पत्रकारिता
चाहे वह प्रिंट मीडिया की हो
या फिर टी.वी.
न्यूज चैनल
की, उसका
यह नैतिक दायित्व है कि वह
समाज से जुडी खबरों को संतुलित
तरीके से पेश करे तथा सच को
सामने लाने का प्रयास करे ।
लेकिन इधर कुछ समय से न्यूज
चैनल पत्रकारिता का एक अलग
ही चेहरा सामने आया है । जिसे
देख कर ऐसा तो कतई नहीं लगता
कि इन्हें सकारात्मक जनमत
बनाने के अपने नैतिक दायित्व
का तनिक भी बोध है ।
महिलाओं
से जुडे मुद्दों पर जिस तरह
की पत्रकारिता कुछ चैनलों मे
की जा रही है उसे देख कर तो लगता
है कि इनका मुख्य उद्देश्य
या तो अपनी टी.आर.पी.
बढाना है या
फिर हवा के साथ बहते हुए वाही
वाही बटोरनी है । 11 नवम्बर
को एक न्यूज चैनल ने अपने
कार्यक्रम में जिस तरह से एक
साधारण खबर का तिल का ताड बनाया
उसने सोचने को मजबूर कर दिया
कि आखिर यह कैसी टी.वी.पत्रकारिता
है ।
महिला
संबधी खबरों का पक्षधर होना
गलत नहीं लेकिन अर्थ का अनर्थ
निकाल कर अपने को पक्षधर साबित
करना कहीं से भी उचित प्रतीत
नहीं होता । अपनी खबर मे उस
प्रतिष्ठित चैनल ने बताया कि
जम्मू-कश्मीर
के चुनावों के लिए भरे जाने
वाले नामांकन में एक विधायक
ने ' लाइबिलीटी
' कालम
मे अपनी दो अविवाहित बेटियों
के होने का उल्लेख किया है ।
खबरों मे इस बात की निंदा की
गई यह कहते हुए कि विधायक अपनी
बेटियों को अपने लिए भार समझते
हैं । ऐसा लिखना महिलाओं का
अपमान है । यानी उन्हें महिला
विरोधी करार दे दिया गया ।
यहां
गौर करने वाली बात यह है कि उन
विधायक ने लाइबिलीटी के कालम
मे यह लिख कर कोई गलती नही की
थी । दर-असल
इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है
' जिम्मेदारियां
' । यहां
समझने वाली बात यह है कि एक
पिता के लिए अपनी दो बेटियों
का विवाह करवाना क्या एक
जिम्मेदारी नही है । उनके लिए
उचित वर की तलाश करना और फिर
विवाह समारोह का खर्च पिता
की जिम्मेदारी नही तो किसकी
क्या है । यही नही सरकारी कागजों
मे सरकारी कर्मचारी '
लाइबिलीटी '
के कालम मे ऐसा
लिखते हैं । विशेष रूप से किसी
कर्मचारी की सेवाकाल मे होने
वाली मृत्यु पर उसके आश्रितों
को निर्धारित प्रपत्र पर इस
सूचना का भी उल्लेख करना होता
है कि मृत्यु समय मरने वाले
की लाइबिलीटी कितनी थी । यही
नही, आम
बोलचाल की भाषा मे रिटायर्मेंट
के समय बहुधा यह कहा जाता है
कि " अभी
एक बेटी की शादी की लाइबिलीटी
बची है और बेटे को भी कहीं सेटल
करना है " ।
ऐसे मे विधायक का कथन किस नजरिये
से गलत हो गया ।
ऐसा
पहली बार नहीं । अक्सर महिलाओं
से जुडी खबरों को इसी अंदाज
मे परोसा जाने लगा है । बात का
बतगंढ कर बना कर अपने को महिलाओं
का हितैषी बताने की पुरजोर
कोशिश की जाती है । सामाजिक
जीवन की छोटी छोटी खबरों को
भी महिलाओं के सम्मान और अस्मिता
से जोड कर प्रचारित करना एक
चलन या फैश्न सा बना दिया गया
है । ऐसे मे खबरों का इस तरह
से प्रस्तुतीकरण एक वर्ग के
लिए नकारात्मक परिवेश की जमीन
भी तैयार करता है । लेकिन अपने
को महिला पक्षधर साबित करने
का नशा कुछ इस कदर हावी है कि
इसके साइड इफेक्ट दिखाई नही
दे रहे ।
एक
सीमा से अधिक अंध भक्ति से
महिलाओं का हित नही अपितु अहित
ही होगा । अभी हाल मे दिल्ली
और कुछ दूसरे स्थानों पर "
किस आफ लव "
जैसे अश्लील
प्रदर्शनों ने यह साबित भी
कर दिया है । पत्रकारिता का
तो यह पहला दायित्व है कि खबरों
को संतुलित तरीके से पेश किया
जाए न कि सनसनीखेज बना कर,
जैसा कि किया
जा रहा है ।खबरों की दुनिया
में यह चुहा दौड कब रूकेगी,
पता नहीं ।
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