( एल एस बिष्ट )
- उत्तराखंड का पर्वतीय अंचल न सिर्फ़
भौगोलिक रूप से भिन्न है बल्कि लोक संस्कृति की भी यहां अपनी अलग छ्टा है ।
कठिन जीवन का पर्याय
बने इस अंचल मे स्थानीय मेलों का एक अलग सांस्कृतिक व सामाजिक महत्व रहा है । अतीत
मे और आज भी, आवागमन के साधनों की कमी व सड्कों के अभाव ने इस अंचल के लोकजीवन को
एक अलग ही रंग दिया है ।
तमाम बदलावों के बाबजूद उत्तराखड के मेले आज
भी काफ़ी सीमा तक अपने पारम्परिक स्वरूप मे दिखाइ देते हैं ।आज भी इन मेलों मे
पहाडियों की गोद मे बसे दूर दूर के गांवों से लोग आते हैं और साल भर न मिल पाने
वाले संगी साथी , नाते-रिश्तेदार , सखियां यहां अपनी सुख दुख की बातें करते हैं ।
यही नही पहाडों से बहुत दूर, मैदानों के बडे शहरों मे ब्याही पहाड की बालाओं को भी
यह मेले बरबस याद आते हैं ।
पर्वतीय अंचल के लोकगीतों मे इन मेलों
के भावनात्मक पहलू पर बहुत कुछ कहा गया है । न जाने कितने गीत स्थानीय मेलों को
लेकर रचे गये हैं । ऐसा ही एक गढ्वाली गीत है –
जब जैली कौतिक मैंणा
सेलु दगण्या पेट्ली, हरि साडी, लाल ब्लाउज
मथ पैड़ा मुंड बांधली । कानु मां तेरो कुडल होल , हल हल हलकड़ैं , हरि साड़ी लाल_
_ _( एक सहेली दूसरे से कहती है हे मैणा जब तू मेला देखने जाएगी तेरी सभी सहेलियां
जाने को तैयार होगीं । जब तू हरी साडी और लाल ब्लाउज पहन कर बालों को सजा, कानों
में कुंड्ल पहन कर जाएगी तब वह कुडंल हल हल कर हिलेंगे )
परदेस मे नौकरी कर रहे गांव के युवक भी इन
मेलों मे सम्मलित होने के लिए बेताब रहते हैं । आखिर क्यों न हों । उनकी बचपन और
युवा उम्र की न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें इन मेलों से ही तो जुडी होती हैं ।
मीलों दूर गांवों से आए युवक-युवतियों का हुजूम यहां एक अलग ही नजारा पेश करता है
। न जाने कितनी प्रणय गाथाएं यहां जन्म लेकर परवान चढ्ती हैं ।
गढ्वाल अंचल मे लगने वाले इन मेलों का यहां के
लोकजीवन से गहरा सम्बध है । प्र्त्येक मेले के पीछे कोई^ न कोई^ स्थानीय कहानी
अवश्य होती है ।
कहीं किसी असफ़ल प्रणय गाथा की याद मे मेला
लगता है तो कहीं किसी प्राकृतिक हादसे मे अकाल मौत को प्राप्त किसी व्यक्ति या
व्यक्तियों की याद में।महापुरूषों की स्मृति मे भी कई मेलों का आयोजन किया जाता
है। कुछ स्थानों पर मेले गांव की किसी बाला या युवा की याद मे भी आयोजित किये जाते
हैं जो किन्हीं कारणों से अब इस दुनिया मे नही रहे ।
टिहरी मे बैसाख माह मे लगने वाला एक मेला मदन
नेगी नाम के एक व्यक्ति की याद मे लगता है । भगीरथी नदी के तेज प्रवाह मे बह जाने
के कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी । हर साल इस मेले के दिन उसे याद किया जाता है।
धारकोट मे आयोजित मेले के पीछे भी एक व्यक्ति की स्मृति है जिसने नदी मे कूद कर
आत्महत्या कर ली थी । पौड़ी जिले के उदयपुर पट्टी के थल नदी में लगने वाले गेंद के
मेले का अपना आकर्षण है । अजमेर पट्टी और उदयपुर पट्टी के लोगों के बीच यह खेल
काफी लोकप्रिय है । स्थानीय घट्नाओं पर भी
मेले आयोजित किए जाते हैं ।
कुछ मेले देश व क्षेत्र के कुछ ऐसे
व्यक्तियों के नाम पर भी आयोजित किए जाते हैं जिन्होने देश व समाज के लिए अपने
प्राणों की आहुति दी । इन मेलों की भी एक लंबी फ़ेहरिस्त है ।
पर्वतीय अंचल के यह मेले यहां की संस्कृति और
लोकजीवन की पहचान बने हुए हैं । प्रत्येक मेले की पृष्ठभूमि से यहां की मान्यताओं
और लोक विश्वासों का परिचय मिलता है , लेकिन अब बद्लते वक्त के साथ इनका स्वरूप भी
तेजी से बदल रहा है । यहां लगने वाले बाजार का चेहरा भी बहुत तेजी से बदल रहा है ।
आज जो चीजें यहां बिकने को आती हैं उन्हें देख कर यह महसूस नही होता कि यह पर्वतीय
अंचल का वही बाजार है जिसमे खरीददारी करने के लिए लोग मीलों पैदल चल कर आते थे ।
बाजार संस्कृति ने उन भावनात्मक तारों को छिन्न भिन्न कर दिया है जो कभी इन मेला
बाजारों से गहरे जुडे थे ।
लुप्त होती मेलों की इस पुरानी पहचान का एक कारण
तेजी से आ रहा सामाजिक व आर्थिक बद्लाव है। पहाडों मे सड्कों के जाल बिछ जाने से
भी अब वह पुरानी बात नही रही । जरूरत की चीजें गांव ग़ांव पहुंचने लगी हैं । ऐसे मे
इन मेलों का महत्व कम होता जा रहा है ।लेकिन पहाड कभी मैदान तो नही हो सकते । वह
गहरी घाटियां, सीना ताने खडी चोटियां व घने जंगल, कदमों की सीमाएं स्वंय ही तय कर
लेती हैं । घर से दूर ब्याही किसी लड्की को आज भी इंतजार रहता है इन मेलों का जब
वह अपने मायके की सहेलियों से मिल सकेगी
।बहरहाल बद्लाव की बयार चाहे कितनी ही तेज क्यों न हो, आज भी इन मेलों से जुडे न
जाने कितने मार्मिक गीत यहां की वादियों मे गूंजते हैं ।
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