इंतजार की भी एक सीमा होती है । अनंतकाल तक कोई किसी के लिए इंतजार नही करता और न ही किसी चीज के लिए । लेकिन लगता है वादी के वाशिंदों के लिए अपने घर की वापसी एक सपना बन कर रह गई है ।
साल-दर-साल नाउम्मीदी के बादल गहराते जा रहे हैं । भारतीय राजनीति का चरित्र देखिए तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण व जातीय मकडजाल के मोह से ऊपर उठ कर सोचने की कोई उम्मीद दिखाई नही देती ।कभी किसी अखलाक तक तो कभी किसी रोहित वेमुला तक ही सीमित रह जाती है सारी राजनीतिक चिंताएं और सरोकार । बडी बडी घोषणाओं और वादों के सब्जबाग हमेशा हरे रहें इसलिए तल्ख सच्चाईयों से मुंह फेरने की बेशर्म कोशिशें जारी हैं । क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है ।
थोडा पीछे देखें तो घाटी मे कभी कश्मीरी पंडितों का भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ । उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।
इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।
शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं
दर्द की दरिया बने वादी की जिंदगी को देख बरबस याद आते हैं कवि हरि ओम पंवार - मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ........
कश्मीर है जहां देश की धडकन रोती है
संविधान की जहां तीन सौ सत्तर अडचन होती है
कश्मीर है जहां दरिंदों की मनमानी चलती है
घर घर मे ए.के. छ्प्पन की राम कहानी चलती है
कश्मीर है जहां हमारा राष्ट्र्गान शर्मिंदा है
भारत मां को गाली देकर भी खलनायक जिंदा है ।
गूंगा बहरापन ओढे सिंहासन है
लूले लंगडे संकल्पों का शासन है
फूलों का आंगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है
मैं इस कोढी कायरता की लाश उठाने निकला हूं
मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ।
लेकिन इंसानों की मौतों और जलते आशियानों पर राजनीति की रोटियां सेंकने वाले कभी बेघर जिंदगी के दर्द को भी समझ पायेंगे, पता नही । सरकारें बदलती हैं । कसमें-वादों की नई पोटलियां खुलती हैं । उम्मीदें जगने लगती हैं । लेकिन फिर सबकुछ कहां विलीन हो जाता है, पता नही ।
राष्ट्र्वाद व हिंदुत्व की धारा कब और क्यों घाटी तक पहुंचते पहुंचते दम तोडने लगती है, पता नही । लेकिन इतना जरूर है कि इन बेघर, बेबस लाचार लोगों की आने वाली पीढियों को इसका जवाब हमारे हुक्मरानों को देना ही होगा । यह भ्रम न रहे कि दर्द और पीडा की कोई आवाज नही होती । सच तो यह है कि यह खामोशी के साथ समय के सीने मे दफन हो जाती हैं और फिर समय आने पर सवाल उठाती हैं । यह सवाल राजनीति मे आने वाली नश्लों को शर्मिंदा न करें , इसके प्र्यास किये जाने चाहिए ।
साल-दर-साल नाउम्मीदी के बादल गहराते जा रहे हैं । भारतीय राजनीति का चरित्र देखिए तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण व जातीय मकडजाल के मोह से ऊपर उठ कर सोचने की कोई उम्मीद दिखाई नही देती ।कभी किसी अखलाक तक तो कभी किसी रोहित वेमुला तक ही सीमित रह जाती है सारी राजनीतिक चिंताएं और सरोकार । बडी बडी घोषणाओं और वादों के सब्जबाग हमेशा हरे रहें इसलिए तल्ख सच्चाईयों से मुंह फेरने की बेशर्म कोशिशें जारी हैं । क्या यह कम अचरज की बात नही कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन व उनके नरसंहार को पूरी तरह नजर-अंदाज किया जा रहा है ।
