( L.S. Bisht ) - सर्द मौसम अब अपनी बुलंदी पर है | सुबह,
दोपहर और रात का हर लम्हा तारीख-दर-तारीख अपने मे कुछ और ठंड समेटे आगे बढ़ रहा है
| बढ्ती इस ठंड के साथ दूरदर्शन का छोटा पर्दा समाचारों के अंत में बडे रोचक ढंग
से न्यूनतम तापमान की जानकारी भी दे रहा है | कुछ न्यूज चैनल तो मानो ठंड का लाइव
टेलीकास्ट कर रहे हों | परंतु इन सब के बाबजूद ठंड से हो रही मौतों का सिलसिला
जारी है ।
ठंड से बेजान हो रहे जिस्म सिर्फ़ इस बार की
कहानी नही हैं, बल्कि हर साल इसी तरह इसी मौसम में यह ठंड सैकडों लोगों के जिस्म
को बेजान कर देती है | इन अकाल मौतों की सबसे बडी त्रासदी तो यह है कि यह कभी भी
सरकारी स्तर पर कोई महत्वपूर्ण खबर या हादसा नहीं बनती और इसी तरह इन ठंडी मौतों
का सिलसिला साल-दर-साल जारी रहता है |
यह मौतें जब सरकारी कागजों मे जगह नही पातीं
तो आंकडा भी नही बनतीं फ़िर भी यदि अखबारों की कतरनों को ही इन हादसों का गवाह
मानें तो स्थिति कुछ समझ में आती है | ठंड के इस प्रकोप का सबसे अधिक शिकार बनता
है उत्तर भारत | अब तक यहां इससे 100 से अधिक मौतें हो चुकी हैं | देश की राजधानी
कही जाने वली दिल्ली मे भी अब तक चार लोग इस जानलेवा ठंड के शिकार बन चुके हैं |
उत्तर प्रदेश मे इस ठंड ने अपना कहर मुख्यत: पूर्वाचंल क्षेत्रों मे बरपाया है
जिनमे जौनपुर, मिर्जापुर, भदोही, बनारस, चंदोली, कानपुर व गाजीपुर बुरी तरह
प्रभावित हैं | यहां न्यूनतम तापमान 2 से 4 डिग्री के बीच ही हिचकोले खा रहा है |
कहीं कहीं तो यह जमाव बिंदु के आसपास रेंगने लगा है |
उत्तर प्रदेश ही नही बल्कि राजस्थान,
पंजाब-हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, मध्यप्रदेश, दिल्ली और उत्तराखंड मे हर साल
इसके कहर से लोग अकाल मृत्यु के ग्रास बनने को अभिशप्त हैं | 2012 व 2013 के
सरकारी आंकडें बेशक बहुत डरावने न हों लेकिन यह आंकडे सच के गवाह भी नही होते | और
जब होने वाली मौतें अनाम हों, तब इन आंकडों की सच्चाई की विश्वसनीयता स्वत: कम हो
जाती है |
`यदि हम इस पहलू को मानवीय नजर से देखें तो
पता लगता है कि मौसम विशेष में अखबारों के किसी कोने मे छ्पने वाली ये खबरें
बार-बार छ्पने के बाद अपना संवेदन एक तरह से खो देती हैं | इन्हें हर दो-एक दिन के
अंतराल पर पढना एक सामान्य खबर को पढने जैसा हो जाता है | परिणामस्वरूप यह पाठकों
के मन-मस्तिक को कचोट नही पातीं | दूसरी तरफ़ यदि हम इस त्रासदी को सरकारी नजरिये
से देखें तो यहां हमें एक अलग तस्वीर दिखाई देती है | जब जब इस तरह की घटनाएं पत्रों
मे छ्पती हैं, सरकार इन्हें “ ठंड से मौत “ का लबादा पहना किनारे हो जाती है |
यह सच है कि मौतें ठंड से होती हैं, परंतु
क्या मात्र ठंड ही इसका एक मात्र कारण बनती है ? यदि ठंड को कटघरे मे खडा कर दिया
जाए तो देश के बाकी करोडों लोगों के जिस्म को य्ह ठंड क्यों नही बेजान जिस्म मे
बद्ल पाती ?
