द ही राजनीति के गर्भ मे विलीन हो गये | लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ | देश का दुर्भाग्य रहा है कि इधर कुछ वर्षों से पूरे जनमानस का राजनीतिकरण बखूबी से हुआ है और मीडिया से लेकर आम आदमी तक की सोच मे राजनीति रच बस गई है | समाज से जुडे सवाल कहीं पीछे छूट गये हैं | राजनीति का नशा इतना गहरा है कि इन सवालों पर गंभीरता और गहराई से सोचने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता |
     जब पूरा देश अपने अपने तरीके से मासूम सपनों में रंग भरने की कवायद मे लगा था, लगभग उसी समय राजस्थान के एक स्कूल में एक बच्चे ने अपने अध्यापकों की प्रताडना से तंग आकर अपनी जिंदगी को अलविदा कह दिया | थोडी चर्चा हुई, शोर हुआ और फ़िर दूसरे ही दिन राजनीति की गरमा-गर्म खबरों की नई खेप ने उस खबर को हाशिए पर डाल दिया | किसी बच्चे की आत्महत्या की यह पहली खबर नहीं है | रोज ही देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बच्चा इस तरह की प्रताडना का शिकार बनता है | लेकिन चंद दिनों बाद सबकुछ भुला दिया जाता है |
     अगर हम राजनीतिक खबरों की दुनिया से बाहर निकल थोडा गौर करें तो पता चलता है कि 2012 के सुस्त सरकारी आंकडों में 14 वर्ष तक की उम्र में कुल 2738 बच्चों ने आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त की | इसमें 1353 लडकियां और 1385 लडके सम्मलित हैं | इतनी आत्म्हत्याओं का कोई न कोई कारण होना भी स्वाभाविक है | ज्ञात कारणों पर नजर डाले तो पारिवारिक कारणों से कुल 354 व परीक्षा मे असफ़ल हो जाने के कारण 226 बच्चों ने मृत्य को गले लगाया | यहां गौरत्लब यह भी है कि 560 बाल आत्महत्याओं मे कोई कारण ज्ञात न हो सका यानी इन बच्चों ने आत्महत्य जैसा कदम क्यों उठाया, कभी पता न चल सका |
     दर-असल यही वह मौतें हैं जिनमें या तो स्कूल बच्चे के परिसर की दुनिया जिम्मेदार है या फ़िर स्वंय बच्चे के घर के अंदर का दमघोटू माहौल जहां उससे उसकी उम्र से कहीं ज्यादा की अपेक्षाएं की जाती रही हैं | स्कूल व पारिवारिक परिवेश से जुडी यह आत्महत्याएं ही अज्ञात कारणों के अंधेरों में धकेल दी जाती हैं और फ़िर इन पर क्भी कोई बहस नहीं होती |
     दर-असल विकास की सीढीयां चढ्ते हुए इस देश मे महत्वाकाक्षाओं की उडानों का ऐसा विस्तार भी हुआ है जिसके दुष्परिणामों का दंश बच्चे भुगतने के लिए मानो अभिशप्त हैं | अभिभावकों की जीवन में ऊचे पायदान मे खडे होने की लालसा उनके ही बच्चों के बचपन को डसने लगी है, इससे वह बेखबर हैं | वह नहीं जान पा रहे हैं कि अपने बच्चों से किसी भी कीमत पर उपलब्धियों की अपेक्षाएं उन्हें हताशा और अवसाद के अंधेरों की तरफ़ खींच रही हैं | असमय मृत्यु का ग्रास बनते बच्चों के बचपन का यह एक बहुत बडा कारण है |
     एक तरफ़ माता पिता की आकाश छूती महत्वाकाक्षाएं और सपने हैं जिनका दवाब यह बच्चे पूरी खामोशी से येन केन झेल रहे हैं तो दूसरी तरफ़ स्कूली अनुशासन व स्टेट्स का पाखंड जहां उन्हें ख्र्रा उतरना है | पढाई संबधित थोडी सी चूक अध्यापकों के व्यवहार को इस सीमा तक अमानवीय बना देती है कि बच्चा भय और अवसाद के गहरे समुद्र में डूबने उतराने लगता है | प्र्ताडना और मानसिक दवाब जब सारी सीमाएं लाघं जाता है तो वह एक दिन वह कर बैठ्ता है जो दूसरे दिन के अखबार की सुर्खियां बनता है | और फ़िर चंद समय के लिए संवेदनाओं की लहर पैदा कर अनुत्तरित सवाल पीछा छोड जाता है | इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है | समाज व शासन की संवेदना इतनी सतही होती है कि भविष्य मे होने वाली इन आत्महत्याओं को नही रोक पाती |
     यहां गौरतलब यह भी है कि माता-पिता की आकाश छूती महत्वाकाक्षाओं तथा आधुनिक स्कूल संस्कृति के दोहरे दवाब के अलावा भी उसकी जिंदगी मे बदले सामाजिक परिवेश ने कई और दुखों का इजाफ़ा किया है | नैतिक मूल्यों की गिरावट से जहां एक तरफ़ उसकी मासूम दुनिया मे यौन शोषण का गहराता अंधेरा है तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्थिक उन्नति की दौड ने लाखों नौनिहालों के बचपन को कारखानों, ढाबों और फ़ुटपाथों पर गिरवी रख दिया है | यानी उसकी मासूम दुनिया के चहुं ओर खतरों का घेरा क्सता जा रहा है |
     लेकिन इन सबके बाबजूद दुखद तो यह है कि इन खतरों की गंभीरता को अभी समझा जाना शेष है | घट्ना विशेष के संदर्भ में टुकडों में मह्सूस की जाने वाली संवेदना से कोई विशेष हित नही होने वाला | ह्में पूरी शिद्द्त से बच्चों की दुनिया के दुखों और खतरों को स्मझना होगा और उन सभी रास्तों को बंद करना होगा जो उसे अंधेरे की तरफ़ बरबस खींच ले जाते हैं |


