जब
फिजा मे वेलेंटाइन यानी प्यार
की खुशबू हो तो बरबस ही याद
आती है प्यार की सपनीली दुनिया
। वह भी एक
दौर था
जब दर्शकों
को रूलाने
वाली फिल्में
बहुतायत मे
बनती थीं
। लोग
सिनेमाहाल
मे बैठ
कर सुबक-सुबक
कर रोते
भी थे
। इनमें
एक बडा
हिस्सा दुखद
प्रेम कहानियों
पर बनी
फिल्मों का
हुआ करता
था ।
न जाने
ऐसी कहानियां
फिल्मकारों
को कहां
कहां से
मिल जाया
करती थीं
।
राजेंद्र
कुमार साहब
को तो
रूलाने मे
महारथ हासिल
थी ।
उनकी फिल्मों
साथी,
आरजू,
गीत,
तलाश
और आप
आए बहार
आए ने
बहुत रूलाया
है ।
इंटरवल तक
तो मजा
आता था
लेकिन जैसे
जैसे फिल्म
अंत तक
पहुंचती थी
रूमाल जेब
से बाहर
निकल आया
करता और
'
द
ऐंड '
के
बाद तो
दर्शक ऐसे
बाहर निकलते
जैसे किसी
की शवयात्रा
से लौट
रहे हों
। लेकिन
कुछ भी
कहिए रोने
का भी
अपना मजा
हुआ करता
था ।
मेरी
पीढी के
वह तमाम
लोग जो
उस दौर
मे किशोरवय
उम्र मे
रहे होंगे
,
आज
भी उन
लव स्टोरी
फिल्मों को
याद करते
हैं ।
कई फिल्में
तो आज
भी मुझ
जैसे लोगों
के दिल
मे बसी
हैं ।
कश्मीर की
कली,
बरसात,
गाइड,
संगम,
अनारकली,
अराधना,
और
सलीम व
अनारकली के
प्यार पर
बनी कालजयी
फिल्म "मुगल-ए-आजम
"
को
भला कैसे
भुलाया जा
सकता है
।
इन
दुखद प्रणय
गाथाओं पर
आधारित फिल्मों
का असर
दिल और
दिमाग पर
इतना होता
कि हर
किशोर उसी
प्यार को
पाने के
सपने बुनने
लगता ।
ऐसी अधिकांश
फिल्मों की
पृष्ठभूमि
मे कोई
हिलस्टेशन
या पहाड
,
सुदूर
की वादियां,
जंगल
व झरने
जरूर हुआ
करते ।
उस दौर
की कुछ
फिल्मों ने
तो प्यार
को बेहद
खूबसूरत अंदाज
मे और
उसकी पूरी
मासूमियत के
साथ परदे
पर साकार
किया और
ऐसी कई
फिल्में सुपर
हिट साबित
हुईं ।
आज भी
लोग उन
फिल्मों को
भुला नही
सकें हैं
।
राजेश
खन्ना ने
बहुत ही
खूबसूरत अंदाज
मे उन
प्रणय प्रधान
फिल्मों के
दौर को
आगे बढाया
। लेकिन
फिर अमिताभ
ने उस
दौर को
खत्म कर
एक नये
तेवर की
फिल्मों का
आगाज किया
। परदे
पर प्यार
की जगह
गुस्से ने
ले ली
और एक
पीढी प्यार
की छुअन
से दूर
होती चली
गई ।
वैसे बीच
बीच मे
कुछ फिल्मों
ने नई
पीढी मे
प्यार की
खुशबू बिखेरने
का काम
बखूबी किया
। "
अंखियों
के झरोखों
से "
और
नूरी जैसी
फिल्मों ने
आंखों को
कम गीला
नही
किया ।
नब्बे के
दशक मे
बनी सिलसिला
और कभी
कभी ने
प्यार की
एक अलग
दुनिया दिखाई
प्यार
का यह
सिलसिला अपने
नये अंदाज
मे बीच
बीच मे
रंग बिखेरता
गया ।
कई फिल्मों
ने अपने
तरीके से
नई पीढी
को प्यार
की दुनिया
दिखाई और
समझाई ।
लेकिन पता
नही क्यों
इस दौर
के प्यार
मे वह
मासूमियत नही
दिखती जिसका
नशा सर
चढ कर
बोलता है
।प्यार मे
फनां हो
जाने वाली
बात तो अब
कहां ?
मेरा
नाम जोकर
के राजू
और मेरी
(सिमी
ग्रेवाल )
को
आंखें आज
भी तलाशती
हैं ।चलो
यह न
सही तो
अमोल पालेकर
वाला मध्यमवर्गीय
शर्मीला प्यार
तो कही
दिखे ।लेकिन
लगता है
कि महानगरों
की जिंदगी
मे तो
शाहरूख का
हकलाता हुआ
शहरी प्यार
भी अब
दम तोडने
लगा
है ।
लेकिन दिल
कहता है
काश ऐसा
कभी न
हो ।
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