थोडा पीछे देखें तो घाटी मे कभी कश्मीरी पंडितों का भी समय था । डोगरा शासनकाल मे घाटी की कुल आबादी मे इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 14 से 15 तक था लेकिन बाद मे 1948 के मुस्लिम दंगों के समय एक बडी संख्या यहां से पलायन करने को मजबूर हो गई । फिर भी 1981 तक यहां इनकी संख्या 5 % तक रही । लेकिन फिर आंतकवाद के चलते 1990 से इनका घाटी से बडी संख्या मे पलायन हुआ । उस पीढी के लोग आज भी 19 जनवरी 1990 की तारीख को भूले नही हैं जब मस्जिदों से घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं और वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर घाटी छोड कर चले जाएं अन्यथा सभी की हत्या कर दी जायेगी । कश्मीरी मुस्लिमों को निर्देश दिये गये कि वह कश्मीरी पंडितों के मकानों की पहचान कर लें जिससे या तो उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सके या फिर उनकी हत्या । इसके चलते बडी संख्या मे इनका घाटी से पलायन हुआ । जो रह गये उनकी या तो ह्त्या कर दी गई या फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पडा ।
इसके बाद यह लोग बेघर हो देश के तमाम हिस्सों मे बिखर गये । अधिकांश ने दिल्ली या फिर जम्मू के शिविरों मे रहना बेहतर समझा । इस समय देश मे 62,000 रजिस्टर्ड विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं । इनमे लगभग 40,000 विस्थापित परिवार जम्मू मे रह रहे हैं और 19,338 दिल्ली मे । लगभग 1,995 परिवार देश के दूसरे हिस्सों मे भी अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं ।
शरणार्थी शिविरों मे तमाम परेशानियों के बीच इनकी एक नई पीढी भी अब सामने आ गई है और वह जिन्होने अपनी आंखों से उस बर्बादी के मंजर को देखा था आज बूढे हो चले हैं । लेकिन उनकी आंखों मे आज भी अपने घर वापसी के सपने हैं जिन्हें वह अपने जीते जी पूरा होता देखना चाहते हैं
दर्द की दरिया बने वादी की जिंदगी को देख बरबस याद आते हैं कवि हरि ओम पंवार - मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ........
कश्मीर है जहां देश की धडकन रोती है
संविधान की जहां तीन सौ सत्तर अडचन होती है
कश्मीर है जहां दरिंदों की मनमानी चलती है
घर घर मे ए.के. छ्प्पन की राम कहानी चलती है
कश्मीर है जहां हमारा राष्ट्र्गान शर्मिंदा है
भारत मां को गाली देकर भी खलनायक जिंदा है ।
गूंगा बहरापन ओढे सिंहासन है
लूले लंगडे संकल्पों का शासन है
फूलों का आंगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है
मैं इस कोढी कायरता की लाश उठाने निकला हूं
मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं ।
लेकिन इंसानों की मौतों और जलते आशियानों पर राजनीति की रोटियां सेंकने वाले कभी बेघर जिंदगी के दर्द को भी समझ पायेंगे, पता नही । सरकारें बदलती हैं । कसमें-वादों की नई पोटलियां खुलती हैं । उम्मीदें जगने लगती हैं । लेकिन फिर सबकुछ कहां विलीन हो जाता है, पता नही ।
राष्ट्र्वाद व हिंदुत्व की धारा कब और क्यों घाटी तक पहुंचते पहुंचते दम तोडने लगती है, पता नही । लेकिन इतना जरूर है कि इन बेघर, बेबस लाचार लोगों की आने वाली पीढियों को इसका जवाब हमारे हुक्मरानों को देना ही होगा । यह भ्रम न रहे कि दर्द और पीडा की कोई आवाज नही होती । सच तो यह है कि यह खामोशी के साथ समय के सीने मे दफन हो जाती हैं और फिर समय आने पर सवाल उठाती हैं । यह सवाल राजनीति मे आने वाली नश्लों को शर्मिंदा न करें , इसके प्र्यास किये जाने चाहिए ।
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