बुधवार, 12 नवंबर 2014

टी.वी. पत्रकारिता का यह कैसा चेहरा है


पत्रकारिता चाहे वह प्रिंट मीडिया की हो या फिर टी.वी. न्यूज चैनल की, उसका यह नैतिक दायित्व है कि वह समाज से जुडी खबरों को संतुलित तरीके से पेश करे तथा सच को सामने लाने का प्रयास करे । लेकिन इधर कुछ समय से न्यूज चैनल पत्रकारिता का एक अलग ही चेहरा सामने आया है । जिसे देख कर ऐसा तो कतई नहीं लगता कि इन्हें सकारात्मक जनमत बनाने के अपने नैतिक दायित्व का तनिक भी बोध है ।
महिलाओं से जुडे मुद्दों पर जिस तरह की पत्रकारिता कुछ चैनलों मे की जा रही है उसे देख कर तो लगता है कि इनका मुख्य उद्देश्य या तो अपनी टी.आर.पी. बढाना है या फिर हवा के साथ बहते हुए वाही वाही बटोरनी है । 11 नवम्बर को एक न्यूज चैनल ने अपने कार्यक्रम में जिस तरह से एक साधारण खबर का तिल का ताड बनाया उसने सोचने को मजबूर कर दिया कि आखिर यह कैसी टी.वी.पत्रकारिता है ।
महिला संबधी खबरों का पक्षधर होना गलत नहीं लेकिन अर्थ का अनर्थ निकाल कर अपने को पक्षधर साबित करना कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता । अपनी खबर मे उस प्रतिष्ठित चैनल ने बताया कि जम्मू-कश्मीर के चुनावों के लिए भरे जाने वाले नामांकन में एक विधायक ने ' लाइबिलीटी ' कालम मे अपनी दो अविवाहित बेटियों के होने का उल्लेख किया है । खबरों मे इस बात की निंदा की गई यह कहते हुए कि विधायक अपनी बेटियों को अपने लिए भार समझते हैं । ऐसा लिखना महिलाओं का अपमान है । यानी उन्हें महिला विरोधी करार दे दिया गया ।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि उन विधायक ने लाइबिलीटी के कालम मे यह लिख कर कोई गलती नही की थी । दर-असल इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है ' जिम्मेदारियां ' । यहां समझने वाली बात यह है कि एक पिता के लिए अपनी दो बेटियों का विवाह करवाना क्या एक जिम्मेदारी नही है । उनके लिए उचित वर की तलाश करना और फिर विवाह समारोह का खर्च पिता की जिम्मेदारी नही तो किसकी क्या है । यही नही सरकारी कागजों मे सरकारी कर्मचारी ' लाइबिलीटी ' के कालम मे ऐसा लिखते हैं । विशेष रूप से किसी कर्मचारी की सेवाकाल मे होने वाली मृत्यु पर उसके आश्रितों को निर्धारित प्रपत्र पर इस सूचना का भी उल्लेख करना होता है कि मृत्यु समय मरने वाले की लाइबिलीटी कितनी थी । यही नही, आम बोलचाल की भाषा मे रिटायर्मेंट के समय बहुधा यह कहा जाता है कि " अभी एक बेटी की शादी की लाइबिलीटी बची है और बेटे को भी कहीं सेटल करना है " । ऐसे मे विधायक का कथन किस नजरिये से गलत हो गया ।
ऐसा पहली बार नहीं । अक्सर महिलाओं से जुडी खबरों को इसी अंदाज मे परोसा जाने लगा है । बात का बतगंढ कर बना कर अपने को महिलाओं का हितैषी बताने की पुरजोर कोशिश की जाती है । सामाजिक जीवन की छोटी छोटी खबरों को भी महिलाओं के सम्मान और अस्मिता से जोड कर प्रचारित करना एक चलन या फैश्न सा बना दिया गया है । ऐसे मे खबरों का इस तरह से प्रस्तुतीकरण एक वर्ग के लिए नकारात्मक परिवेश की जमीन भी तैयार करता है । लेकिन अपने को महिला पक्षधर साबित करने का नशा कुछ इस कदर हावी है कि इसके साइड इफेक्ट दिखाई नही दे रहे ।

