गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

चुनावी बिसात मे क्या मोहरा बनती है नौकरशाही

              

( एल. एस. बिष्ट )  एक विवाद या दूसरे शब्दों मे एक कलंक जो हमारी नौकरशाही पर स्थायी रूप से लग चुका है वह है आम चुनावों मे सत्तारूढ पार्टी द्रारा नौकरशाही के दुरूपयोग का । या दूसरे शब्दों मे कहें तो नौकरशाही का पार्टी विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण रवैया । इसमे कितनी सच्चाई^ है यह तो पता नही, लेकिन प्रत्येक आम चुनाव मे यह बहस व चर्चा का विषय जरूर बनता है ।

     वैसे तो चुनाव प्रक्रिया शुरू होने पर चुनाव आयोग चुनावी आचार संहिता लागू कर देता है लेकिन  हमारे राजनेता दो कदम आगे चल कर कुछ दिन पूर्व ही व्यापक स्तर पर उच्चाधिकारियों के स्थानांतरण कर अपने को एक ‘सुविधाजनक’ स्थिति मे लाने का प्रयास जरूर करते हैं यह दीगर बात है कि चुनाव आयोग इन तबादलों पर भी अक्सर चुनाव होने तक रोक लगा देता है । सरकारी तंत्र मे चुनाव के ठीक पहले की यह हलचल कोई^ नई^ बात नही है । यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर इस तंत्र के चुनाव मे उपयोग या दुरूपयोग की कोई^ गुंजाइश नही तो फ़िर यह कवायद करने का प्रयास क्यों ।

     अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव मे नौकरशाही तंत्र को अपने हित मे ‘उपयोग’ किया जा सकता है ? या फ़िर यह सिर्फ़ राजनेताओं की खुशफ़हमी है । और अगर ऐसा है भी तो क्या यह तंत्र वास्तव मे राजनीतिज्ञों के आगे इतना बेबस है कि विरोध भी नही कर सकता या फ़िर आपसे गठजोड के समीकरण से यह तंत्र इस बदनुमे दाग के लगने पर भी प्रशन्न है | इन सवालों के उत्तर खोजने के लिए हमें इस तंत्र के स्वरूप व चरित्र को कुछ पीछे जाकर समझना होगा |

     प्रशासनिक सेवा की शुरूआत अंग्रेजी शासन की देन है | चयन व काम लेने का तरीका चाहे जैसा भी हो, अंग्रेजी शासन की सबसे बडी उपलब्धी रही देश में कड़ा प्रशासन | दोषी व्यक्ति को छोडा नही जाता था | इस प्रशासनिक सख्ती का डर सभी को था | देश को स्वतंत्रता मिली तथा प्रशासनिक ढांचे को बदलने की जरूरत महसूस नहीं की गई^ | कुछ वर्षों तक या यूं कहें जब तक सत्ता में पुरानी पीढी काबिज रही तब तक सबकुछ कायदे कानून के अनुसार चलता रहा | परन्तु नेहरू युग मे ही भ्रष्टाचार के कुछ मामले आए जिनमें मंत्री और अफ़सरान दोनो शामिल थे | धीरे धीरे आजादी के आंदोलन से जुडी पीढी हाशिए मे आने लगी और जोड तोड़ तथा धन बल के सहारे राजनीतिज्ञों की नई^ खेप संसद व विधानसभाओं में पहुंचने लगी | नेता व अफ़सर की सांठ गांठ का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ | राजनीती मे भ्रष्ट होने की धारणा को पनपने का अवसर भी यहीं से मिला | उसके बाद तो यह प्रवत्ति जोर पकड्ती गई^ | 
 
   
  1967 के आम चुनाव में किसी दल को भी स्पष्ट बहुमत न मिल पाने से साझा सरकार बनी | सांझे की हंडिया की कम उम्र का एहसास सभी को था | अत: कम से कम समय में अधिक से अधिक फ़ायदा उठाने की प्रवत्ति विकसित हुई^ और इसके परिणामस्वरूप प्रशासनिक तंत्र को अपने सत्ता स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करने की एक नई^ परम्परा की शुरूआत हुई^|

     नौकरशाही को भी इसमें अपने हित नजर आए | मंत्रियों की मेहरबानियों की बैसाखी के सहारे आगे बढ्ने का लोभ यह तंत्र संवरण न कर सका और इस तरह राजनीति व नौकरशाही का एक गठजोड बना | इस धारा के विरूध्द चलने वाले अफ़सरानों को सजा बतौर तबादले के आदेश थमाये जाने लगे | इसका परिणाम यह निकला कि उन्होनें भी बहती गंगा मे हाथ धोने मे ही अपनी बेहतरी समझी |

     साझा सरकारों के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसमे राजनीतिक भ्र्ष्टाचार को ही बल मिला | 1967 के बाद 1971 मे कांग्रेस सत्ता मे आई | यह उम्मीद की गई थी कि जिन बुराइयों को संविदा सरकार के शासनकाल मे पनपने का अवसर मिला था, वे अब खत्म हो जायेगीं लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा | नौकरशाही को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति और अधिक तेजी से विकसित होने लगी | नौकरशाहों की मदद से चुनाव जीतने की परपंरा की मजबूत शुरूआत कांग्रेस के इसी शासनकाल से ही हुई^| जिलाधिकारियों तथा कमीशनरों को बकायदा मौखिक आदेश दिए जाने लगे |

     1971 से 1975 का यही समय था जब देश मे भ्र्ष्टाचार ने हर क्षेत्र मे मजबूती से पैर जमाए | चूंकि सत्तारूढ नेताओं द्वरा अपने हितों के लिए नौकरशाही का इस्तेमाल किया जाता था अत: नौकरशाही का भ्र्ष्ट व बेलगाम होना भी स्वाभाविक ही था |

     1975 के आते आते हालात इतने बदतर हो गए कि देश मे चारों तरफ़ विरोध के स्वर गूंजने लगे | विपक्ष इन्हीं मुददों को लेकर सड्क पर आ गया | इसके पहले कि विरोध व असन्तोष चरम पर पहुंचे इमरजेंसी लगा दी गई | आपत्तकाल मे नौकरशाही को भय दिखा कर जो तमाम काम करवाए गए, उनका काला इतिहास आज भी य्ह देश भूला नही है | बहरहाल 1977 मे चुनाव हुए और कांग्रेस को बुरी तरह मुंह की खानी पडी |

     1977 के चुनावों की जनसभाओं में विपक्षी नेताओं ने उस भ्र्ष्टाचार की पोल खोली जिससे आमजन अभी तक परिचित नही था | किस तरह मतपेटियां कचहरियो^ मे बदल दी जाती थीं , किस तरह चुनाव अधिकारी बने नौकरशाह फ़र्जी मतदान करवाते थे, इन सबका कच्चा चिट्ठा पहली बार जनता के सामने आया |
     जनता पार्टी सत्ता मे आई तो उसने नौकरशाहों के दो वर्ग बनाए | एक वे जो कांग्रेस के बफ़ादार थे दूसरे वे जिन्हें कांग्रेस शासनकाल मे हाशिए पर रख दिया गया था | जिन्हें जनता पार्टी ने अपने पक्ष मे माना उन्हें महत्वपूर्ण पद दिए गए तथा दूसरे वर्ग को बतौर सजा कोने मे बैठा दिया गया |

     नौकरशाही को इस्तेमाल करने की प्रवत्ति खत्म होने की बजाए और विकसित हुइ | जनता पार्टी की बेमेल खिचडी सरकार औधें मुंह गिरी तथा 1980 के चुनाव मे फ़िर कांग्रेस को सत्ता मे आने का अवसर मिला | अब तक नौकरशाही को भी सत्ता के खेल मे महारत हासिल हो चुकी थी | 80 के दशक मे भी नौकरशाही ही हावी रही | नौकरशाहों मे राजनीतिज्ञों के तमाम गलत कामों के राजदार बनने का सुख अपने चरम पर पहुंच गया|  राजीव युग में भी नौकरशाही व सत्ता का यही समीकरण कायम रहा |

     इसके बाद से तो साझा सरकारों का ही युग शुरू हो गया | और नौकरशाही पूरी तरह से बेलगाम हो गई | भ्र्ष्टाचार अपने शिखर पर पहुंचने लगा और देखते देखते यह लाइलाज हो गया | नौकरशाही और नेताओं के किस्से रोज की बात हो गये | एक के बाद एक मामले सामने आने लगे | हाल के वर्षों मे तो मानों बाढ ही आ गई | मनमोहन सरकार ने तो मानो नये रिकार्ड कायम किए |

     आज जो लोग यह मानते हैं कि नौकरशाही बेबस है, यह आधा सच है | यह सच भी कम महत्वपूर्ण नही कि राजनीतिक आकाओं से निकट्ता उन्हें भी फ़ायदा पहुंचाती है | उनके गलत सही कामों के राजदार होने से सत्ता का कुछ लाभ इन्हें भी मिलता है | थोडे बहुत हैं जो कसमसाते हैं लेकिन आवाज उठाने का साहस इनमे भी नही है | एक बडा वर्ग यथास्थिति का पक्षधर है | एक तरह से आपसी हितों पर यह व्यवस्था कायम है |

     अब रहा सवाल इस गठजोड को रोकने का, तो यह काम चुनाव आयोग ही बेहतर तरीके से कर सकता है | अभी हाल के वर्षों मे इस दिशा मे काफ़ी कुछ किया गया है | चुनाव आयोग की सख्ती से काफ़ी कुछ नियंत्रण मे आ गया है | राजनेताओं दवरा किए जाने वाले चुनावी तबादलों मे बहुत हद तक रोक लगी है |आयोग की सख्ती ही इसे रोक पाने मे सक्षम है | सुखद यह है कि ऐसा हो रहा है और यह लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है |


















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