( एल.एस. बिष्ट ) - अनेक पौराणिक धार्मिक मान्यताओं से जुडी होली भारतीय मन मे जैसा उछाह भरती है, कोई दूसरा पर्व नही भरता । दशहरा, दीपावली जैसे कई त्यौहारों वाले इस देश में होली का एक अपना अलग रंग है । होली यानी रंगो का यह पर्व एक तरह से पूरे समाज को एक सूत्र मे बांधने वाला पर्व भी है । ऐसा जनोल्लास किसी दूसरे अवसर पर नही दिखता ।
होली का यह पर्व पूरे समाज को प्रेम रस मे डूबो कर एक रंग कर देता है । जिस तरह वसंत अपनी सुंदरता चारों तरफ बिखेर सभी को आनंदित करता है, ठीक उसी प्रकार होली अपने रंग मे सभी को डूबो एक सूत्र मे बांधती है । होली का रंग सबसे जीवंत और अलग है । रीतिकालीन कवियों ने तो न जाने कितनी स्याही इस रंग भरे त्यौहार के वर्णन मे उडेल दी है ।
साहित्य के साथ ही गायन और नृत्य मे भी इसके रंग हैं । होली पर आधारित ठुमरियां और भजन आज भी आनंदित करते हैं । रंगों के इस पर्व को सही अभिव्यक्ति तो लोकगीतों मे ही मिली है । ब्रज और अवधी के लोकगीतों ने तो होली वर्णन मे अदभुत प्रसिध्दि पाई है । बुंदेलखंडी लोकगीतों मे भी होली खेलने का बडा मनोहारी चित्रण मिलता है । फागुन मे तो बुंदेलखंडी महिलाओं के समझ मे जो आता है, वही गाती हैं । नैनों की कटारी चलने लगती है, तो नायिका उलाहना देती है -
कटारी काहे मारे, राजा मोरे
पहली कटारी मोरे घुंघटा पे मारी
घुंघट खुल गए रे, राजा मोरे ।
नृत्यों मे कत्थक और मणिपुर नृत्यों मे इसकी अलग अलग छ्टाएं हैं , अलग अलग रूप हैं । कत्थक मे तो होली का ही रंग है । इसके सारे स्त्रोत ही कृष्ण लीलाओं और काव्य से आए हैं । और फिर कृष्ण , होली और रास इस कदर एक दूसरे से जुडे हैं कि इनके साथ सीधे इन अवसरों से जुडे ब्रज के उत्सवों की याद आती है ।
होली का यह लोकपर्व साहित्य मे हर काल मे इन्द्र्धनुषी रंगों से सरोबार रहा है । कवि नजीर ने होली के जरिए लोक तत्व की सफल अभिव्यक्ति दी है -
नजीर होली का मौसम जो जग मे आता है,
वो ऐसा कौन है, होली नही मनाता है ।
नजीर अट्ठारवीं सदी के कवि थे । हिंदुओं के साथ मुसलमान भी होली के रंग मे भीग टोलियां बना नाचते गाते थे । आम जन की इस होली का बडा ही सटीक वर्णन नजीर की काव्य रचनाओं मे मिलता है ।
अभी न होगा मेरा अंत,
अभी अभी ही तो आया है,
मेरे जीवन मे मृदुल वसंत ।
यह कहने वाले महाकवि निराला की रचनाओं मे वसंत बार बार लौटता है ।
वास्तव मे सभी बंधनों से मुक्त है होली । हमारी सभ्यता, रीति-रिवाजों और लोक लाज के तमाम बंधनों के कारण हमें उन्मुक्त अभिव्यक्ति के अवसर कम ही मिलते हैं । साल भर की कुंठाओं से मुक्ति दिलाता है होली का यह् त्यौहार । मदिरा, भांग, ढोल-मजीरा और मौज मस्ती मे बह जाता है सब कचरा । लोक उत्सव की इस रसधारा मे पूरी तरह डूब कर तभी तो गोपियां सारे लोक बधंनों को तोड एकाकार हो जाती हैं और कह उठती हैं -
हे श्याम, भुजाओं मे भर लो,
लो आज मैं तुम्हारी हो गई ।
वस्तुत: ऋतु पर्व के रूप मे मनाया जाने वाला यह फागुनी पर्व जन जन को आनंद से भर देता है । वन-प्रांतरों मे प्रकृति की मनमोहक छ्टा राग रंग की लालसा जगाती है । इसीलिए तो प्राचींनकाल से ही यह लोकपर्व मदन महोत्सव के रूप मे लोकमानस पर छा जाता है ।
बहरहाल, रोज कोई न कोई उत्सव मनाने वाले इस देश मे होली के अनेक रूप और अनेक कथाएं हो सकती हैं, परंतु किसी भी रूप मे यह एक मात्र उत्सव नहीं बल्कि लोकजीवन की आनंदमयी धारा है । जिसमें सब मिल कर एकाकार हो जाता है ।
एल.एस.बिष्ट, 11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ-16
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