(L.S. Bisht ) दिल्ली में चुनाव का बिगुल बज उठा है । इसके साथ ही दिल्ली को फिर इंतजार है एक अदद सरकार की जो देश की राजधानी को संभाल सके । लेकिन सरकार बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है इस चुनाव मे प्रतिष्ठा का सवाल । भारतीय जनता पार्टी तमाम दावों के बाबजूद बहुमत हासिल करने में असफल रही थी । वहीं चमत्कारिक ढंग से वजूद में आई आम आदमी पार्टी ने पूरी राजनीति की तस्वीर ही बदल दी थी और 28 सीटें जीत दूसरे नम्बर की पार्टी होने का तमगा हासिल कर चर्चा का विषय बनी । देश की सबसे बडी और पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली कांग्रेस चारों खाने चित्त गिर कर बेदम सी दिखने लगी थी । लेकिन चमत्कार और राजनीतिक दांव-पेंचों के बीच अंतत: दिल्ली 49 दिन बाद फिर वहीं खडी होने को अभिशप्त हो गई जहां से चली थी ।
अब यह चुनाव एक तरफ भाजपा व मोदी जी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल है तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी व केजरीवाल को यह साबित करना है कि दिल्ली का मतदाता आज भी उसके साथ खडा है । उन्हें इन राजनीतिक अटकलों को भी गलत सिध्द करना है कि जनता का उनसे मोह भंग हो गया है और दिल्ली की गद्दी छोडना उनकी एक राजनीतिक भूल थी । वैसे यह तो समय ही बतायेगा कि दिल्ली किस पाले मे खडी होती है लेकिन इतना जरूर है कि राजनीति का अंदाज साफ संकेत दे रहा है कि यह चुनाव महज एक सरकार बनाने के लिए नहीं अपितु उससे कहीं ज्यादा प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है ।
दर-असल दिल्ली का चुनाव इस मायने मे खास है कि यहां आम आदमी पार्टी है जिसने अपनी चुनावी राजनीति के आगाज में ही चमत्कारिक ढंग से दूसरे बडे दलों को पीछे छोड दिया था । केजरीवाल एक धूमकेतू की तरह दिल्ली मे ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर भी एक जन नायक के रूप मे उभर कर सामने आए थे । अपनी नई राजनीतिक व कार्य संस्कृति के बल पर जिस तरह आप पार्टी ने राजनीति मे आगाज किया, उसने बडे बडे राजनीतिक पंडितों को भी हैरत मे डाल दिया था ।
यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि अपने पहले ही चुनाव मे इस नई नवेली पार्टी ने दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों मे से 28 में विजय हासिल की । यही नहीं 29.49 प्रतिशत वोट प्राप्त कर अपनी लोकप्रियता भी सिध्द की । जब कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ 8 सीटें जीत कर 24.55 प्रतिशत वोट ही पा सकी थी । ऐसे मे केजरीवाल जी के झाडू का व्यवस्था विरोध का प्रतीक बन जाना स्वाभाविक ही था । लेकिन समय चक्र कुछ ऐसा घूमा कि तमाम राजनीतिक प्रपंच व दांव पेंचों के बीच केजरीवाल मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर 49 दिन बाद जन लोक्पाल बिल के सवाल पर त्याग पत्र देकर सत्ता से बाहर हो गये और दिल्ली ठगी सी रह गई ।
इसके बाद लोकसभा चुनाव मे तमाम उम्मीदों के विपरीत केजरीवाल पूरी तरह फ्लाप साबित हुए और बनारस में ताल ठोंक कर चारों खाने चित्त गिरे । अन्य राज्यों में भी उनका और पार्टी का प्रभाव नगण्य ही रहा । ऐसे मे राजनीतिक पंडितों ने उन्हें सिरे से खारिज कर दिया । दूसरी तरफ मोदी जी और भाजपा ने चुनावी इतिहास का एक नया अध्याय लिखा । इसके बाद होने वाले महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनावों में भी जीत हासिल कर अपने ' जादू ' को बरकरार रखा । राजनीतिक पंडितों की भाषा में इसे ' मोदी जादू ' व ' मोदी लहर ' का नाम दिया गया ।
अब यह चुनाव मोदी, मोदी सरकार और भाजपा के लिए भी एक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है । भाजपा को साबित करना है कि आप पार्टी की लोकप्रियता महज कांग्रेसी कुशासन का नतीजा थी और केजरीवाल का जन-नायक बनना महज एक संयोग । दूसरी तरफ आप पार्टी व केजरीवाल जी को साबित करना है कि कम से कम दिल्ली आज भी उनकी है । यहां मोदी लहर या मोदी जादू की कोई भूमिका नही ।
यह चुनाव भाजपा के विजय रथ के आगे बढने या रूकने से ज्यादा केजरीवाल जी के लिए महत्वपूर्ण है । अगर इन चुनावों मे केजरीवाल व उनकी पार्टी पिछ्ले प्रदर्शन को न दोहरा सकी तो बहुत संभव है कि उनका राजनीतिक भविष्य ही खतरे में पड जाए । केजरीवाल तो स्वयं हाशिए पर चले ही जायेंगे साथ में बहुत संभव है कि पार्टी बिखराव का शिकार बन अपने वजूद को ही खत्म कर दे । यानी एक तरह से यह चुनाव केजरीवाल व उनकी पार्टी के लिए महज एक चुनाव ही नही अपितु जीवन व मरण का सवाल भी बन गया है । अब देखिए होता है क्या ।
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