गुरुवार, 29 मई 2014

कैसी हो देश के विकास की तस्वीर

                
( एल. एस. बिष्ट ) - इसमें दो राय नही कि मोदी सरकार की इस ऐतिहासिक जीत के पीछे विकास के नारे की ही मह्त्वपूर्ण भूमिका रही है | मंदिर, धारा 370 व समान नागरिक कानून जैसे मुद्दे कहीं पृष्ठभूमि मे ही रखे गये | भाजपा प्र्चार की पंच लाईन “ अच्छे दिन आने वाले हैं “ ने विकास के वादे को ही जन जन तक पहुंचाया | यहां गौरतलब यह भी है कि युवाओं का एक बडा वर्ग विकास के नारे से ही आकर्षित होकर भाजपा के पक्ष मे दिखाई दिया |
     लेकिन यहां सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि  आखिर विकास की यह अवधारणा कैसी हो | क्या विकास का मतलब सिर्फ़ रोजगार सृजन, उत्पादन व सुविधाओं का व्यापक प्रसार ही होगा या फ़िर इसका हमारे सामाजिक जीवन व मूल्यों से भी कोई रिश्ता बनेगा |
     अगर आर्थिक विकास के नजरिये से थोडा पीछे देखें तो नि:संदेह देश ने एक लंबा सफ़र तय किया है | 60 के दशक का भारत और आज जो तस्वीर है इसमे कहीं कोई समानता नहीं दिखती | यह आर्थिक विकास न सिर्फ़ आंकडों मे दिखाई देता है बल्कि आम जन की बेहतर होती जिंदगी मे भी नजर आता है | चूल्हे से गैस चूल्हा, साइकिल से कार, फ़िक्स फ़ोन से मोबाइल , पंसारी की दुकान से शापिंग माल्स और सिंगल पर्दे के सिनेमाघर से मल्टीफ़्लैक्स तक का सफ़र विकास की कहानी का स्वंय गवाह है | यह बदलते भारत की ऐसी तस्वीर है जो किसी आंकडें की मोहताज नहीं |
     लेकिन जैसा कि अक्सर होता है नदी का तेज प्रवाह अपने साथ  बहुत कुछ बहा ले जाता है, ठीक उसी प्रकार आर्थिक विकास की धारा मे भी बहुत कुछ स्वत: बहने लगता है या फ़िर पीछे छूट जाता है | लेकिन सिर्फ़ प्रवाह पर गढी हमारी नजरें उन चीजों को चाहे-अनचाहे अनदेखा कर लेती हैं | यह स्थिति तब और भी विकट होती है जब हम अपनी समृध्दी के लिए विकास का सही ढांचा या माडल चुन पाने मे कहीं चूक कर जाते हैं | आज इस पर सोचा जाना जरूरी है कि आखिर इस देश के लिए विकास का माडल कैसा हो |
     यूरोपीय देशों की उन्नति हमें ललचाती, लुभाती और अपने मोहपाश मे बांधती है लेकिन हम शिखर के पीछे के उस अंधेरेपन को नहीं देख पाते जिनसे आज वहां का समाज जूझ रहा है और भारत की प्राचीन संस्कृति मे निहित ‘ सामाजिक सुखों ‘ को पुलक भरी द्र्ष्टि से देखता है | विकास की होड मे यहां हमे यह समझना होगा कि विकास का जो ढांचा यूरोपीय देशों के लिए अनुकूल प्रतीत होता है, यह जरूरी नही कि वह हमारे लिए भी समृध्दि का वाहक बने |
     अतीत मे हम इस त्रासदी को भोग चुके हैं | अंग्रेजी शासन का कालखंड इस सच का गवाह है | जब उनके आर्थिक विकास के माड्ल ने हमारे ग्रामीण भारत की रीढ कहे जाने वाले लघु व कुटीर धंधों पर कुठाराघात कर पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर दिया था |
     यहां गौरतलब यह भी यह है कि इधर 80 के द्शक से विकास का जो ढांचा हमने तय किया, वह विवादों और शंकाओं से परे नही रहा | जंगल, जमीन और इंसान के  आपसी संबधों को नकारते हुए हमने जो पाने की कोशिश की उसने एक नई बहस को भी जन्म दिया | तमाम जन-आंदोलनों के गर्भ मे यही असंतोष जब तब मुखर होता रहा है |
     इस तथाकथित आर्थिक विकास ने जहां एक तरफ़ एक वर्ग के लिए उन्नति के नये क्षितिज खोले तो वहीं अपने जंगलों और जमीन से बेदखल हुए लोग गरीबी और विस्थापन के गहरे जख्मों से पस्त हो बेचारगी की स्थिति मे भी दिखाई दिये |यह सिलसिला देश के किसी न किसी हिस्से मे विकास के नाम पर बदस्तूर जारी है |
     यही नही, नब्बे के दशक से आर्थिक विकास का जो चक्र हमने चलाया, उसने हमारे गांवों की समृध्दि, संस्कृति और यहां तक कि बुनियादी स्वरूप को कम आहत नही किया | शहरीकरण और विकास के नाम पर कृषि भूमि को लील कर कंक्रीट के जंगल मे बदल दिया है | दूसरी तरफ़ वैश्विक पूंजी और भूमंडलीकरण की सोच ने ह्मारी पारंपरिक  खेती को नये प्रयोगों की प्रयोगशाला के रूप मे भी तब्दील कर दिया है | यही नही, हमारे विकास की अवधारणा नगर केन्द्रित रही है और फ़लस्वरूप उसने हमारे शहरों मे ही समृध्दि व रोजगार के नये क्े क्ष्क्ष्ही समृध्दि व रोजगार के नये ेती को नये प्रयोगोंद्वार खोले हैं और शहरी युवाओं को नये सपनों की सौगात दी है |  की प्रयोगशाला के रूप मे भी तब्दील कर दिया हमारा ग्रामीण युवा इस बदली हवा और संभावनाओं से लगभग अछूता ही रह गया | इसका सीधा प्रभाव  यह पडा है कि गांव वीरांन और शहर चिंताजनक स्थिति तक आबाद होने लगे है |
इस तरह देखें तो विकास की यह ऐसी धारा रही है जिसमे समृध्दि और विनाश दोनो साथ साथ चलते रहे हैं | आर्थिक विकास का यह मौजूदा ढांचा न बदला गया तो हमारे शहर गांवों और ग्रामीण आबादी को पूरी तरह लीलने के कगार पर होगें | इसलिए इस  आर्थिक विकास की दशा और दिशा दोनो पर अभी से सोचा जाना जरूरी है | हमे ऐसा ढांचा तय करना होगा जो सिर्फ़ शहरों, महानगरों और वहां के वाशिदों की जिंदगी मे ही चमक पैदा न करे बल्कि ग्रामीण भारत को भी विकास की धारा से जोड सुख और समृध्दि मे भागीदार बनाये |
    