इसके साथ ही इस संदर्भ मे यह तथ्य भी कम
मह्त्वपूर्ण नही कि इन मौतों का साया पूरे प्रदेश मे नही बल्कि देश के अपेक्षाकृत
कुछ पिछ्डे हिस्सों मे ही पडता है | यदि ह्म इन हिस्सों पर केंद्रित हो पड़ताल
करें तो पता चलता है कि यहां भी एक वर्ग विशेष ही इसका शिकार बनता है | सवाल उठता
है कि समाज का यह वर्ग ही क्यों इस दुख से अभिश्प्त है |
सच तो यह है कि जिन मौतों को ठंड से हुई
मौतों का जामा पहना दिया जाता है, उसके पीछे कई महत्वपूर्ण कारण होते हैं | इन
कारणों को जानने का प्रयास सरकारी स्तर पर शायद ही कभी हुआ हो | यहां तो ठंड ही
एक्मात्र मुजरिम के रूप मे खडी दिखती है | अगर दुनिया के भौगोलिक परिवेश को देखें
तो पता च्लता है कि दुनिया के कई देश इससे भी कहीं ज्यादा ठंड का प्रकोप झेलते हैं
लेकिन वहां कोई मौत नही होती | सवाल उठता है आखिर ऐसा क्यों | दर-असल सच्चाई तो यह
है कि यह मौतें ठंड से नही बल्कि भूख से होती हैं और यह भूख उन पर कहर बरपाती हैं
जो जीवन की न्यूनतम आवश्यक्ताओं से भी वंचित हैं | यानि रोटी, कपडा और मकान जिनके
लिए आज भी एक बडा सपना बना हुआ है
ठंड की मार वस्तुत: इन्हीं खाली पेटों पर
पडती है और फ़िर तथाकथित ठंड से मौत का बैनर इन्हीं अकाल मौतों पर लगा कर चुप्पी
साध ली जाती है | पेट मे भोजन न हो परंतु शरीर मे पर्याप्त कपडे व सर पर छ्त होने
पर भी ठंड से लडने की बात एक बार सोची जा स्कती है परंतु यहां भी इस वर्ग के बेबस लोगों के पास
कपडों के नाम पर चंद चिथडे व छ्त के नाम पर नीला आकाश दिखाई देता है | जीने की
लालसा मे अगर यह कहीं झुग्गी बना भी लें तो भी यहां इनकी स्थिति “ नभ की छ्त ,
दीवारें कांपती हवाओं की, सावन के पंखहीन तोते हैं लोग यहां “ जैसी होती है | हवा
का एक झोंका भी इन्हें पानी मे भीगने या धूप मे तपने को मजबूर कर देता है |
इस तरह खाली पेट, तार तार हुए कपडे पहने ,
खुले आकाश की छ्त के नीचे रहने वाले ये इंसान कब तक मौत से जूझ सकते हैं, इस्की
कल्पना की जा सकती है |
इस तरह मात्र ठंड का सरकारी तर्क या तो
बुध्दि से हीन प्र्शासकों का सतही नजरिया है अथवा प्र्शासनिक मशीनरी की एक धूर्त
चाल, जो येनकेन अपना दामन बचाना अपना पहला कर्तव्य मानती है | हाशिये पर पडे लोगों
के जीवन की शर्मनाक हालातों को वह इन मौतों के लिए जिम्मेदार नही मानती या फ़िर नही
मानना चाहती | अंतत: सवाल उठता है कि एक वर्ग विशेष के साथ ही ऐसा क्यों ? दर-असल
इसके पीछे है हमारी विकास की गलत नीतियां जो इस तरह से बनाई गई कि उनका लाभ उच्च व
मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहा | समाज का एक बडा वर्ग इन विकास नीतियों से अछूता ही
रहा | आज ठंड की मार इसी वर्ग पर पडती है |
ऐसा नही है कि हर साल ठंड से होने वाली इन
मौतों को सीमित नही किया जा स्कता |
दर-असल यहां भी ठोस नीति व दूरदर्शिता का अभाव साफ़ दिखाई देता है | इन मौतों मे एक
बडा हिस्सा उन लोगों का है जो या तो बेघर हैं या फ़िर रहने की उचित व्यवस्था नही
जिससे वह ठंड के प्रकोप से बच सकें | ऐसे लोगों के लिए रैन बसेरों की व्यवस्था
सबसे आसान व उचित कदम है | लेकिन देश मे बेघर लोगों के लिए इनका नितांत अभाव है |
इनकी संख्या आसानी से बढाई जा सकती है | इसके अलावा ऐसे मौसम मे वैकल्पिक व्यवस्था
जहां अलाव या हीटर की सुविधा हो की जानी चाहिए लेकिन कभी इस दिशा मे सोचा ही नही
जाता |
योजना आयोग ने भी रैन बसेरों की आवश्यकता पर विशेष
बल दिया है | आयोग के एक द्स्तावेज के अनुसार देश के 12 शहरों मे रैन बसेरों की
आवश्यक्ता प्रतिवर्ष बढ रही है | इसमें कोलकता, मुंबई, दिल्ली, चैन्नई, बंगलूरू,
अहमदाबाद, हैदराबद, कानपुर, नागपुर , पुणे और लखनऊ हैं | कुछ शहरों ने पहल की है
लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है | यह सच है कि कम्बल बांट लेने या फ़िर अलाव
जला देने मात्र से यह समस्या हल नही होने वाली | इसके लिए दीर्घकालीन व ठोस
प्रयासों की आवश्यकता है | अब जरूरी है कि मौसम की मार से होने वाली इन मौतों पर
सरकार उपेक्षित रवैया न अपनाए । यह हर साल की कहानी है और इंसानी जिंदगी का सवाल ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें