मंगलवार, 1 सितंबर 2020

सपनों को सच करने का नशा


 

बहुचर्चित सुशांत सिंह राजपूत  हत्याकांड ने आज सभ्यता के ऊंचे पायदान पर खडे हमारे समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है । दर-असल अपराध के नजरिये से देखें तो इसमें ऐसा कुछ भी नही जिसे देख या सुन कर कोई बहुत ज्यादा  हैरत मे पड जाए या जो कल्पना से परे लगे । यह ह्त्याकांड इसलिए भी खास नही कि इस कहानी की नायिका एक खूबसूरत बाला रिया चक्रवर्ती है जो सिल्वर स्क्रीन की दुनिया से ताल्लुक रखती है और  न ही इसलिए कि इस ह्त्या कथा के  जाल के पीछे  एक औरत है  जिसे भारतीय समाज मे अबला समझा जाता रहा है । दर-असल इस  हत्या कांड  ने हमारे समाज के उस चेहरे को उजागर किया है जिससे हम मुंह चुराते आए हैं । ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे भी अंधेरे की एक दुनिया आबाद रह सकती है, इस सच से हम रू-ब--रू हुए ।

इंसानी जिंदगी के चटक़ और भदेस रंगों को समेटे यह ह्त्या कांड  हमे उस दुनिया मे ले जाता  है जहां सतह पर ठहाकों की गूंज सुनाई देती है और थोडा अंदर जाने पर सबकुछ पा लेने की ऐसी हवस जिसके आगे कोई नैतिक अनैतिक का बंधन नही , बस पा लेने का नशा है |   एक रंगीन, चहकती और खुशियों मे मदहोस दुनिया के अंदर की परतों मे  प्यार के नाम पर इस कदर  फ़रेब का  अंधेरा होगा, भला कैसे सोचा जा सकता है । लेकिन यह भी एक सच है, इसे रिया चक्रवती  की इस पेचीदी कहानी ने पूरी शिद्दत से सामने रखा है ।

देखा जाए तो यह कहानी सिर्फ सुशांत राजपूत  की हत्या की कहानी नही है बल्कि यह कहानी है इंसानी महत्वाकांक्षाओं, सपनों और उडानों की । एक ऐसी लडकी की कहानी जिसने जिंदगी मे सबकुछ पा लेने की होड मे एक ऐसे इंसान को अपने फ़रेबी प्यार का शिकार बनाया , जिसने शायद क्कभी ऐसा सपने मे भी न सोचा हो|  

 महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार उस लडकी ने  सपनों सरीखी इस जिंदगी को जिन मूल्यों पर हासिल किया यही इस ह्त्याकांड का सबसे भयावह सच है । प्यार की  अवधारणा पर टिके समाज को जिस तरह उसने  ठेंगा दिखा कर प्यार को ही फ़रेब का हथियार बनाया,   इसने एक बडा सवाल हमारे सामाजिक मूल्यों पर भी उठाया है । आखिर हम किस दिशा की ओर बढने लगे हैं ।

दर-असल गौर करें तो इधर उपभोक्ता संस्कृर्ति ने एक ऐसे सामाजिक परिवेश को तैयार किया है जहां हमारे परंपरागत सामाजिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हुआ है । नैतिक-अनैतिक जैसे शब्द अपना महत्व खोने लगे हैं । महत्वाकांक्षाओं और सबकुछ पा लेने की होड मे अच्छे बुरे के भेद की लकीर न सिर्फ कमजोर बल्कि खत्म सी होती दिखाई देने लगी है ..............

अभी हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो  गिरते हुए मूल्यों की हकीकत को समझा जा सकता है ।

बात यहीं तक नही है । जिंदगी मे धन, दौलत, नाम ,यश व ग्लैमर  पाने की एक ऐसी होड भी जिसमे सबकुछ लुटा कर भी पाने का दुस्साहस दिखाई दे रहा है । इस तरह देखा जाए तो बात चाहे रिया चक्रवती की  जिंदगी की हो या फिर  महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढती उन सभी की जिन्हें  कहीं न कहीं बदले हुए उन मूल्यों ने ही डसा है जिनमे रिश्ते-नातों , प्यार-मोहब्बत का कोई मूल्य नही रह जाता । भावनाएं महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ जाती हैं | जैसा कि रिया के साथ हुआ |

यह वह मूल्य हैं जो उपभोक्ता संस्कृति से उपजे हैं । और जिनका नशा सर चढ कर बोलता है और अंतत: उस मोड पर आकर खत्म हो जाता है जहां जिंदगी अपना अर्थ खो देती है । दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस अंधेरे का घेरा हमारी जिंदगी मे कसता ही जा रहा है । हम इससे मुक्त हो सकेंगे या नही, यही एक बडा सवाल है ।

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें