[ एल. एस. बिष्ट ] -
जिंदगी के सफ़र में, उम्र की एक दहलीज पर, पीछे मुड कर देखने की कोशिश मे, अनगिनत
चेहरों की भीड न जाने कितनी यादों को अपने में समेटे नजर आने लगती है | लेकिन
चेहरों की इस भीड में चंद चेहरों की यादें ही शिद्दत से कचोट्ती हैं |
दर-असल उम्र के सफ़र में, यादों के लंबे
काफ़िले से जुडी बहुत सी यादें कहीं पीछे छूट चुकी होती हैं और कभी इतनी दूर कि बस
उन यादों के धुंधले अक्स शेष रह जाते हैं | यह खोये चेहरे एक दिन अकस्मात, अनायास
यादों की चौखट में दस्तक देने लगते हैं और फ़िर परत-दर-परत खुलता है स्मृतियों का
ऐसा पिटारा जो कभी आपके वजूद की नींव मे कहीं गहरे दफ़न थीं |
आज की खुदगर्ज दुनिया में जब इंसान सिर्फ़
अपनी ही सोच रहा हो, मुझे याद आने लगती है उसकी वह मासूमियत और वह बीमार काया
जिसने इंसानी रिश्तों मे उस मर्म को अनजाने ही समझा दिया जो अब कहीं नहीं दिखाई
देते |
बात मेरे बचपन की और इसी शहर लखनऊ की | सत्तर
का दशक और मेरी उम्र 16 या 17 | छावनी क्षेत्र मे सेना का अस्पताल और वहां हमारी
रिश्ते की बीमार भाभी का लंबा ईलाज | हम दोनो भाई रोज सांझ होते ही भाभी जी के
स्वास्थ का हाल जानने अस्पताल जाते | घर से करीब 5-6 किलोमीटर की दूरी पर | एक तरह
से यह पिताश्री का आदेश भी था | साइकिल की सवारी और किशोरवय की उस उर्जा मे यह
दूरी मिनटों में खत्म हो जाती | पडोस के बिस्तर मे एक किशोरी को देखा तो
उत्सुकतावश पहुंच ग़ये उसके पास | बिल्कुल दुबली सी काया, नदी तट पर उगने वाले
सरकंडे की तरह | बाल कुछ सुनहरे जिन्हें वह चोटियां करके लपेटी रहती | पता चला वह
बहुत ऊंचाई से गिरी थी और अब चल फ़िर नहीं सकती |
हम दोनो भाइयों के लिए वह हम उम्र थी | हमारा
उसके पास जाना और बातचीत करना उसे न जाने कितनी खुशियां दे गया | उसने बगल मे रखी ट्रे
से चार उबले अंडे निकाले और हमें बराबर बांट दिये | हमारी मासूम बेशर्मी देखिए हम
दोनो ने चटकारे ले वह अंडे खा लिए | दर-असल वह अंडे एक बीमार मरीज को दी जाने वाली
खुराक का हिस्सा थे | लेकिन यह बातें उस उम्र मे हमारी सोच से परे थी |
अब यह रोज का सिलसिला बन गया | दोनो भाभी के
पास कम और उसके पास ज्यादा समय बिताने लगे | यादों के लंबे काफ़िले मे उन दिनों की
गुल-गपाडों की वह बातें अब विस्मृत हो चली हैं, अगर कुछ शेष है तो सिर्फ़ इतनी सी
याद कि हम घंटों उससे गपियाते, हंसते, रूठते और फ़िर वह हमेशा की तरह बचा कर रखे
चार अंडे निकाल कर हमे देती |
यह सिलसिला यूं ही चलता रहा और फ़िर एक दिन
भाभी को वहां से छूट्टी मिल ही गई | उस अनजान किशोरी के साथ वह आखिरी शाम थी |
समय के साथ वह दिन, उस उम्र की यादें पीछे
छूट्ती चली गईं | लेकिन पता नही क्यों उसका धुधंला अक्स हमेशा दिल के किसी कोने मे
पडा रहा | समय का दौर बदला और बहुत कुछ बदलने लगा | इंसानी रिश्ते महज खुदगर्जी मे
तब्दील होने लगे , वह मासूम लड्की, उसकी मासूमियत और अंडे बरबस ही शिद्दत के साथ
याद आने लगे | बरसों बरस बाद यह समझ मे आया कि उसकी बीमार काया के लिए वह अंडे
कितने जरूरी थे जिन्हें वह हम भाइयों को
मुस्कराते हुऐ देती |
आज
दुनिया की इस भीड मे वह कहां होगी, कैसी होगी, पता नही |वह दोबारा कभी नही
मिल सकी | आपके पास किसी का पता-ठिकाना न हो तो दुनिया एक गहरे सागर मे तब्दील हो
जाती है जहां आपकी चाहत और तलाश का कोई मतलब नही रह जाता |लेकिन खुद्गर्जी और
अमानवीयता के दंश से आहत मायूसी के पलों मे, उसकी धुधंली यादें मानवीय मूल्यों मे
मेरे विश्वास को कायम रखती हैं | मैं हमेशा दुआ करता हूं कि अगर धरती के किसी कोने
मे उसका वजूद है तो उसका दामन खुशियों से भरा हो |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें