अगर
आज के दौर को थोडा गहरी निगाह
से देखने का प्रयास करें तो
यह बात साफ हो जाती है कि राजनीति
ने हमारे मूल्यों और सामाजिक
सरोकारों को बहुत हद तक डस
लिया है । हमारी सोच मे राजनीति
हावी है और हमारी चिंताएं भी
उसके इर्द गिर्द ही घूमती
दिखाई देती हैं । पता नही हम
कब और कैसे राजनीति के मोहजाल
मे उलझ कर रहे गये । यही कारण
है कि समाजिक विसंगतियों पर
शायद ही कभी हमारा ध्यान जाता
हो । बडी से बडी सामाजिक घटना
या दुर्घटना हमे बस चंद घंटे
विचलित कर पाती है और हम जल्द
ही लौट कर अपनी राजनीतिक धुरी
पर आ जाते हैं । यही कारण है
कि आज के सामाजिक परिवेश से
जनित तमाम बातों पर या तो हम
सोच नही पा रहे या फिर वह चीजें
हमारी ' राजनीतिक
गंभीरता ' के
आगे बौनी साबित हो रही हैं ।
बच्चों की दुनिया भी एक ऐसी
ही दुनिया है जो हमारी सोच के
हाशिए पर आ गई है वरना और क्या
कारण हो सकता है कि देश की
अदालतों को हमे अपने ही नौनिहालों
के लिए जगाना पडे ।
अभी
हाल मे उच्चतम न्यायालय ने
स्कूली बच्चों मे शराब और नशे
की बढती लत पर चिंता जताते
हुये सरकार को निर्देश दिया
है कि वह छ्ह माह मे बताए कि
कितने बच्चे ड्र्ग्स लेते
हैं । साथ ही चार माह मे बच्चों
को इससे बचाने के लिए राष्ट्रीय
योजना तैयार करने के भी निर्देश
दिए हैं । यही नही, सरकार
को सर्वे कराने का भी निर्देश
दिया है कि कितने बच्चे नशाखोरी
की चपेट मे हैं । एक गैर सरकारी
संगठन की याचिका पर उच्चतम
न्यायालय ने यह निर्देश दिए
हैं । कोर्ट ने यह भी कहा है
कि इस संबध मे सही आंकडों का
होना बेहद जरूरी है । इससे
पता चल सकेगा कि देश का कौन
क्षेत्र ज्यादा प्रभावित है
।
य्हां
यह ज्यादा महत्वपूर्ण नही कि
इस सबंध मे आंकडे कैसी तस्वीर
पेश करते हैं ? बल्कि
महत्वपूर्ण यह है जो चिंताएं
समाज और सरकार की होनी चाहिए
वह अदालतों के माध्यम से सामने
आ रही हैं । हमे बताया जा रहा
है कि बच्चों की दुनिया मे
सबकुछ ठीक नही चल रहा । अदालत
हमे बता रही है कि देखो बच्चे
नशा करने लगे हैं । उन्हें नशे
से बचाइये । क्या यह चिंताजनक
नही कि हमे अपने आंगन मे या
फिर आसपास ही खेल रहे बच्चों
के बारे मे कुछ पता नही । उनकी
मासूम दुनिया को नशे और अपराध
के काले साये ने कब अपनी गिरफ्त
मे ले लिया हमे पता ही नही चला
। आखिर ऐसा कैसे संभव हुआ ,
यह सवाल ज्यादा
महत्वपूर्ण है । बच्चे देश
का भविष्य होते हैं और उनका
भविष्य इस तरह संकट मे हो तो
हमें सोचना ही होगा कि आखिर
अपने नौनिहालों की दुनिया की
चिंताएं हमारी चिंताओं मे
क्यों शामिल नही ? जबकि
राजनीतिक मुद्दो पर हमारी
मुखरता सडक से लेकर संसद मे
दिखाई दे रही है।
सच
तो यह है कि बच्चों की दुनिया
कई किस्म के खतरों और शंकाओं
से जूझ रही है । लेकिन हम मौजूदा
दौर की उलझनों मे इतने उलझ गये
हैं कि हमे आभास तक नही । बहुत
कुछ तो ऐसा भी है कि जिस पर हम
सहजता से विश्वास ही न कर सकें
। बच्चों के यौन शोषण के बारे
मे थोडा बहुत कहा जाता रहा है
लेकिन जब वही बच्चे अपने साथ
हो रहे अन्याय का बदला खौफनाक
तरीके से लेने लगे तो बात कुछ
अलग हो जाती है । एक खबर के
अनुसार कोलकता के फुटपाथों
मे रहने वाले व यौन शोषण के
शिकार एच.आई.वी
पीडित बच्चे अपने ग्राहकों
को जानबूझ कर एच आई वी का शिकार
बना रहे हैं । यह एक तरह से समाज
से उनका बदला लेने का अपना
तरीका है । यह एक ऐसी वीभत्स
सच्चाई है जिससे मुंह नही मोडा
जा सकता और देखें तो भविष्य
के लिए एक खतरे की घंटी भी ।
आए
दिन बच्चों की हिंसा और अपराध
की खबरें मीडिया मे आती हैं
। यहां तक अपने ही मित्र या
किसी सहपाठी की हत्या भी करने
मे अब वह पीछे नही । अब तो बढती
हिंसात्मक प्रवृत्ति के कई
भयावहे रूप दिखाई देने लगे
हैं और यही कारण है कि सरकार
को किशोर अपराध के कानूनों
मे बदलाव करना पडा है । 16
दिसंबर 2013
दिल्ली मे जो
अमानवीय सामूहिक दुष्कर्म
हुआ उसमे पांच अपराधियों मे
से एक नाबालिक था और वही सबसे
क्रूर भी । मुंबई के शक्ति मिल
सामुहिक बलात्कार मामले मे
भी एक नाबालिग शामिल था । बाल
व किशोर अपराध की घटनाएं लगातार
बढ रही हैं ।
कम
उम्र के स्कूली बच्चों मे नशे
की बढती लत बडे खतरों की ओर
संकेत कर रही है । आखिर बच्चे
ऐसा क्यों करने लगे हैं ?
यह एक बडा गंभीर
सवाल है जिस पर गहराई से सोचे
जाने की जरूरत है । उच्चतम
न्यायालय ने इस खतरे को ही
महसूस करते हुए ही सरकार को
इसके लिए जरूरी निर्देश दिये
हैं । लेकिन कानून से ज्यादा
यह एक सामाजिक समस्या है इसलिए
समाज को ही समझना होगा कि आखिर
बच्चों की दुनिया मे ऐसा क्यों
हो रहा है । कहीं हमारी विकास
की नीतियों मे तो कोई आधारभूत
खामी नही ? या
फिर मौजूदा दौर के मूल्यों
मे ऐसा कुछ है कि हम इन चीजों
को स्वंय ही न्योता दे रहे हैं
? लेकिन
हर हाल मे हमें इन खतरों को
अपनी चिंताओं मे शामिल करना
होगा तभी हम कुछ कर सकेंगे ।
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