{ एल. एस. बिष्ट } - छात्रो और युवाओं की राजनीति में भागीदारी का सवाल पिछले कई वर्षों से चर्चा का विषय रहा है । विशेष कर जब जब देश
में चुनाव की रणभेरी बजी है या जब कभी इस युवा शक्ति ने किसी बडे आंदोलन को जन्म दिया या फिर किसी घटना विशेष पर अपने तीखे आक्रोश से लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल हुए , यह सवाल बहस का विषय बना । यह दीगर बात है कि चंद
दिनों के बाद इस पर गंभीर चिंतन की जहमत कभी नही उठाई गई । छात्रसंघों व युवा संगठनों में राजनीति किस सीमा तक होनी चाहिये यह अभी तक तय नही हो सका है। क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि जहां दुनिया के दूसरे देशों में यह भूमिका स्पष्ट है वहीं दुनिया के सबसे बडे इस लोकतांत्रिक देश मे जहां युवा निर्णायक भूमिका मे हैं तस्वीर अभी तक साफ नही हो पायी है।
देश के अधिकांश विश्वविधालयों व कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव होते हैं । रंगीन पोस्टर व बैनरों से कुछ दिन के लिए पूरा शहर पट सा जाता है । प्र्चार युध्द भी कम आक्रामक नही होता । अब तो परिसर के अंदर कम बाहर शोर अधिक सुनाई देता है । हिंसात्मक घटनाओं से लेकर उम्मीदवार के अपहरण व हत्या तक की वारदातों को देख सुन अब किसी को हैरत नही होती। विजयी उम्मीदवारों के जुलूस पूरे शहर को मंत्रमुग्ध कर आकर्षण तथा चर्चा का विषय बनते हैं । लेकिन इसके बाद यह छात्र नेता और छात्रसंघ क्या कर रहे हैं इसका पता किसी को नही लगता । इतना अवश्य है कि समय समय पर दुकानों को लूट्ने, होट्लों में बिल अदा न करने, स्थानीय ठेकों को हथियाने के प्र्यास में मारपीट करने के कारण छात्र शक्ति चर्चा का विषय बंनती है । या फिर
चुनाव के समय
हमें अपनी युवा शक्ति की याद
आती है ।
वर्तमान से उठते इन सवालों पर जरा गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि नाउम्मीदी के बादल इतने घने भी नही हैं । अतीत गवाह है कि महात्मा गांधी, सुभाष च्न्द्र बोस और जय प्र्काश नरायण के आहवान पर छात्र संगठन जो कर गुजरे वह आज इतिहास बन गया है ।
स्वतंत्रता पूर्व की इस युवा राज्नीति का सुनहला इतिहास रहा है । 1905 में कलकत्ता विश्वविधालय के दीझांत समारोह में लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की बात बडे ह्ल्के ढंग से कही थी लेकिन छात्रों को समझते देर न लगी । जल्द ही पूरे राज्य मे इसके विरूद आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी अंग्रेज सरकार हैरत मे पड गई । बंगाल से उपजी यह चेतना जल्द ही दूसारे राज्यों में भी फैल गयी । 1920 मे नागपुर में अखिल भारतीय कालेज विधार्थी सम्मेलन हुआ और नेहरू के प्र्यासों से छात्र संगठनों को सही अर्थों मे अखिल भारतीय स्वरूप मिला । इसके बाद वैचारिक मतभेदों को लेकर संगठनों में टूट फ़ूट होती रही ।
कुछ वर्षों तक कुछ भी सार्थक न हो सका । सत्तर के दशक में दो महत्वपूर्ण घट्नाएं अवश्य युवा राजनीति के क्षितिज मे उभरीं । पहला 1974 मे ज़े.पी. आंदोलन जो व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर शुरू हुआ। दूसरा असम छात्रों का आंदोलन जिसकी सुखद परिणति हुई तथा युवा छात्र सत्ता में भागीदार बने । बाकी याद करने लायक कुछ दिखाई नही देता । मंडल आयोग को लेकर युवा आक्रोश
जिस रूप मे प्र्कट हुआ इससे तो एक्बारगी पूरा देश हतप्र्भ रह गया ।
इधर कुछ वर्षों से छात्र राजनीति मे राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप इस सीमा तक बढा है कि इसमे वे छात्र ही उभर सकते हैं जो किसी न किसी राजनीतिक दल से जुडे होने और सभी चुनावी पैतरों का इस्तेमाल कर सकते हों ।
दलगत राजनीति के साथ ही जातीय , क्षेत्रीय व साम्प्र्दायिक समीकरणों को भी बल मिला है । बिहार व उत्तर प्र्देश के अधिकांश कालेजों में चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लडे जा रहे हैं । इस तरह स्थिति बद से बदतर हो रही है। जिस तरह से परिसर मे दलीय राजनीति अपना रंग दिखाने लगी है इससे यह बात साफ हो चली है अब निर्णय लेना होगा कि परिसर की राजनीति संसद या विधानसभाओं को मद्देनजर च्लाई जानी चाहिये या सिर्फ छात्रों द्दारा परिसर के लिऐ । क्योंकि इन दो अलग अलग उदेश्यों के लिऐ भिन्न राजनीतिक चरित्र का होना जरूरी है ।
ऐसा नही कि छात्र व
युवा
राजनीति में संभावनाओं का आकाश बहुत सीमित है ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिन्होने आगे चल कर राष्ट्रीय राजनीति मे महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन छात्र जीवन मे उन्हे किसी राजनैतिक दल की छ्तरी की आवश्यकता महसूस नही हुई । डा. जाकिर हुसैन अलीगढ विश्वविधालय की ही उपज थे। इनके अलावा डा. मौलाना आजाद, शेख अब्दुल्ला , फखरूदीन अली अहमद भी अपने छात्र जीवन मे यहां के छात्र संगठन से जुडे रहे । इलाहाबाद विश्वविधालय के छात्र संघ ने भी कई राजनेता देश
को दिये । हेमवती नंदन बहुगुणा , वी.पी.सिंह , चंद्र्शेखर, नुरूल हसन, जनेश्वर मिश्र , मोहन सिंह आदि ने राष्र्टीय राजनीति मे अपनी पुख्ता पहचान बनाई। लखनउ विश्वविधालय और दिल्ली विश्वविधालय ने तो कई नेताओं को संसद पहुंचाया
।
लेकिन यह उपलब्धियां उस दौर की हैं जब सिद्दांत परक राजनीति का ही परिसर मे वर्चस्व था । आज फिजा बहुत बदल गई है। युवा राजनीति बुनियादी उद्देश्यों से भटक गई है। आज के संगठन जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा द्लगत राजनीति के शिकार होकर रह गये हैं। यही नही, राजनीतिक दलों
द्दारा इनका इस्तेमाल किया जाने लगा है ।
सोचा जाना चाहिए कि यह किस प्र्कार की राजनीति है जो लोहिया व जय प्र्काश का नारा देकर आगजनी व लूटपाट को बढावा दे रही है। इसी राजानीति का ही परिणाम है कि छात्र आंदोलन आम छात्र से कटने लगा है। ' आई हेट पालिटिक्स ' कहने वाले व्रर्ग का जन्म इसी राजनीति के गर्भ से हुआ है । इधर कुछ समय से युवा वर्ग मे सुखद बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे हैं । वह राजनीति को समझ्ने की कोशिश करने लगा है और उसमे भागीदारी भी । वह आवाज उठाने लगा है। अपने
वोट के महत्व को वह समझने लगा है । स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी है ।
एल.एस.बिष्ट,
11/508, इंदिरा नगर, मो. 9450911026
लखनऊ
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