मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

सवालों के घेरे में सरकारी कार्य संस्कृति


 ( एल.एस. बिष्ट ) - देशभक्ति की चाश्नी में डूबी हिंदी फिल्मों की दुनिया से बाहर निकल कर देखें तो देश की एक अलग ही तस्वीर नजर आती है । विकास की सीढीयां चढता यह देश भ्रष्टाचार के मामले में भी कम उन्नति नही कर रहा और इसीलिए भ्र्ष्ट देशों की सूची मे हम काफी ऊपर पायदान में खडे हैं ।
अभी हाल में पैर पसारता यह भ्र्ष्टाचार फिर चर्चा व चिंता का विषय बना । यकायक यह पता चला कि कुछ मंत्रालयों से गोपनीय और महत्वपूर्ण जानकारियां बाहर भेजी जाती हैं । इस सबंध मे दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय मे एक रैकेट का पर्दाफाश किया है । अभी तक मंत्रालय के कुछ कर्मचारियों सहित 12 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है । इन लोगों ने गोपनीय दस्तावेज 5-6 बडी कंपनियों को बेचे थे । गिरफ्तार लोगों मे इन कंपनियों के कुछ बडे अधिकारी भी शामिल हैं ।
अब धीरे धीरे यह भी पता चल रहा है कि इस काम को कुछ अन्य मंत्रालयों मे भी किया जाता रहा है । इसमे कोयला व उर्जा जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय शामिल हैं । एक पत्रकार शांतनु सैकिया भी कानून की गिरफ्त मे हैं । इन्हें इस साजिश की एक महत्वपूर्ण कडी माना जा रहा है ।
देखा जाए तो यह कोई ऐसा धमाका नही है जो पहली बार हुआ हो। इस तरह की बातें जब तब चर्चा मे आती रहीं हैं । लेकिन जैसा अक्सर होता है कुछ समय बाद सबकुछ भुला दिया जाता है । 2012 यू.पी.ए सरकार मे रक्षा मंत्री रहे ए.के.एंटनी के कार्यालय मे जासूसी किये जाने की बातें चर्चा में आई थीं । इसके बाद 2013 मे वित्त मंत्री अरूण जेटली के फोन टेपिंग का मामला भी गर्म हुआ था लेकिन समय के साथ सब भुला दिया गया । पिछ्ले वर्ष ही जुलाई मे नितिन गडकरी के घर जासूसी के कुछ उपकरण मिलने की खबर ने सनसनी पैदा की थी । अगर थोडा पीछे देखें तो मुरली देवडा के कार्यकाल मे भी पेट्रोलियम मंत्रालय मे सूचनाएं लीक किए जाने की बात कही गई थी ।
दर-असल इस तरह की बातों को कभी गंभीरता से लिया ही नही गया । अब जब कि देश आर्थिक क्षेत्र के एक नये युग मे प्रवेश कर रहा है इन चीजों का महत्व समझ मे आने लगा है। जिस तरह से यह काम सुनियोजित तरीके से किया जाता रहा है, इससे आभास होता है कि इसकी जडें बहुत पुरानी व गहरी हैं ।
यहां गौरतलब यह है कि देश के सभी नीतिगत फैसले मंत्रालयों मे ही लिए जाते हैं और इन फैसलों से कई प्रकार के लोगों और संस्थाओं का हित जुडा होता है । अगर लिए जा रहे फैसलों की जानकारी समय रहते प्राप्त हो जाए तो इनसे बडा लाभ लिया जा सकता है या फिर संभावित नुकसान से बचा जा सकता है । देश के निजी क्षेत्रों की कंपनियों के हित इन फैसलों से सीधे जुडे होते हैं । इन्हें प्राप्त करने का यह हर संभव प्रयास भी करते हैं । यह पर्दाफाश इस प्रयास की ही एक कडी है ।
सरकारी कार्यालयों व मंत्रालयों के अंदर से इस प्रकार की महत्वपूर्ण सूचनाएं बडे ही नियोजित तरीके से प्राप्त की जाती रही हैं । इसके लिए कंसल्टेंसी एजेंसी बना कर और महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त कर कंपनियों को उपलब्ध किया जाता रहा है । यह सूचनाएं मंत्रालय के छोटे कर्मचारियों को पैसे देकर प्राप्त की जाती हैं । यह लोग पैसे के लालच मे पत्रों व टिप्पणियों की फोटोकापी करके इन्हें उपलब्ध कराते हैं । फिर इन्हें बडी कंपनियों को भारी रकम लेकर बेच दिया जाता है ।