गुरुवार, 22 मई 2014

बिहार के हित मे नही नीतीश की यह राजनीति



( एल.एस.बिष्ट ) - बिहार की पूरे देश मे एक अलग पहचान रही है | एक तरफ़ यह पिछ्डेपन का प्रतीक रहा है तो दूसरी तरफ़ जातीयता की नर्सरी के रूप मे भी देखा जाता रहा है | जब जब पिछ्डेपन और जातीयता की बात आती है, बिहार का ही चेहरा सामने आता है | दर-असल यह दुर्भाग्य रहा है इस प्रदेश का कि यह अपने जन्म से ही जातीय दलदल का शिकार होकर रह गया | यहां के इस सामाजिक ताने बाने का लाभ उठा राजनेताओं ने भी अपनी राजनीति की धुरी जातीय राजनीति को ही बनाये रखने मे अपना हित समझा | बिहार का आजतक का राजनैतिक इतिहास जातीय राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है | यहां की जातियों के समीकरणों को साधने का मतलब सत्ता की चाभी का हाथ मे आ जाना है इसीलिये यहां विकास हमेशा हाशिये पर पडा रहा | पिछ्डी व दलित जातियों के बाहुल्य वाला यह प्रदेश दर-असल इस जात पांत का ही शिकार होकर रह गया |

     90 के दशक तक यहां की राजनीति जातीय समीकरणों से ही संचालित होती रही | विकास की बात  हमेशा कोसों दूर रही | मुख्यमंत्रियों का ज्यादा समय जातीय समीकरणों को ही साधने मे जाया होता रहा | लेकिन 90 के दशक मे अयोध्या मुद्दे ने पूरे देश मे  एक नई राजनैतिक हलचल पैदा कर दी और बिहार भी इससे अछूता नही रहा | लेकिन हिन्दुत्व की यह लहर यहां बहुत दिनों तक अपनी धार कायम न रख सकी और जल्द ही मंडल ने राजनीति को एक नई दिशा मे मोड दिया | पिछ्डी जातियां सत्ता मे भागीदारी के लिए मुखर रूप से सामने आने लगीं और इन्होने अपने को लामबंद करना शुरू किया |

     दर-असल यही समय था जब लालू का जादू सर चढ कर बोलता रहा | यहां की अगडी जातियों को जो लगभग 25% हैं जिसमे ब्राहमण, राजपूत व वैश्य आदि शामिल हैं , पिछ्डी-दलित राजनीति के गठजोड ने हाशिये पर डाल दिया | यही कारण कि मंडल के बाद भाजपा अकेले दम पर यहां कभी भी मजबूत स्थिति मे नही दिखाई दी | यहां उसे किसी न किसी दल की बैसाखी की जरूरत बनी रही | इस बीच  भाजपा व नितीश के गठजोड ने पिछ्डी व अगडी जातियों का एक ऐसा समीकरण बनाया जो लालू के वर्चस्व को चुनौती देने लगा | अब तक रामबिलास पासवान की दलित राजनीति भी हिचकोले खाने लगी थी | दर-असल राजनीति के विसात पर चली चाल के फ़लस्वरूप महादलित के रूप मे दलितों के सामाजिक विभाजन ने पासवान के राजनैतिक प्रभाव को बहुत हद तक कम कर दिया था | इस बीच मोदी के सवाल पर भाजपा और जनता दल (युनाइटेड) का गठबंधन टूट गया | लेकिन भाजपा को बैसाखी मिली लोजपा के रामबिलास पासवान व राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की | दूसरी तरफ़ जेडीयू और राजद चुनाव के मैदान पर अपने अपने समीकरणों के बल पर ताल ठोकते रहे |

     लेकिन 16वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों ने सारे समीकरणों को ध्वस्त कर दिया और मोदी के विकास और अच्छे दिनो के वादों ने जातीय राजनीति के समीकरणों को सिरे से नकार दिया | राजद के  मुस्लिम-यादव समीकरण  को भी बुरी तरह  मुंह की खानी पडी | जद(यू) ने 13 मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव मे टिकट दिया लेकिन एक भी चुनाव न जीत सका | दूसरी तरफ़ राजग ने सभी सुरक्षित सीटों पर भी जीत हासिल की |


     सख्या बल मे  अपनी कमजोर स्थिति देखते हुये नीतिश ने सरकार बचाने के लिये फ़िर वही जातीय कार्ड खेलना बेहतर समझा | जतिन मांझी को मुख्यमंत्री बना कर उन्होने पासवान के बढ्ते प्रभाव को कम करने के साथ साथ दलित बोट बैंक पर फ़िर से कब्जा करने की कोशिश की है | यही नही भाजपा के सरकार गिराने के प्रयासों पर भी नकेल लगाने का मकसद इसमे छिपा  है | अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिये वह एक बार फ़िर जातीय राजनीति को अपने पक्ष मे कर विकास के मुद्दे को हाशिये पर डालना चाहते हैं | वह यह अच्छी तरह समझ गये हैं कि मोदी के विकास नारे को कुंद किये बगैर वह बिहार को नही जीत सकते | लेकिन राजनीति की इस विसात का खामियाजा भुगतेगा बिहार | चुनावी लाभ के लिए एक रबर स्टैम्प मुख्यमंत्री बना कर उन्होने बिहार के विकास को एक बार फ़िर पीछे धकेल दिया है | यही नही,  बिहार जिस जातीय राजनीति के दलदल से निकलने की कोशिश कर रहा था उन प्रयासों को फ़िर धक्का लगा है |लेकिन अगले विधानसभा चुनाव मे यह तो बिहार की जनता को ही तय करना होगा कि वह विकास और खुशहाली के रास्ते पर जाना चाहेंगे या फ़िर जातीय राजनीति के दंश को भोगना ही उनकी नियती है |

