रविवार, 9 नवंबर 2014

देह व्यापार को कानूनी वैधता का सवाल

( L. S. Bisht ) भारत मेँ देह व्यापार को एक कानूनी दर्जा देने का मुद्दा उस जिन्न के समान है जो वैसे तो बोतल मे ही बंद रहता है लेकिन यदा कदा ढ्क्कन खोल कर उसे निकालने की कमजोर कोशिश मेँ फिर बंद कर दिया जाता है । उच्चतम न्यायालय मेँ यह मामला एक बार चर्चा मे है । दर-असल 2010 में एक जनहित याचिका में देह व्यापार से जुडी महिलाओँ के पुनर्वास की व्यवस्था करने की मांग उठाई गई थी । इसी सिलसिले में एक पैनल का गठन किया गया है जिसे उन सभी बिंदुओं पर विचार करना है जिनसे वेश्याएं एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें ।
देह व्यापार के दलदल में फंसी सेक्स वर्कर के काम को भी कानूनी दर्जा दिए जाने की वकालत महिला आयोग की अध्यक्षा ने एक प्रस्ताव मे किया है जिस पर गठित पैनल को विचार करना है । लेकिन जैसी की उम्मीद थी इस प्रस्ताव के विरोध में खडे होने वाले झंडाबरदारों की भी कमी नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ इस घृणित व्यवसाय से जुडी वेश्याएं एक स्वर से यह मांग उठाती रही हैं कि उनके काम को भी वैधता प्रदान कर एक व्यवसाय के रूप मे देखा जाए ।
जनवरी में कोलकता मे आयोजित सम्मेलन में देशभर की सेक्स वर्कर ने घृणित समझे जाने वाले अपने इस काम की तमाम समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था और सरकार से इसे कानूनी मान्यता देने की पुरजोर वकालत की थी । उनका मानना है कि दूसरे अन्य व्यवसायों से जुडे कामगारों की तरह उन्हें भी सरकार कुछ सुविधाएं उपलब्ध कराए ।
बहरहाल यह तो समय बताऐगा कि सेक्स वर्कर के सबंध में क्या कुछ किया जा सकेगा लेकिन इतना तय है कि भारत जैसे देश में इस मुद्दे पर उदार फैसले का मतलब मधुमक्खियों के छ्त्ते को छेडने के समान है । दर-असल इस मामले मे भारतीय समाज में एक पाखंडपूर्ण व्यवहार दिखाई देता है । जो एक तरफ तो पश्चिमी संस्कृति की न सिर्फ वकालत करता है अपितु उसे नि:संकोच अपनाने मे भी कोई गुरेज नहीं । वह सामाजिक जीवन में खुलेपन के पक्ष में खडा दिखाई देता है जहां पहनावे से लेकर व्यवहार तक मे किसी भी तरह का बधंन उसे रूढिवादी सोच का परिचायक लगता है । उसे माल संस्कृति से लेकर फैशन शो और इंटननेट पर खुली छूट आधुनिकता के मापदंड प्रतीत होते हैं । लेकिन सेक्स के मामले में उसकी सोच को लकवा मार जाता है और वह उस पर परदेदारी के पक्ष में ही खडा दिखाई देता है ।
आधुनिक होते समाज मे वह आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि सेक्स इंसान की उतनी ही बडी जरूरत है जितना कि उसके लिए भोजन और पानी । यहां पर उसकी सोच विवाह से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है । इसके अलग सोचने को वह कतई तैयार नहीं । आज जबकि जिंदगी कहीं ज्यादा जटिल हो गई है और जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति विवाह बधंन से जुडी जिम्मेदारियों को वहन करने मे सक्षम हो तो क्या सेक्स उसकी जरूरत का हिस्सा नहीं बनती ? ऐसे मे कहीं कोई विकल्प तो तलाशना ही होगा ।
भारतीय समाज व आज की जीवन शैली पर थोडा गौर करें तो हम देखेंगे कि हमारे बडे महानगर दिल्ली, मुबंई व कोलकता ही नहीं कई और शहर भी रोजी रोटी के लिए लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और इन शहरों मे लाखों लोग छोटे-बडे कामों की तलाश में अपने परिवार व गांव-कस्बों को छोड आने को मजबूर दिखाई देते हैं । यह शहर उन्हें रोटी तो देता है और सडक किनारे एक झुग्गी बसाने की मोहलत भी लेकिन आर्थिक रूप से इतना सामर्थ्यवान नहीं बनाता कि वह बार बार मीलों दूर अपनी पत्नी के पास जा सके । ऐसे मे किसी विकल्प के अभाव मे उसके अपने ही आसपास या तो अवैध सबंध बनते हैं या फिर सभंव है वह् बलात्कार जैसा घिनोना काम कर बैठे ।
यहां गौरतलब यह भी है कि हमारा समाज एक तरफ ऐसे अवैध सबंधों व बलात्कार जैसे कृत्यों की तो आलोचना भी करता है और वहीं दूसरी तरफ इस मामले में किसी प्रकार की आजादी के पक्ष मे खडा होता भी नहीं दिखाई देता । यहां उसे सारी सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न भिन्न नजर आने लगती है
लेकिन दुनिया का सबसे पुराना व्यवसाय समझा जाने वाला यह देह व्यापार इस पाखंडपूर्ण सोच के बाबजूद बखूबी फल फूल रहा है । परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कानूनी वैधता के अभाव में लाखों सेक्स वर्कर एक तिरस्कारपूर्ण, उपेक्षित व घिनौनी जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं । सारे कानून उन्हें ही कटघरे मे खडा करते दिखाई देते हैं । वह न तो अपने वर्तमान से सतुष्ट है और न ही भविष्य के प्रति आशावान । घिनौनी, उपेक्षित व तिरस्कृत जिंदगी के कुचक्र मे फंसी इन सेक्स वर्करों को क्या सम्मानजनक जिंदगी जीने का अधिकार नहीं ? क्यों नहीं इनके काम को भी एक काम मान कर वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जो दूसरे व्यवसायों से जुडे कामगारों को मिलती हैं

आज तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश मे यह जरूरी हो जाता है कि देह व्यापार को कानूनी वैधता प्रदान कर सेक्स वर्करों को भी सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दिया जाए और यह तभी संभव है जब हम तमाम पूर्वाग्रहों व संस्कारगत हठधर्मिता से हट कर सेक्स को इंसान की एक अहम जरूरत के रूप में स्वीकार करें । 

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