कभी मान-मर्यादा, शान-ओ-शौकत का प्रतीक हुक्का बदली रूचियों में उपेक्षा का शिकार हो कर रह गया है । गांव की चौपालों से लेकर दरबारों तक इसकी अपनी शान थी । जहां एक तरफ आम आदमी के बीच यह मेलजोल का माध्यम बना वहीं राजा-रजवाडों और नवाबों की ठसक का प्रतीक भी ।
इसका महत्व इस बात से ही लग जाता है कि यदि किन्हीं कारणों से किसी व्यक्ति को समाज से बाहर करना हो तो उसका हुक्का पानी बंद कर दिया जाता था । वैसे आज भी यह प्रथा खत्म नहीं हुई है । यह दीगर बात है कि अब न हुक्के रहे और न ही उसका लुत्फ उठाने वाले, बस कहावत रह गई ।
वैसे तो तंबाकू या नशा का चलन किसी न किसी रूप में हमेशा रहा है । लेकिन जहां तक हुक्के के चलन का सवाल है इसकी शुरूआत मध्यकाल से मानी जाती है । कहा जाता है कि अकबर के शासंनकाल में सबसे पहले हुक्का पीने की शुरूआत हुई थी । कुछ विवरणों से पता चलता है कि इसकी खोज हकीम लुकमान ने की थी । उन्होने पहले पहल प्रयोग में आने वाली चिलम में एक नली जोडी और उसे पानी से भरे एक पात्र से जोड दिया । इसे ही फर्शी कहा गया । इस फर्शी से एक दूसरी नली को जोडा । इससे ही धुंआ खींचा जाने लगा । यह धुंआ चूंकि पानी से गुजर कर आया इसलिए इसमें तंबाकू की कडवाहट न थी ।
बहरहाल हुक्के की इस शुरूआत के बाद धीरे धीरे यह इतना लोकप्रिय हो गया कि नवाबी दौ की तहजीब का एक हिस्सा बन गया । लखनऊ के हुक्कों तथा यहां तैयार किए गये तंबाकू की एक अलग पहचान बनी । यही नहीं, बल्कि हुक्का पिलाने वाले साकी और उनसे जुडे दिलचस्प किस्से इस शहर की सरजमी से ही जुडे हैं । हुक्का और हुक्केदारी की यह तहजीब अपने आप में अनोखी थी ।
जहां तक नवाबी तहजीब के इस शहर में हुक्कों के चलन का सवाल है, यहां तांबे, पीतल और फूल व जस्ता के हुक्कों के अलावा मिट्टी के खूबसूरत हुक्कों का भी उपयोग किया जाता रहा । इनके पूर्व तक यहां चिलमों का बोलबाला था । कई आकार-प्रकार की चिलमें उपयोग मे लाई जाती थीं । लेकिन हुक्के की ईजाद होने पर चिलमों का चलन धीरे-धीरे खत्म हो गया ।
मिट्टी के हल्के और खूबसूरत हुक्कों के साथ ही यहां का बना तंबाकू भी दूर-दूर तक जाना जाता था । यहां के बने तंबाकू की पूरे देश में अपनी अलग पहचान थी । आज भी यहां अलग किस्म से बना तंबाकू दूर-दूर तक जाता है । बेशक अब मांग उतनी नही रही ।
दर-असल तंबाकू की कडवाहट को दूर करने के लिए उसे शीरे में मिला लेने के तरीके की शुरूआत यहीं से हुई । लेकिन लखनऊ ने तो इससे भी आगे बढ कर ऐसा खुशबूदार तंबाकू तैयार किया कि एक्बारगी पीने वाले यह विश्वास ही नही कर सके कि तंबाकू जैसी चीज को भी इतना खुशबूदार बनाया जा सकता है । चंदन का बुरादा, इत्र, लौंग, इलाइची, केसर आदि को सही ढंग से तंबाकू में मिलाया जाता था । इसका धुंआ इतना खुशबूदार होता कि कमरा खुशबू से भर जाया करता । न पीने वाला भी एकाध कश लेने को मचल उठता था ।
हालांकि हुक्का आम आदमी की जिंदगी से जुडा हुआ था फिर भी सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्तर के अनुसार इसके आकार-प्रकार व डिजाइन में अंतर साफ तौर पर दिखाई देता । ऊंचे ओहदे वाले या राजदरबार से जुडे लोगों के हुक्कें में कीमती धातुओं की नक्कासी भी होती और हुक्के की चिलम को ढंकने के लिए जालीदार सरपोश भी ।
मौसम के हिसाब से भी यहां के हुक्के लाजवाब हैं । यहां की मिट्टी से बने हुक्कों की तासीर ठंडी होती है । बहुत अधिक गर्मी महसूस होने पर हुक्के की नली पर ख्सखस भी लपेट दिया जाता था । चूंकि हुक्का मूल रूप से राजे-रजवाडों, नवाबों, जमींदारों और अमीरों की शान का प्रतीक भी रहा इसलिए हुक्के की चिलम भरने कि लिए चिलमी भी होते जिन्हें चिलम भरने की पूरी जानकारी होती । यह चिलमी हुक्के की चिलम भरने की ही रोटी खाते थे ।
हुक्कों के पीने पिलाने से एक वर्ग जुडा था जिंनका काम लोगों को हुक्का पिला कर जो मिला उससे अपना जीवकोपार्जन करना था । इन्हें साकी कहा जाता था । लेकिन इनकी संख्या बहुत सीमित ही रही । हुक्का पीने-पिलाने की लखनऊ मे कुछ दुकानें भी थीं । यहां बैठने की अच्छी व्यवस्था रहती । लोग आते और हुक्के का लुत्फ उठा कर जो मुनासिब समझते दे जाते । अब यह परंपरा पूरी तरह खत्म हो चुकी है । बताया जाता है कि हुक्का पिलाने का यह रिवाज दिल्ली से लखनऊ आया । वहां तो साकी इतनी बडी नली लेकर चलते कि मकान की पहली मंजिल में ही बैठ कर पीने का लुत्फ उठाया जा सके । बहरहाल यह परंपरा अब इतिहास मे दफन हो गई है ।
बहरहाल गांव की चौपालों से लेकर नवाबों, अमीरों और रजवाडों की मान-मर्यादा तथा समृध्दि का प्रतीक हुक्का धीरे धीरे बंद होने की कगार पर खडा है । वैसे उत्तर् प्रदेश, हरियाणा, बिहार, उत्तराखंड् व राजस्थान जैसे राज्यों के गांबों में पुरानी पीढी के लोग बेशक इसके आज भी शौकीन हैं लेकिन तेजी से बदल रहे जमाने में यह कब तक जिंदा रह सकेगा, कह पाना मुश्किल है । अब तो तंबाकू के शौकीन बीडी या सिगरेट के कश लेकर अपनी तलब बुझा लेते हैं । कुल मिला कर हुक्के की गुडगुडाहट बदले वक्त की बदली रूचियों की शिकार हो संकट के दौर से गुजर रही है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें