( एल. एस. बिष्ट ) - अपने को दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र कहते हुऐ हम सीना फुलाये घूमते हैं । लेकिन शायद ही कभी हमने गंभीरता से अपने लोकतंत्र का पोस्ट्मार्ट्म किया हो । अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवनकाल मे हमारा यह लोकतंत्र न जाने कितनी व्याधियों से ग्रस्त हो चला है लेकिन हम हैं कि इसकी काया को आज भी निरोगी मान इतराते फिर रहे हैं । कभी कधार किसी गंभीर व्याधि पर चर्चा होती भी है लेकिन जल्द ही वह चर्चा व बहस गुल गपाडे मे तब्दील हो पृष्ठभूमि मे चली जाती है ।
अब जब यह विशाल लोकतंत्र एक और आम चुनाव की दहलीज पर खडा है, जरूरी है कि हम थोडा शांत भाव से सोचने की जहमत उठायें कि आखिर इसका चेहरा साल दर साल बदरंग क्यों होता जा रहा है । आम जन की उम्मीदें नाउम्मीदों मे क्यों तब्दील हो रही हैं । आखिर क्यों हमारी ससंद व विधानसभाएं अपराधी तत्वों की शरणगाह बनती जा रही हैं । दरअसल हमने ईमानदारी से स्वंय के गिरेबां में झांकने का प्रयास कभी नही किया । कहीं ऐसा तो नही कि जाने- अनजाने इसमे हमारी भी भागीदारी रही हो ।
अकादमिक बहस व आंकडों को दरकिनार करते हुए अगर इस पहलू पर गंभीरता से सोचें तो कहीं न कहीं हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । दरअसल कई बार हम अपने स्वार्थ में व्यापक सामाजिक हितों की अनदेखी कर देते हैं । हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो जाती है कि हमे सिर्फ अपने जिले, शहर या मुहल्ले का ही हित दिखाई देता है और राबिनहुड जैसे दिखने वाले माफियों, गुंडों व बदमाशों को इसका लाभ मिलता है ।
अगर कोई अपराधी तत्व हमारे मुहल्ले की सड्कों व नालियों आदि का काम करवा लेता है और हमारे मुहल्ले का निवासी होने या किसी अन्य प्रकार के जुडाव से हमारे काम करवा लेता है तो हम उसके पक्ष मे आसानी से खडे हो जाते हैं । यहां हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज के हित मे इसे ससंद या विधानसभा के लिए चुनना इस लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक होगा । ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेगें जहां समाज की नजर मे एक अपराधी, मोहल्ले या शहर का "भैय्या " बन चुनाव मे जीत हासिल कर लेता है । दरअसल अपने तक सीमित हमारी सोच ऐसे लोगों का काम आसान करती है ।
यहां यह गौरतलब है कि 80 के दशक मे लखनऊ से प्रकाशित एक राष्टीय दैनिक ने विधानसभा चुनावों मे खडे अपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों का कच्चा चिट्ठा कई किस्तों में प्रकाशित किया था इस उम्मीद में कि मतदाता इनके असली चेहरे से परिचित होने पर इन्हें अपना मत नही देग़ा । लेकिन इन प्रयासों का कोई खास परिणाम नजर नही आया । कई अपराधी तत्व चुनाव जीत कर विधानसभा तक पहुंचे ।
अपने हितों तक सीमित रहने वाली हमारी इस सोच का इधर कुछ वर्षों मे व्यापक प्रसार हुआ है । महाराष्ट्र मे दिया जाने वाला नारा ' बजाओ पुंगी, भगाओ लुगीं ' को हमारी इस मानसिकता के फलस्वरूप ही व्यापक जंनसमर्थन मिला था । जहां महाराष्ट्र के लोगों ने सिर्फ अपने हित मे इसे उचित समझा । लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे इस पर सोचने की जरूरत नही समझी गई । अब यदा कदा ऐसे ही स्वर दूसरे प्रदेशों से भी सुनाई देते हैं । य्ह तभी संभव है जब हम अपने हित के लिए समाज के व्यापक हित को नजरअंदाज कर देते हैं ।
राजनीतिक अपराधीकरण मे हमारी यही सोच कुछ गलत लोगों को ससंद व विधानसभाओं मे पहुंचाने मे सहायक रही है । यही कारण कि ऐसे कई नाम भारतीय राजनीति के क्षितिज पर हमेशा रहे हैं । जिन्हें समाज का एक बडा वर्ग तो अपराधी , माफिया या बदमाश मानता है लेकिन अपने क्षेत्र से वह असानी से जीत हासिल कर सभी को मुंह चिढाते हैं ।
यहां गौरतलब यह भी है कि कुछ लोग मानते हैं कि चुनाव मे यह फर्जी मतदान के सहारे जीत हासिल करते हैं । लेकिन गहराई से देखें तो यह सच नही है । सांसद या विधायक के भाग्य का फैसला लाखों वोटों की गिनती के बाद ही संभव हो पाता है। दो-एक बूथों में फर्जी मतदान करा लेने या कब्जा कर लेने से दो या चार हजार मत ही पक्ष मे हो सकते हैं( एक बूथ पर 1500 से ज्यादा वोटर नही होते ) अब सवाल उठता है कि यह हजारों या लाखों वोट मिले कहां से । स्वाभाविक है यह मत दिए गये हैं ।
अब अगर हमे इन बाहुबलियों, माफियों, गुंडों व बदमाशों को रोकना है तो अपने संकीर्ण हितों की बलि देनी होगी । व्यक्ति का चुनाव समाज व देश के व्यापक हित मे सोच कर किया जाना चाहिए । अगर आपके लिए भैय्या बना उम्मीदवार समाज के बहुसंख्यक लोगों के लिए एक अपराधी तत्व है तो उसे आपको भी अपराधी ही मानना होगा । अन्यथा एक दिन यह भैय्ये ससंद के चेहरे को पूरी तरह से बदरंग बना देगें ।
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