( एल.एस.बिष्ट ) - भारत
विजय के लिए निकला भाजपा का
यह चमत्कारिक रथ आखिर रूक ही
गया । वैसे तो राजनीति मे जीत
और हार सिक्के के दो पहलू हैं
लेकिन दिल्ली चुनाव की यह हार
अपने आप मे कुछ अलग जरूर है ।
नौ माह पहले प्रचंड बहुमत से
विजयी भाजपा इस कदर चुनावी
मैदान मे चारों खाने चित्त
गिरेगी, किसी
ने सोचा भी नही था । लेकिन ऐसा
हुआ और दिल्ली इसकी जीती जागती
गवाह बनी । गौरतलब यह है कि इस
ऐतिहासिक चुनावी जीत का सेहरा
उस इंसान के सर पर बंधा जिसे
दो राष्ट्रीय दलों के मजबूत
प्रचार तंत्र ने हाशिए पर डाल
दिया था ।
सपनों
सी यह विजयी कहानी न सिर्फ
अदभुद है बल्कि चमत्कारिक भी
। कौन कह सकता था कि सिर्फ नौ
माह पहले आम चुनाव मे परास्त
, पस्त
एक नव नवेली राजनीतिक पार्टी
इस कदर दिल्ली का मन मोह लेगी
और चुनावी इतिहास मे एक ऐसी
जीत दर्ज करेगी जिसे शायद भुला
पाना मुश्किल होगा । बडे बडे
राजनीतिक पंडित अपनी पोथियां
बांचते रहे लेकिन दिल्ली के
दिल मे क्या था, समझने
मे नाकाम रहे । ऐसा इंसान जिसे
भगोडा, नौटंकीबाज,
नक्सली,
देशद्रोही और
न जाने कितने विशेषणों से
विभुषित किया गया जीत की ऐसी
कहानी लिख सकेगा, किसी
को उम्मीद न थी । लेकिन उस इंसान
ने अकल्पनीय इतिहास लिखा और
लोगों ने उस इतिहास को बनते
देखा ।
चुनावी
विजय की यह कहानी भाजपा और
कांग्रेस दोनो के लिए एक हादसे
से कम नहीं । लेकिन यह आज का
सच है कि दिल्ली ने दोनो राष्ट्रीय
दलों को सिरे से नकार दिया ।
वैसे कांग्रेस के डूबते जहाज
के लिए यह हार ताबूद मे एक और
कील साबित हुई लेकिन भाजपा व
मोदी सरकार के लिए इस हार के
मायने कुछ अलग हैं।
उत्साह
और उम्मीदों से भरी भाजपा के
लिए यह चुनावी जंग एक ऐसा घाव
दे गई जिस पर अभी काफी समय तक
सोचा जाता रहेगा । लेकिन सतही
तौर पर जो दिखाई दे रहा है वह
भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं
। आश्चर्य होना स्वाभाविक ही
है कि राजनैतिक कौशल के लिए
जाने जानी वाली इस राष्ट्रीय
दल के बडे बडे पंडित चुनावी
गणित मे आखिर कैसे फेल हो गये
। केजरीवाल के त्याग पत्र से
उपजे अनुकूल राजनैतिक माहौल
को भांपने मे चूक कैसे हो गई
। दिल्ली मे केजरीवाल के सत्ता
पलायन से उपजे आक्रोश का लाभ
भाजपा के पंडितों को क्यों
नही दिखाई दिया और जब चुनावी
रण्भेरी बजाई तब तक केजरीवाल
दिल्लीवासियों के आहत दिल पर
मलहम लगा चुके थे । जमीन मे
पडे यौध्दा को उठने के लिए
इतना समय प्रर्याप्त था । गलत
समय का चुनाव करना अंतत:
ऐतिहासिक हार
का कारण बना ।
यही
नही, मोदी
और अमित साह के लिऐ गये फैसले
घातक सिध्द हुए । जो किरन बेदी
कल तक पूरी राजनीतिक संस्कृति
और नेताओं की खिल्ली उडा रही
थी उसे न सिर्फ दल मे शामिल
किया बल्कि मुख्यमंत्री पद
के लिए घोषित भी कर दिया
और
वह भी दिल्ली ईकाइ के नेताओं
के सम्मान और प्रतिष्ठा की
कीमत पर । पैराशूट से उतारी
गई किरन बेदी को भाजपा के जमीनी
कार्यकर्ता स्वीकार करने को
कतई तैयार नही थे लेकिन यह
फैसला था मोदी और अमित साह का
, जो घातक
सिध्द हुआ । हंटरवाली छवि का
भी नुक्सान उठाना पडा । किरन
बेदी के स्थान पर किसी और का
नाम संभवत: इतनी
बडी हार को न्योता न देता ।
बात यही तक नही रही । शाजिया
इल्मी और बिन्नी जैसे लोगों
को दल मे शामिल कर एक और गलती
कर डाली । यानी दूसरे दलों के
अवसरवादी लोगों के लिए दल का
दरवाजा खोलना भी हार का कारण
बना ।
मोदी
जी के राजनैतिक कौशल मे भी कुछ
चूकें रही हैं । गणतंत्र दिवस
के अवसर पर दिल्ली के पूर्व
मुख्यमंत्री को न बुलाना भी
दिल्लीवासियों को अच्छा नही
लगा । यह एक ऐसा देश है जहां
खुशी के अवसर पर दुश्मन को भी
न्योता देने की परंपरा रही
है । इससे लोगों मे केजरीवाल
के प्रति सहानुभूति का जागना
स्वाभाविक ही था । इसके अतिरिक्त
केजरीवाल के लिए स्वयं मोदी
जी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल
किया वह भी दिल्ली के लोगों
को पसंद नही आया । यानी नकारात्मक
प्रचार ने रही सही कसर पूरी
कर दी । यह अतिवादी प्रतिक्रियाएं
दर-असल
' केजरी
फोबिया ' का
परिणाम थीं जिससे बचा जाना
चाहिए था ।
मुस्लिम
वोटों का एकजुट होना और लडाई
मे कांग्रेस का बेहद कमजोर
रह्ना भी आप पार्टी के पक्ष
मे ही गया । दर-असल
भाजपा के राजनैतिक पंडित इसे
त्रिकोणीय या चतुष्कोरणीय
लडाई न बना सके । यहीं पर कौशल
की जरूरत थी जिसमे चूक हुई और
सीधी लडाई मे हार का मुंह देखना
पडा ।
बहरहाल
लडाई खत्म हो चुकी है और दिल्ली
ने दिल खोल कर आप पार्टी तथा
केजरीवाल जी को अपना समर्थन
दिया है । इस दल की अलग राजनैतिक
संस्कृर्ति की दिशा और दशा
क्या होगी , यह
तो समय के गर्भ मे है लेकिन
इतना अवश्य है कि अब देश मे आम
आदमी की राजनैतिक सोच बदलने
लगी है और वह वादों को हकीकत
मे बदलता देखना चाहता है ।
दिल्ली वालों से किए गये वादे
और उन्हें दिखाई गई सपनों की
दुनिया हकीकत मे कितना तब्दील
हो पाती है इस पर ही केजरीवाल
और उनकी आप पार्टी का भविष्य
निर्भर है । लेकिन भाजपा और
मोदी जी को भी फिर से चिंतन
करने की जरूरत है । अगर इस
चुनाव् की हार से कुछ न सीखा
गया तो निकट भविष्य मे राज्यों
मे होने वाले चुनाव राजनैतिक
हादसों की कहानी लिखेंगे ।
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