एक सीमा से अधिक अंध भक्ति से महिलाओं का हित नही अपितु अहित ही होगा । अभी हाल मे दिल्ली और कुछ दूसरे स्थानों पर " किस आफ लव " जैसे अश्लील प्रदर्शनों ने यह साबित भी कर दिया है । पत्रकारिता का तो यह पहला दायित्व है कि खबरों को संतुलित तरीके से पेश किया जाए न कि सनसनीखेज बना कर, जैसा कि किया जा रहा है ।खबरों की दुनिया में यह चुहा दौड कब रूकेगी, पता नहीं । 

रविवार, 9 नवंबर 2014

देह व्यापार को कानूनी वैधता का सवाल

( L. S. Bisht ) भारत मेँ देह व्यापार को एक कानूनी दर्जा देने का मुद्दा उस जिन्न के समान है जो वैसे तो बोतल मे ही बंद रहता है लेकिन यदा कदा ढ्क्कन खोल कर उसे निकालने की कमजोर कोशिश मेँ फिर बंद कर दिया जाता है । उच्चतम न्यायालय मेँ यह मामला एक बार चर्चा मे है । दर-असल 2010 में एक जनहित याचिका में देह व्यापार से जुडी महिलाओँ के पुनर्वास की व्यवस्था करने की मांग उठाई गई थी । इसी सिलसिले में एक पैनल का गठन किया गया है जिसे उन सभी बिंदुओं पर विचार करना है जिनसे वेश्याएं एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें ।
देह व्यापार के दलदल में फंसी सेक्स वर्कर के काम को भी कानूनी दर्जा दिए जाने की वकालत महिला आयोग की अध्यक्षा ने एक प्रस्ताव मे किया है जिस पर गठित पैनल को विचार करना है । लेकिन जैसी की उम्मीद थी इस प्रस्ताव के विरोध में खडे होने वाले झंडाबरदारों की भी कमी नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ इस घृणित व्यवसाय से जुडी वेश्याएं एक स्वर से यह मांग उठाती रही हैं कि उनके काम को भी वैधता प्रदान कर एक व्यवसाय के रूप मे देखा जाए ।
जनवरी में कोलकता मे आयोजित सम्मेलन में देशभर की सेक्स वर्कर ने घृणित समझे जाने वाले अपने इस काम की तमाम समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था और सरकार से इसे कानूनी मान्यता देने की पुरजोर वकालत की थी । उनका मानना है कि दूसरे अन्य व्यवसायों से जुडे कामगारों की तरह उन्हें भी सरकार कुछ सुविधाएं उपलब्ध कराए ।
बहरहाल यह तो समय बताऐगा कि सेक्स वर्कर के सबंध में क्या कुछ किया जा सकेगा लेकिन इतना तय है कि भारत जैसे देश में इस मुद्दे पर उदार फैसले का मतलब मधुमक्खियों के छ्त्ते को छेडने के समान है । दर-असल इस मामले मे भारतीय समाज में एक पाखंडपूर्ण व्यवहार दिखाई देता है । जो एक तरफ तो पश्चिमी संस्कृति की न सिर्फ वकालत करता है अपितु उसे नि:संकोच अपनाने मे भी कोई गुरेज नहीं । वह सामाजिक जीवन में खुलेपन के पक्ष में खडा दिखाई देता है जहां पहनावे से लेकर व्यवहार तक मे किसी भी तरह का बधंन उसे रूढिवादी सोच का परिचायक लगता है । उसे माल संस्कृति से लेकर फैशन शो और इंटननेट पर खुली छूट आधुनिकता के मापदंड प्रतीत होते हैं । लेकिन सेक्स के मामले में उसकी सोच को लकवा मार जाता है और वह उस पर परदेदारी के पक्ष में ही खडा दिखाई देता है ।
