( एल. एस. बिष्ट ) - इसमें दो राय नही कि
मोदी सरकार की इस ऐतिहासिक जीत के पीछे विकास के नारे की ही मह्त्वपूर्ण भूमिका
रही है | मंदिर, धारा 370 व समान नागरिक कानून जैसे मुद्दे कहीं पृष्ठभूमि मे ही
रखे गये | भाजपा प्र्चार की पंच लाईन “ अच्छे दिन आने वाले हैं “ ने विकास के वादे
को ही जन जन तक पहुंचाया | यहां गौरतलब यह भी है कि युवाओं का एक बडा वर्ग विकास
के नारे से ही आकर्षित होकर भाजपा के पक्ष मे दिखाई दिया |
लेकिन यहां सवाल उठना स्वाभाविक ही है
कि आखिर विकास की यह अवधारणा कैसी हो |
क्या विकास का मतलब सिर्फ़ रोजगार सृजन, उत्पादन व सुविधाओं का व्यापक प्रसार ही
होगा या फ़िर इसका हमारे सामाजिक जीवन व मूल्यों से भी कोई रिश्ता बनेगा |
अगर आर्थिक विकास के नजरिये से थोडा पीछे
देखें तो नि:संदेह देश ने एक लंबा सफ़र तय किया है | 60 के दशक का भारत और आज जो
तस्वीर है इसमे कहीं कोई समानता नहीं दिखती | यह आर्थिक विकास न सिर्फ़ आंकडों मे
दिखाई देता है बल्कि आम जन की बेहतर होती जिंदगी मे भी नजर आता है | चूल्हे से गैस
चूल्हा, साइकिल से कार, फ़िक्स फ़ोन से मोबाइल , पंसारी की दुकान से शापिंग माल्स और
सिंगल पर्दे के सिनेमाघर से मल्टीफ़्लैक्स तक का सफ़र विकास की कहानी का स्वंय गवाह
है | यह बदलते भारत की ऐसी तस्वीर है जो किसी आंकडें की मोहताज नहीं |
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है नदी का तेज
प्रवाह अपने साथ बहुत कुछ बहा ले जाता है,
ठीक उसी प्रकार आर्थिक विकास की धारा मे भी बहुत कुछ स्वत: बहने लगता है या फ़िर
पीछे छूट जाता है | लेकिन सिर्फ़ प्रवाह पर गढी हमारी नजरें उन चीजों को
चाहे-अनचाहे अनदेखा कर लेती हैं | यह स्थिति तब और भी विकट होती है जब हम अपनी
समृध्दी के लिए विकास का सही ढांचा या माडल चुन पाने मे कहीं चूक कर जाते हैं | आज
इस पर सोचा जाना जरूरी है कि आखिर इस देश के लिए विकास का माडल कैसा हो |
यूरोपीय देशों की उन्नति हमें ललचाती, लुभाती
और अपने मोहपाश मे बांधती है लेकिन हम शिखर के पीछे के उस अंधेरेपन को नहीं देख
पाते जिनसे आज वहां का समाज जूझ रहा है और भारत की प्राचीन संस्कृति मे निहित ‘
सामाजिक सुखों ‘ को पुलक भरी द्र्ष्टि से देखता है | विकास की होड मे यहां हमे यह
समझना होगा कि विकास का जो ढांचा यूरोपीय देशों के लिए अनुकूल प्रतीत होता है, यह
जरूरी नही कि वह हमारे लिए भी समृध्दि का वाहक बने |
अतीत मे हम इस त्रासदी को भोग चुके हैं |
अंग्रेजी शासन का कालखंड इस सच का गवाह है | जब उनके आर्थिक विकास के माड्ल ने
हमारे ग्रामीण भारत की रीढ कहे जाने वाले लघु व कुटीर धंधों पर कुठाराघात कर पूरी
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर दिया था |
यहां गौरतलब यह भी यह है कि इधर 80 के द्शक
से विकास का जो ढांचा हमने तय किया, वह विवादों और शंकाओं से परे नही रहा | जंगल,
जमीन और इंसान के आपसी संबधों को नकारते
हुए हमने जो पाने की कोशिश की उसने एक नई बहस को भी जन्म दिया | तमाम जन-आंदोलनों
के गर्भ मे यही असंतोष जब तब मुखर होता रहा है |
इस तथाकथित आर्थिक विकास ने जहां एक तरफ़ एक
वर्ग के लिए उन्नति के नये क्षितिज खोले तो वहीं अपने जंगलों और जमीन से बेदखल हुए
लोग गरीबी और विस्थापन के गहरे जख्मों से पस्त हो बेचारगी की स्थिति मे भी दिखाई
दिये |यह सिलसिला देश के किसी न किसी हिस्से मे विकास के नाम पर बदस्तूर जारी है |
यही नही, नब्बे के दशक से आर्थिक विकास का जो
चक्र हमने चलाया, उसने हमारे गांवों की समृध्दि, संस्कृति और यहां तक कि बुनियादी
स्वरूप को कम आहत नही किया | शहरीकरण और विकास के नाम पर कृषि भूमि को लील कर
कंक्रीट के जंगल मे बदल दिया है | दूसरी तरफ़ वैश्विक पूंजी और भूमंडलीकरण की सोच
ने ह्मारी पारंपरिक खेती को नये प्रयोगों
की प्रयोगशाला के रूप मे भी तब्दील कर दिया है | यही नही, हमारे विकास की अवधारणा
नगर केन्द्रित रही है और फ़लस्वरूप उसने हमारे शहरों मे ही समृध्दि व रोजगार के नये
द्वार खोले हैं और शहरी युवाओं को नये सपनों की सौगात
दी है | हमारा
ग्रामीण युवा इस बदली हवा और संभावनाओं से लगभग अछूता ही रह गया | इसका सीधा
प्रभाव यह पडा है कि गांव वीरांन और शहर
चिंताजनक स्थिति तक आबाद होने लगे है |
इस तरह देखें तो विकास की यह ऐसी धारा रही है जिसमे समृध्दि और विनाश
दोनो साथ साथ चलते रहे हैं | आर्थिक विकास का यह मौजूदा ढांचा न बदला गया तो हमारे
शहर गांवों और ग्रामीण आबादी को पूरी तरह लीलने के कगार पर होगें | इसलिए इस आर्थिक विकास की दशा और दिशा दोनो पर अभी से
सोचा जाना जरूरी है | हमे ऐसा ढांचा तय करना होगा जो सिर्फ़ शहरों, महानगरों और
वहां के वाशिदों की जिंदगी मे ही चमक पैदा न करे बल्कि ग्रामीण भारत को भी विकास
की धारा से जोड सुख और समृध्दि मे भागीदार बनाये |