रविवार, 16 मार्च 2014

कभी बडे नटखट थे ऋषिकेश के बंदर ( उत्तराखंड की भूली बिसरी यादें )

                                                   
                     

{ एल.एस.बिष्ट }      पहाडों की गोद में, गंगा तट पर बसा ऋषिकेश एक साधुओं की नगरी हे लेकिन मेरी यादों में यह नटखट बंदरों का भी शहर हे  यहां के बंदरों की बात ही अलग थी । यहां कदम रखते ही सैकड़ों की संख्या में उछलते कूदते बंदर आने वालों को यह आभास करा देते थे कि यहां उनका भी हक बनता है ।

     उस समय लगता था यहां आदमी कम बंदर ज्यादा हैं । उन नटखट बंदरों के तमाम किस्से आज बीती बातें बन कर रह गई हैं । ऋषियों के लिए कपड़े धूप में सुखाना एक जोखिम का काम हुआ करता था । कब कौन ले उड़े पता नहीं । और फिर शुरू होता लुकाछिपी का खेल ।लेकिन एक खूबी थी कपड़े कभी नही फाड़ते । काफी परेशान करने और खाने का सामान लेने के बाद कपड़े वापस कर देते । रसोई में घुस खाने की चीजों को चट कर जाना इनके बाएं हाथ का खेल था ।

     खिलौनों के भी यह बड़े शौकीन थे । बच्चे अपने खिलौनों को इनसे बचाते । यही नही, बच्चों को छेड़ना, उन्हें रूलाना इन्हे बेहद पसंद था । यात्रियों की अटैची या थैला छीन लेना आम बात थी । यहां तक की यह बकायदा पीछा करके सामान छीन लेते । लेकिन यहां के बच्चे भी इनको खूब चिढाते । जब कोई बंदर जमीन मे कुछ ढूंढता तो बच्चे भी उन्हें चिढाते ‘ गूणीं, गुणीं (बंदर बंदर ) तू क्या ढूंढणू, अपण मां की सुई ‘ (तू क्या अपनी मां की सुई ढूंढ रहा है ) यह बंदर यहां के जन जीवन के हिस्सा थे ।

     लेकिन 80 के दशक के बाद से इनकी संख्या तेजी से घटने लगी है । अब जगह जगह बस्तियां हैं । पेड़ों के झुरमुटों के स्थान पर दुकानें खुल गई हैं । सड़कें इतनी ब्यस्त कि बंदर रहते भी तो कहां । जंगलों के दोहन ने भी इन्हें बेदखल कर दिया । अब तो यहां कहने भर को बंदर हैं । बहरहाल मेरी यादों में वह बंदर आज भी जिंदा हैं । कभी यहां आएं तो इन नटखट बंदरों के किस्से जरूर सुनें ।


 एल.एस.बिष्ट,
11/508, इंदिरा नगर,
लखनऊ-16
मो. 9450911026


   

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