आधुनिक होते समाज मे वह आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि सेक्स इंसान की उतनी ही बडी जरूरत है जितना कि उसके लिए भोजन और पानी । यहां पर उसकी सोच विवाह से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है । इसके अलग सोचने को वह कतई तैयार नहीं । आज जबकि जिंदगी कहीं ज्यादा जटिल हो गई है और जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति विवाह बधंन से जुडी जिम्मेदारियों को वहन करने मे सक्षम हो तो क्या सेक्स उसकी जरूरत का हिस्सा नहीं बनती ? ऐसे मे कहीं कोई विकल्प तो तलाशना ही होगा ।
भारतीय समाज व आज की जीवन शैली पर थोडा गौर करें तो हम देखेंगे कि हमारे बडे महानगर दिल्ली, मुबंई व कोलकता ही नहीं कई और शहर भी रोजी रोटी के लिए लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और इन शहरों मे लाखों लोग छोटे-बडे कामों की तलाश में अपने परिवार व गांव-कस्बों को छोड आने को मजबूर दिखाई देते हैं । यह शहर उन्हें रोटी तो देता है और सडक किनारे एक झुग्गी बसाने की मोहलत भी लेकिन आर्थिक रूप से इतना सामर्थ्यवान नहीं बनाता कि वह बार बार मीलों दूर अपनी पत्नी के पास जा सके । ऐसे मे किसी विकल्प के अभाव मे उसके अपने ही आसपास या तो अवैध सबंध बनते हैं या फिर सभंव है वह् बलात्कार जैसा घिनोना काम कर बैठे ।
यहां गौरतलब यह भी है कि हमारा समाज एक तरफ ऐसे अवैध सबंधों व बलात्कार जैसे कृत्यों की तो आलोचना भी करता है और वहीं दूसरी तरफ इस मामले में किसी प्रकार की आजादी के पक्ष मे खडा होता भी नहीं दिखाई देता । यहां उसे सारी सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न भिन्न नजर आने लगती है
लेकिन दुनिया का सबसे पुराना व्यवसाय समझा जाने वाला यह देह व्यापार इस पाखंडपूर्ण सोच के बाबजूद बखूबी फल फूल रहा है । परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कानूनी वैधता के अभाव में लाखों सेक्स वर्कर एक तिरस्कारपूर्ण, उपेक्षित व घिनौनी जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं । सारे कानून उन्हें ही कटघरे मे खडा करते दिखाई देते हैं । वह न तो अपने वर्तमान से सतुष्ट है और न ही भविष्य के प्रति आशावान । घिनौनी, उपेक्षित व तिरस्कृत जिंदगी के कुचक्र मे फंसी इन सेक्स वर्करों को क्या सम्मानजनक जिंदगी जीने का अधिकार नहीं ? क्यों नहीं इनके काम को भी एक काम मान कर वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जो दूसरे व्यवसायों से जुडे कामगारों को मिलती हैं

