शनिवार, 29 नवंबर 2014

अवध की मुजरेवालियां

     

( यह फ़ीचर ‘ मुक्ता ‘ पत्रिका के फ़रबरी,1987 के अंक में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित हुआ था । लखनऊ महोत्सव के अवसर पर इसे अपने ब्लाग में पुन: प्रकाशित किया है | मुक्ता के लिए इस फ़ीचर को लिखने में जिन परेशानियों से गुजरना पड़ा उसकी एक अलग दास्तां है   )

----- बनारस की सुबह की तरह कभी लखनऊ की शाम भी मशहूर थी | लेकिन रोमानियत से भरी वह शाम अब लगभग ढ्ल चुकी है | रंगीनियों का दौर बदल चुका है | इत्र और गुलाब की महक कम हो गई है और घुंघरूओं की झंकार भी धीमी पड़ चुकी है |
     अब न वे मुजरेवालियां रहीं और न वे मुजरे | हकीकत की वह दुनिया अब लखनऊ में कहीं नहीं दिखती,सिवाय कुछ भूलती बिसरती जा रही यादों के | वे गलियां अब सूनी पडी हैं | कहीं किसी अंधेरे कोने में कुछ पुरानी सांसों को छोड कर, जिन के पास है दिलकश मुजरों की यादें और मुजरेवालियों की रंगीन दुनिया के तमाम एहसास |
     फ़ूलवाली गली, जिस में कभी पायलों की झंकार और मुजरों की सुरीली आवाजें गूंजा करती थीं, अब एक भीड़ भरी गली से ज्यादा कुछ नहीं | अब लोग जानते हैं उस चावल वाली गली को, जो मुजरों की कब्रगाह है | जहां अब राग-रागिनियों का नहीं, बल्कि जिस्म का सौदा होता है | इसके गवाह हैं आसपास टहलते, मंडराते खाकी वरदी पहने कुछ इनसानी जिस्म |
     लेकिन ऐसा नहीं है कि वे मुजरे, दिलकश आवाजें पूरी तरह इतिहास में तब्दील हो गईं, अब भी उस दुनिया के कुछ खंडहर बाकी हैं, इस उम्मीद में कि शायद फ़िर क्भी अवध के गुजरे लमहे लौट कर आ जाएं |
     “ आप भी किस जमाने की बातें कर रहे हैं हुजूर “ चावल वाली गली की अब बूढी हो चली तवायफ़ कहती है, “ अब देख रहे हैं इस गली को, पूरे लखनऊ की सबसे बदनाम गली, कौन विश्वास करेगा कि कभी यहां नवाब और रईसजादे आते थे, लेकिन वह जमाना ही दूसरा था | एक से एक आला मुजरेवाली यहां इन कोठों में रहती थीं | तहजीब इतनी कि परदेसी के मुंह से आवाज न निकले मारे शर्म के | मुजरों की मांग इतनी कि यह फ़ैसला करना मुशकिल हो जाता था कि कहां जाएं ? किस को नाराज करें और किसे खुश | धीरे-धीरे सब खत्म हो गया | अब जो रह गया है वह तो आप देख ही रहे हैं , सिर्फ़ जिस्म का सौदा |
     सच भी है अवध में मुजरा व मुजरेवालियों की जिंदगी का इतिहास बहुत पुराना है | नवाबी दौर में इसे वही सम्मान व स्थान प्राप्त था जो मुर्गबाजी, कबूरतरबाजी, बटेरबाजी व पतंगबाजी को था |
     सही अर्थों मे अवध की नृत्यकला को जो शोहरत हासिल हुई, वह यहां की नाचने गानेवाली वेश्याओं के कारण ही मिली | पूरे देश में यहां की नर्तकियों का कोई सानी नहीं था | बताते हैं ल्खनऊ की तवायफ़ गौहरबाई ने अवध के बाहर दूर-दूर तक बहुत नाम कमाया | नजाकत व प्रणय का भाव जैसे यहां की नर्तकियां अभिव्यक्त करती थीं, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं था |
     शाम ढलते ही चौक की फ़ूलवाली गली में दिलकश तानें सुनाई देने लगती थीं | नफ़ीस कड़ाई में सजेधजे कुरते पहने, हाथों में गजरा लपेटे और मुंह में सुगंधित पान दबाए लोग कोठों में जमा होने लगते | रात होते-होते पूरी गली दिलकश बोलों और झंकारों से गूंजने लगती | रात में बहुत देर तक मुजरे होते रहते | लेकिन मजाल कि कोई गंदी हरकत कर ले | सिर्फ़ पैरों की थिरकन व आवाज का सौदा होता |
     दलालों (भडुओं) की भी अपनी शान थी | वे कुर्ता-पायजामा पहने, आंखों में सुरमा लगाए, दिन भर घूमा करते थे | बडे अदब से पेश आते थे | एक ही नजर में भांप लेते कि यह हुजूर मुजरे के शौकीन हैं और सही कोठा तलाश रहे हैं | बस सलाम करते और इतनी अदब से बात करते कि आखिर उन्हें इनके कहने पर इनके बताए कोठे पर ही जाना पडता |
     अवध का वह नवाबी दौर खत्म हुआ और उसी के साथ अवध की वह तहजीब भी खत्म होने लगी | मुजरेवालियों की दुनिया में साल-दर-साल अंधेरों का घेरा कसता गया | अब अपने को तवायफ़ बताने का मतलब है अपने को एक गाली देना | अब मुजरेवालियों की सोहबत शान व प्रतिष्ठा की बात नहीं बल्कि चरित्रहीनता समझी जाने लगी है |
