बंसत उत्तरायण सूर्य का ऋतुराज है । प्रथम
उत्सव है उसका । आखिर क्यों न हो जब से सूर्य दक्षिणायन होता है उसी समय से ऋतुराज
बंसत उसके उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करता है । इस बीच वह नयी कोपलों में फूटने ,
नव पुष्पों में खिलने और झरनों में बहने के लिए बुनता और रचता है एक सुंदर संसार ।
बंसत के आगमन पर दिशाएं रंगों से भर जाती हैं । धरती बासंती चूनर पहन कर इतरा उठती
हैं । आकाश झूमने लगता है । लाल लाल टेसू दहक उठते हैं । वन उपवन महकने लगते हैं ।
सरसों के फूलों से खेत बासंती रंग में लहलहाने लगते हैं । पक्षी चहकने लगते हैं । एक
उत्सव का माहोल बन जाता है ।
प्रकर्ति
में व्यापत बसंत के मादक इंद्रधनुषी रंगों से भारतीय काव्य भी अछूता नही है ।
कालिदास से लेकर नयी पीढ़ी के कवियों ने अपने अपने ढंग से बसंत के सतरंगी रंगों को
शब्दो में ढाला है । रीतिकालीन काव्य तो मानो
बसंत की मादकता से ही भरा है । देव और पदमाकर ने बसंत का अत्यंत
ह्रदयग्राही वर्णन किया है । हिंदी कवियों की बात तो अलग मुसलमान कवियों ने भी
ढेरों स्याही ऋतुराज की मोहकता पर उडेली है ।
शहरी चकाचौंध के बीच गगंनचुंबी
इमारतों में भागती दौड्ती जिदगी में लगता है कि शायद भूल गया हू मैं उस बसंत को जो
मेरे गांवों में और ' परदेस् ' बने शहरों
में कभी रचा बसा था । पेडों के झुरमुट , पनघट जाती बालाएं, गांव के कोने मे खडे बूढे बरगद के
नीचे बतियाते लोग , खेलते नंग धड्ग बच्चे, । सब कुछ कहीं खो गया है । कच्चे मकानों का वह गांव भी बदल गया है । युवक गांव
छोड ' परदेस ' में रम गये हैं । किसी को
कभी कधार याद आ जाती है, लेकिन अब ये गांव के रमेसर ,
भोलू या ननकऊ नहीं रहे । ' बाबू जी ' बन कर लौटते हैं यहां और दुनियादारी की तिकड्मों के बीच खुब छ्नती है दारु
। गांवों की मासूम संस्कर्ति , खेतों खलियानों तथा वहां के लोगों
के मन में अब नहीं दिखता वह बसंत ।
शहरों को भी ड्स लिया है आपसी ईष्या देष व स्वार्थ ने । पैसे कमाने की होड
और सुख सुविधाओं की दौड में व्यस्त शहरी समाज को तो सिर्फ दुरदर्श्न के पर्दे और पत्र
पत्रिकाओं के रंगीन पन्नों से ही पता चलता है कि बसंत दस्तक दे रहा है ।
लेकिन
प्रकृति का चक्र घूमता है वह नही थका । आज भी वह आता है हमारे बंद मानस दवार पर दस्तक
देने लेकिन सौंदर्य का यह विनम्र निवेदन भी हमें कहीं से कचोट नही पाता ।हमारे
विचारों और भावनाओं का उत्तरायण कब होगा पता नहीं ।
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