आज तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश मे यह जरूरी हो जाता है कि देह व्यापार को कानूनी वैधता प्रदान कर सेक्स वर्करों को भी सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दिया जाए और यह तभी संभव है जब हम तमाम पूर्वाग्रहों व संस्कारगत हठधर्मिता से हट कर सेक्स को इंसान की एक अहम जरूरत के रूप में स्वीकार करें । 

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

केजरीवाल का भविष्य तय करेगा यह चुनाव


(L.S. Bisht ) दिल्ली में चुनाव का बिगुल बज उठा है । इसके साथ ही दिल्ली को फिर इंतजार है एक अदद सरकार की जो देश की राजधानी को संभाल सके । लेकिन सरकार बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है इस चुनाव मे प्रतिष्ठा का सवाल । भारतीय जनता पार्टी तमाम दावों के बाबजूद बहुमत हासिल करने में असफल रही थी । वहीं चमत्कारिक ढंग से वजूद में आई आम आदमी पार्टी ने पूरी राजनीति की तस्वीर ही बदल दी थी और 28 सीटें जीत दूसरे नम्बर की पार्टी होने का तमगा हासिल कर चर्चा का विषय बनी । देश की सबसे बडी और पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली कांग्रेस चारों खाने चित्त गिर कर बेदम सी दिखने लगी थी । लेकिन चमत्कार और राजनीतिक दांव-पेंचों के बीच अंतत: दिल्ली 49 दिन बाद फिर वहीं खडी होने को अभिशप्त हो गई जहां से चली थी ।

अब यह चुनाव एक तरफ भाजपा व मोदी जी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल है तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी व केजरीवाल को यह साबित करना है कि दिल्ली का मतदाता आज भी उसके साथ खडा है । उन्हें इन राजनीतिक अटकलों को भी गलत सिध्द करना है कि जनता का उनसे मोह भंग हो गया है और दिल्ली की गद्दी छोडना उनकी एक राजनीतिक भूल थी । वैसे यह तो समय ही बतायेगा कि दिल्ली किस पाले मे खडी होती है लेकिन इतना जरूर है कि राजनीति का अंदाज साफ संकेत दे रहा है कि यह चुनाव महज एक सरकार बनाने के लिए नहीं अपितु उससे कहीं ज्यादा प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है ।

दर-असल दिल्ली का चुनाव इस मायने मे  खास है कि यहां आम आदमी पार्टी है जिसने अपनी चुनावी राजनीति के आगाज में ही चमत्कारिक ढंग से दूसरे बडे दलों को पीछे छोड दिया था । केजरीवाल एक धूमकेतू की तरह दिल्ली मे ही नहीं राष्ट्रीय  राजनीति के  क्षितिज पर भी एक जन नायक के रूप मे उभर कर सामने आए थे । अपनी नई राजनीतिक व कार्य संस्कृति के बल पर जिस तरह आप पार्टी ने राजनीति मे आगाज किया, उसने बडे बडे राजनीतिक पंडितों को भी हैरत मे डाल दिया था ।

यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि अपने पहले ही चुनाव मे इस नई नवेली पार्टी ने दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों मे से 28 में विजय हासिल की । यही नहीं 29.49 प्रतिशत वोट प्राप्त कर अपनी लोकप्रियता भी सिध्द की । जब कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ 8 सीटें जीत कर 24.55 प्रतिशत वोट ही पा सकी थी । ऐसे मे केजरीवाल जी के झाडू का व्यवस्था विरोध का प्रतीक बन जाना स्वाभाविक ही था । लेकिन समय चक्र कुछ ऐसा घूमा कि तमाम राजनीतिक प्रपंच व दांव पेंचों के बीच केजरीवाल मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर 49 दिन बाद जन लोक्पाल बिल के सवाल पर त्याग पत्र देकर सत्ता से बाहर हो गये और दिल्ली ठगी सी रह गई ।