गौरतलब यह भी है कि अगर मंत्रालय या फिर किसी भी सरकारी कार्यालय की कार्यशैली को देखें तो यह काम मुश्किल भी नही लगता । चूंकि अभी तक सभी काम फाइलों के माध्यम से होता रहा है इसलिए दस्तावेज को पढना व उसकी कापी करना मुश्किल काम भी नही । फैसले संबधित टिप्पणियां फाइल की नोटशीट मे ही दर्ज की जाती हैं इसलिए ऐसे मे छोटे कर्मचारियों की मिलीभगत से इन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता है ।
इस मामले मे कानूनी कार्यवाही सरकारी गोपनीय एक्ट ( आफिसियल सीक्रेट एक्ट ) के तहत ही होनी है जिसमें काफी सख्त प्राविधान हैं । यहां तक कि इस एक्ट मे मुकदमा उस स्थिति मे भी चलाया जा सकता है जब किसी व्यक्ति विशेष की नियत देश के हितों को नुकसान पहुंचाने की न भी रही हो । इस एक्ट के तहत मजिस्ट्रेट को विशेष अधिकार प्राप्त हैं । इसमें यह भी प्रावधान है कि अगर कोई कंपनी दोषी पाई जाती है तो कंपनी के प्रबंध तंत्र से जुडे प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि बोर्ड आफ डाइरेक्टरस को भी सजा हो सकती है । इस एक्ट के तहत 3 साल से 14 साल तक की सजा का प्राविधान है ।
लेकिन ऊपरी तौर पर यह कानून जितना सख्त नजर आता है उतना ही इसमे विरोधाभास भी है । सूचना के अधिकार कानून 2005 से इसका सीधा टकराव है । सूचना अधिकार् के तहत् कई सरकारी सूचनाएं सार्वजनिक की जानी चाहिए लेकिन यह एक्ट इन्हें 'गोपनीय' मानता है । जून 2002 मे पत्रकार इफ्तकार गिलानी को इसी आफिसियल सीक्रेट एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था । तब इस पर बडी चर्चा हुई थी । लेकिन अंतत: इस मामले मे परस्पर विरोधाभासी राय मिलने के कारण सरकार को मामला वापस लेना पडा था । सेना की रिपोर्ट मे उन सूचनाओं को ' गोपनीय ' नही माना गया । इस सबंध मे दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि सिर्फ ' सीक्रेट ' का लेबल लगा देने से पत्रकार को इसका दोषी करार नही दिया जा सकता ।
बहरहाल सरकारी गोपनीय कानून मे कई किंतु परंतु हैं । यह भी सच है कि कई बार इस कानून की आड मे आम नागरिकों को जरूरी सूचनाएं भी उपलब्ध नही कराई जाती हैं । यहां यह भी गौरतलब है कि सरकारी कार्यालयों मे भ्र्ष्टाचार रोकने के लिए सर्तकता आयोग भी है जिसका मुख्य कार्य भ्रष्टाचार पर रोक लगाना है । इसके लिए प्र्त्येक सरकारी कार्यालय मे एक सर्तकता अधिकारी की नियुक्ति भी की जाती है लेकिन यह एक औपचारिक्ता मात्र बन कर रह गया है । इसका लाभ भी भ्र्ष्ट कर्मचारियों व अधिकारियों को मिलता है ।

बहरहाल, अब जब कि बात सतह मे आ गई है इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए । मामला पूरी तरह से दस्तावेजों की चोरी, जासूसी और बडे व्यापारिक घरानों को लाभ पहुंचाने का है । इससे तो देश की बजट प्रकिया भी प्रभावित होने की शंका पैदा हो गई है जो एक गंभीर बात है । इसलिए जरूरी है कि इस मामले की तह पर जाकर दोषी लोगों को सख्त सजा दी जाए । इसके साथ ही सरकारी कार्यालयों की कार्य शैली को बदला जाए तथा काम व गोपनीयता के प्रति इन्हें जिम्मेदार बनाया जाए । परम्परागत फाइल व्यवस्था के स्थान पर कम्प्यूटर कार्य संस्कृति को विकसित करके उसे भी तकनीकी तौर पर सुरक्षित बनाया जाना जरूरी है जिससे कोई भी व्यक्ति वहां रहने का अनुचित लाभ न उठा सके ।  

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