     आर्थिक दबावों व बदलती संस्कृति ने मुजरेवालियों को वेश्यावृत्ति के गड्ढे मे धकेल दिया | भडुओं की भी वह शान नही रही | उन्हें अब जिंदा जिस्म का दलाल समझ कर हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है | उस जमाने के कुछ भडुआ परिवारों ने तो मजबूरन जिंदगी के दूसरे रास्ते खोज लिए | मुजरों को संगीत में बांधने वाले साजिदों की हालत और भी बदतर है | पुराने लखनऊ में ऐसे बहुत से उजडे साजिंदे अब महज दिन काट रहे हैं |
     नाम न छापने के अनुरोध के साथ कुछ तवायफ़ों ने अवध की इस कला पर लंबी बातचीत की | कभी जगमगाते आबाद कोठों से लेकर अब दड्बेनुमा कोठरियों में गुंडों, दलालों व ग्राहकों के बीच कैद तिलमिलाती जिंदगी की परत-दर-परत दास्तान बताती हैं कुछ गए जमाने की तवायफ़ें और मौजूदा व्यवस्था की भंवर में फ़ंसी वेश्याएं |
     अब बदहाली मे दिन काट रही बूढी तवायफ़ बताती है “ उस जमाने के रईसजादे सलामत रहें, क्या लखनऊ बसाया था उन्होने | अब ठीक से तो याद नहीं,सुना था नवाब शुजाउद्दोला ने तवायफ़ों को बहुत सहारा दिया था | उनके बाद मुजरों की महफ़िल मे आना अमीरों का शौक ही बन गया था | उस समय भी कहा जाता था कि जब तक आदमी को वेश्याओं की सोहबत हासिल न हो, वह सही इन्सान नहीं बन सकता | हमारे देखे की बात है, क्या तमीजदारी थी उन तवायफ़ों में | आदमी एक बार बात कर ले तो गुलाम हो जाए | एक साहब थे हकीम मेंहदी | वह नवाब के मंत्रियों मे बहुत लायक समझे जाते थे | उन्हें इस ऊंचाई तक पहुंचाने मे उस समय की एक तवायफ़ प्याजू ने बहुत कुछ किया | बताते हैं अपनी दौलत भी उसने उनके कदमों पर रख दी | ऐसी मुहब्बत थी उनमें |
     चावल वाली गली की एक अंधेरी कोठरी में दयनीय जिंदगी जी रही वेश्या ने बताया “ लखनऊ में शेर ओ शायरी की महफ़िलें और गोष्ठियां हर  छोटे-बडे मुहल्ले में हुआ करती थीं | इनमें शरीफ़ व रईस लोग शामिल् होते थे | कुछ ऐसी तवायफ़ें भी थीं जो अपनी शालीनता व तहजीब के लिए दूर-दूर तक जानी जाती थीं | उनके यहां भी गोष्ठियां होती थीं और लोगों को वहां जाने मे शर्म या संकोच महसूस नहीं होता था | एक ऐसी तवायफ़ थी हैदरजान | उसके यहां नाच-रंग की महफ़िलों और गोष्ठियों का आयोजन होता था | बडे बडे अमीर वहां जाते थे | नसीमबानों और मेहरून्निसा नाम की तवायफ़ें भी अपनी तमीजदारी व खातिरदारी के लिए जानी जाती थीं | अब कहां रहीं वह तहजीब | उस जमाने की ज्यादातर तवायफ़ें तो आज नहीं रहीं | कुछ ने जिस्मफ़रोशी का धंधा अख्तियार कर लिया और थोडी बहुत बनारस चली गईं | नई लडकियां हैं, जिस्म बेचती हैं | तहजीब और अदब की समझ कहां ?
     यह दास्तां है गए जमाने की और अवध की उस कला की जो दम तोड रही है | मुजरों की जगह है बेसुरी आवाज और जिस्मफ़रोशी | लेकिन यह सब यकायक नही हुआ | जमाना बदला तो तहजीब बदली, लोग बदले और रूचियां बदलीं | एक तरफ़ आर्थिक दवाब बढे तो दूसरी तरफ़ कला की कद्र कम हुई | मजबूरी ने उन्हें वेश्यावृत्ति के दलद्ल मे ध्केल दिया | कुछ ने पेट भरने कि लिए दूसरे रास्ते खोज लिए और कुछ गुमनामी के अंधेरों में खो गईं | आज भी चौक, नक्खास, हुसैनाबाद,चौपटिया और ठाकुरगंज में कुछ गुमनाम आवाजें दम तोड रही हैं |
     अब फ़ूलवाली गली इतिहास में दर्ज होकर रह गई है | चावलवाली गली पर वेश्यावृत्ति का काला धब्बा लग चुका है | लेकिन वेश्यओं को यहां भी ठिकाना नहीं | उनके बसने व उजडने का सिलसिला बरसों से चल्र रहा है | आज लखनऊ और आसपास के जिलों के तमाम इक्के-तांगे वाले अपने को नवाबी खानदान से जुडा बताते हैं और कुछ समय के लिए ही सही उनका सिर गर्व से ऊपर उठ जाता है | लेकिन शायद ही कोई वेश्या अपने को मुजरेवाली बताने का साहस कर सके | इस स्थिति के लिए काफ़ी हद तक हमारी व्यवस्था भी जिम्मेदार रही है | राजे-रजवाडों को पेंशन दी गई | उन्हें बसाया गया लेकिन इन्हें किसी ने नही पूछा | यह तवायफ़ें सिर्फ़  इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गईं |

     

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