इसके बाद लोकसभा चुनाव मे तमाम उम्मीदों के विपरीत केजरीवाल पूरी तरह फ्लाप साबित हुए और बनारस में ताल ठोंक कर चारों खाने चित्त गिरे । अन्य राज्यों में भी उनका और पार्टी का प्रभाव नगण्य ही रहा । ऐसे मे राजनीतिक पंडितों ने उन्हें सिरे से खारिज कर दिया । दूसरी तरफ मोदी जी और भाजपा ने चुनावी इतिहास का एक नया अध्याय लिखा । इसके बाद होने वाले महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनावों में भी जीत हासिल कर अपने ' जादू ' को बरकरार  रखा । राजनीतिक पंडितों की भाषा में इसे ' मोदी जादू ' व ' मोदी लहर ' का नाम दिया गया ।

अब यह चुनाव मोदी, मोदी सरकार और भाजपा के लिए भी एक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है । भाजपा को साबित करना है कि आप पार्टी की लोकप्रियता महज कांग्रेसी कुशासन का नतीजा थी और केजरीवाल का जन-नायक बनना महज एक संयोग । दूसरी तरफ आप पार्टी व केजरीवाल जी को साबित करना है कि कम से कम दिल्ली आज भी उनकी है । यहां मोदी लहर या मोदी जादू की कोई भूमिका नही ।

यह चुनाव भाजपा के विजय रथ के आगे बढने या रूकने से ज्यादा केजरीवाल जी के लिए महत्वपूर्ण है । अगर इन चुनावों मे केजरीवाल व उनकी  पार्टी पिछ्ले प्रदर्शन को न दोहरा सकी तो बहुत संभव है कि उनका राजनीतिक भविष्य ही खतरे में पड जाए । केजरीवाल तो स्वयं हाशिए पर चले ही जायेंगे साथ में बहुत संभव है कि पार्टी बिखराव का शिकार बन अपने वजूद को ही खत्म कर दे । यानी एक तरह से यह चुनाव केजरीवाल व उनकी पार्टी के लिए महज एक चुनाव ही नही अपितु जीवन व मरण का सवाल भी बन गया है । अब देखिए होता है क्या ।   

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

केनी, तुम्हें क्या कहूं

                                               
( L.S. Bisht ) आज वह फिर उदास है । वैसे उसके चेहरे में गहरी उदासी की रेखायें देखने का मैं एक तरह से अभ्यस्त सा हो गया हूं । मुझे पता है कि उसकी जिंदगी में बसंत अब एक गुजरे दौर की याद भर रह गया है । अब अगर कुछ शेष है तो रेगिस्तान की मानिंद खामोशी जिसे उसने स्वीकार कर लिया है ।

अस्सी के दशक की केनी यानी कनुप्रिया अब कहीं खो सी गई है । लखनऊ विश्वविधालय में बिताए खूबसूरत दिनों की यादों को संजोये रखने की भी उसे कोई वजह नजर् नहीं आती । हां कुछ साहित्यिक  किताबें जिन्हें वह अक्सर हम दोस्तों से साझा किया करती थी एक कोने में धूल खा रही हैं । बीच में दो मोटी किताबें वुडवर्थ की लिखी मनोविज्ञान  विषय पर जिन्हें मैं अक्सर उससे उधार मांगा करता था अभी सही सलामत हैं । बस यही कुछ् निशानियां हैं उसके पास उस बीते दौर की जिसे वह बहुत पीछे छोड चुकी है ।

चंचल हिरनी की तरह विश्वविधालय के मनोविज्ञान ब्लाग् में कुंलाचे भरने वाली केनी अब बेदम, बेबस सी , झील के ठहरे हुए पानी की तरह बस मुझे टुकर टुकर देखती भर है । बहुत कम बोलती है । उसके पास अब शायद ही कोई आता हो । उसने अपने आपको उदासी की गहरी परतों में कैद जो कर लिया है । लेकिन मेरा आना जरूर उसे सुकून सा देता है । शायद इसलिए भी कि मैं एक्मात्र गवाह हूं उसकी उस स्वप्निल दुनिया का, सुहानी शामों और चांदनी रातों का जो कभी उसने नीरज के साथ गुजारे । सबकुछ एक फिल्म की तरह आंखों में तैरने लगता है ।

लेकिन उसके सपनों के उस राजकुमार के लिए तो प्यार मात्र एक खिलवाड था । प्यार में अपना सबकुछ न्योछावर कर देने वाली केनी की जिंदगी से विवाह के पांच साल बाद नीरज का  यूं चले जाना, उस दौर के हम दोस्तों के लिए एक आघात से कम नहीं रहा ।

परिवार से संबध प्यार के चलते पहले ही छिन्न भिन्न हो चुके थे । समय की गति ने बाकी बचे रिश्तों को भी अपने आगोश मे ले लिया । वह दुनिया में निपट अकेली रह गई और तब तक उन दिनों के दोस्त भी इधर उधर बिखर गये । नौकरी जीने का सहारा बन गई लेकिन यादों के टीसते नासूर को भुला उसने जिंदगी मे दोबारा रंग भरने की कोशिश कभी नहीं की । अपनी उदासियों और छ्ले जाने के संताप के बीच, पहाड सी जिंदगी मे अब वह एक प्रौढ महिला में तब्दील हो चुकी है ।

अब मेरा उसके पास जाना भी बहुत कम हो पाता है । सोचता हूं आखिर उसके सपनों और प्यार की यह अकाल मौत क्यों हुई । एक दोस्त के रूप में उन दिनों  नीरज हमें कभी बुरा क्यों नही लगा । लेकिन आखिर उसने ऐसा क्यों किया । एक छ्लावे भरे प्यार के लिए अपनी पूरी जिंदगी को होम कर देने वाली इस मित्र केनी को क्या कहूं ।जहां एक तरफ महिलाओं के भावनात्मक व शारीरिक शोषण को लेकर बडे बडे कानूनों व बातों की हवा बह रही हो वहीं अपने को अपने ही जीवन मूल्यों पर होम कर देना एक सवाल तो उठाता ही है कि आखिर तमाम विद्रोही स्वरों के बीच यह कैसी सोच है । यह भी संभव है कि  शायद प्यार की दुनिया है ही ऐसी कुछ चीजें कभी समझ नहीं आतीं । 

शनिवार, 1 नवंबर 2014

लुप्तप्राय: सांस्कृतिक याद – रंग-बंग


( L.S. Bisht )     हिमालय क्षेत्र की वादियों में बसे गांव सदियों से अपने में बहुत कुछ समेटे हुए हैं | एक अलग सस्कृति, लोकजीवन की अपनी लय और सपनों की अपनी विरासत | यह सांस्कृतिक विरासत अब समय के थपेडों के साथ बहुत कुछ बदलने लगी है | काफ़ी कुछ बिसरता जा रहा है | कभी यहां की घाटियां अपने इन्द्रधनुषी लोकजीवन के लिए कौतुहल का विषय हुआ करती थीं | बहुत कुछ आज भी जानना-समझना शेष है |
     आकाश छूती पर्वतश्रंखलाओं के बीच इस अंचल की ऐसी ही दो घाटियां हैं – दारमा और जोहार | यहां के लोकजीवन में बहती सांस्कृतिक धारा की अपनी लय है जिसंमें बहुत कुछ अनूठा है | इन घाटियों के वाशिंदे मूल रूप से मंगोल नस्ल के हैं तथा चेहरे तिब्बती जैसे | वैसे भी तिब्बत सीमा से जुडे रहने के कारण इनका तिब्बत से व्यापारिक संबधों का एक पुराना इतिहास है | इन्हीं सीमावर्ती लोगों को अब हम आमतौर पर ‘ भोटिया नाम से जानते हैं |
     इस समुदाय के बारे में बहुत सी बातें चर्चा मे रही हैं |यहां की महिलाओं के सौंदर्य की कहानियां तो दूर दूर तक लोगों के कौतुहल का विषय बनी हैं | अनेक कहानी-किस्सों के बीच यह भी कहा जाता है कि कभी इतिहास में यहां की एक बेहद सुंदर युवती राजुला के रूप सौंदर्य का जादू दवाराहाट के एक राजकुमार पर ऐसा छाया कि वह अपना राजपाट छोड उसके गांव आ पहुंचा और अंतत: उसे अपने साथ ले जाकर ही दम लिया |
     लेकिन यह सीमावर्ती घाटियां महज इन परिणय लोककथाओं की ही गवाह नहीं हैं अपितु एक अनोखी परंपरा भी यहां सालों साल परवान चढती रही है | युवाओं को प्रेम व काम सुख का प्रथम एहसास दिलाने की एक प्राचीन परंपरा यहां रही है और जहां किशोर-किशोरियां का पहली बार मिलन होता था उसे रंगबंग गृह के नाम से जाना जाता था | यह गांव का एक सामुहिक घर होता था जिसे गांव के लोगों दवारा ही बनवाया जाता था |
     प्रथम प्रेम के उन्मुक्त व्यवहार से जुडे इस ‘ रंग-बंग ‘ नामक गृह में आने का निमत्रंण भी गांव की किशोरियां अपने तरीके से देती थीं | बहुधा किसी ऊंचे स्थान से सफ़ेद रूमाल हिला कर युवतियां दूसरे गांव के युवकों को रंग-बंग में आने का संदेश पहुंचाया करती थीं | सूरज डूबने के साथ युवाओं की टोलियां नाचते गाते पहुंच जाया करतीं और फ़िर शुरू होती लडके लड्कियों के बीच गीत प्रतियोगिता | इसमें स्थानीय लोकगीतों का भी भरपूर इस्तेमाल होता |
     इनके नृत्य और गीतों से पूरे वातावरण में प्रेम रस घुल सा जाता और फ़िर अपने पसंद के साथी को चुन पहुंच जाते ‘ रंग-बंग ‘ के भीतर , उस दुनिया में जहां उन्मुक्त प्रेमरस में डूब बुनने लगते अपने भविष्य के सुनहले सपनें | बाद मे परिवार के बडे बुजुर्ग बातचीत कर विवाह का दिन निश्चित कर लिया करते |
     इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्र्मों का आयोजन किया जाता था | युवतियां मदिरा पान करवातीं और फ़िर मस्ती में डूब सभी जोडे संगीत और नृत्य की लय में झूमने लगते | इस अवसर पर प्रणय गीतों का समां बंध जाया करता |
     प्राचीन पुस्तकों में इस अवसर पर किये जाने वाले अनेक भोटिया नृत्यों का भी उल्लेख मिलता है | चम्फ़ोली, इडियाना तथा घुरंग आदि प्रमुख नृत्य थे | यह सभी धीमी गति के नृत्य थे जिन्हें गोलाकार रूप में किया जाता था |
     यहां युवक-युवतियों को एक तरफ़ पूरी स्वतंत्रता रहती तो दूसरी तरफ़ कुछ कानून कायदों का भी पालन करना पडता था | रंग-बंग की गतिविधियों का संचाल्न उस प्रौढा द्वारा किया जाता था जो या तो आजन्म कुंवारी रही हो अथवा जिसने गृहस्थ जीवन त्याग दिया हो | यह संचालिका कुछ विशेष सामाजिक नियमों के तहत ही मिलने का अवसर देती और फ़िर उनके विवाह रस्म की तैयारियां भी शुरू हो जाया करतीं | लडकी के घरवाले बारातियों का स्वागत करते तथा भोजन की व्यवस्था भी करते |
     इस व्यव्स्था से दाम्पत्य सूत्र में बंधने वाले युगल यदि किन्हीं कारणों से बाद में अलग होना चाहते तो इसके लिए उन्हें पूरी स्वतंत्रता रहती | बहरहाल अब ‘ रंग-बंग ‘ की यह परंपरा लगभग लुप्तप्राय: ही है | दर-असल समय के साथ लोगों ने इस प्रथा को उपयोगी नहीं समझा | शिक्षा के प्रसार ने भी लोगों का नजरिया काफ़ी बदला है | लेकिन क्भी कधार सुदूर गांवों मे “ रंग-बंग” यानी युवागृह के भवन देखने मात्र से ही लोगों को पुराने दिन याद आने लगते हैं |