शनिवार, 17 मई 2014

मुस्लिम ध्रुवीकरण ने भी निभाई जीत मे भूमिका



( एल.एस.बिष्ट ) - यह चुनाव कई मायनों मे अलग रहा है | दस वर्षों  के कांग्रेसी शासन का इस तरह से पटाक्षेप होगा, इसकी कल्पना राजनीति के बडे-बडे पंडित भी करने मे असफ़ल हुए | बदलाव की एक सुगबुगाहट जरूर सतह पर दिखाई देने लगी थी लेकिन बदलाव की यह चाहत जनादेश के रूप मे इस तरह से सामने आएगी, परिणाम आने से पहले सोच पाना मुश्किल था |

     यह तो समझा जा सकता है कि दर-असल  यह प्रभावशाली जीत कांग्रेस के कुशासन और निहायत कमजोर व लचर प्रशासन के विरूध्द एक सुशासन और मजबूत सरकार के वादे की जीत है | लेकिन जिस तरह का जनादेश आया है इसने और भी कई महत्वपूर्ण सवाल खडे किऐ हैं | क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि देश को प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश की 80 सीटों मे एक भी मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव नही जीत सका | यही नही, 20 फ़ीसदी से भी ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले शहरों मे भी भाजपा ने सफ़लता पाई और यहां से भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार ससंद न पहुंच सका |

     इस नजरिये से अगर देखा जाए तो पिछ्ले दो दशकों में सबसे कम सिर्फ़ दो मुस्लिम उम्मीदवार 1991 के आमचुनाव मे सफ़ल हुऐ थे | इस अपवाद को छोड दें तो यह सख्या 2009 तक 5 से 10 के बीच हमेशा रही है | पिछ्ले आम चुनाव मे ही सात मुस्लिम उम्मीदवार विजयी होकर ससंद पहुंचे थे लेकिन इस बार यह संख्या शून्य मे तब्दील हो गई | यही नही, अल्पसंख्यक मतों की द्र्ष्टि से महत्वपूर्ण समझे जाने वाले रूहेलखंड की दस सीटों मे से भाजपा को नौ सीटों मे अप्रत्याशित रूप से सफ़लता मिली है जब कि 2009 के चुनाव मे यह सिर्फ़ दो तक सीमित थी |

     आखिर यह कैसे संभव हो सका | इस सवाल पर गौर करें तो पिछ्ले कई वर्षों से धर्मनिरपेक्ष्ता बनाम साम्प्रदायिकता के नाम पर जिस प्रकार से बहुसंख्यक समाज की भावनाओं से खिलवाड किया जाता रहा है , यह उसी का प्रतिफ़ल है | दर-असल वोट की राजनीति के तहत कांग्रेस समेत सभी प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा को साम्प्रदायिकता के नाम पर अलग थलग करने का प्रयास करते रहे हैं | देश मे होने वाले हर छोटे बडे दंगे को भाजपा के सर मढने की जो पुरजोर कोशिश यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल करते रहे हैं उसने कहीं न कहीं बहुसंख्यक समाज को आहत किया | इस बीच ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ के भूत को भी पैदा करने के प्रयास ने आग मे घी का काम किया और इसका  दर्द सिर्फ़ संघ परिवार तक सीमित नही रहा बल्कि जन जन तक पहुंचा और यही कारण रहा कि इस चुनाव मे संघ ने इस छ्दम धर्मनिरपेक्षता के विरूध्द पूरी तरह से कमर कसी |

     गौरतलब यह भी है कि मोदी जी को प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित किए जाने के साथ ही मुस्लिम समुदाय द्वारा भाजपा व मोदी का मुखर विरोध किया जाने लगा और भाजपा उम्मीदवारों को चुनाव मे हराने कि लिए जिस तरह से एक मुश्त मतदान करने की मुहिम चलाई गई, उसने बहुसंख्यक वर्ग मे भी प्रतिक्रिया को जन्म देने मे एक भूमिका निभाई | जहां एकतरफ़ भाजपा के विरूध्द एकजुटता होने लगी थी वहीं दूसरी तरफ़ मोदी के विकास और अच्छे दिनो का नारा बहुसंख्यक कि दिलों मे जगह बनाने लगा था ऐसे मे मोदी के समर्थकों ने भी एक्जुट होना जरूरी समझा | यही कारण है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे जहां जातीयता के आधार पर मजबूत ध्रुवीकरण सपा व बसपा के साथ पिछ्ले कई वर्षों से दिखाई देता रहा है, यकायक बिखर गया | इसने भाजपा के लिए नही तो  कम से कम मोदी के पक्ष मे मतदान करना बेहतर समझा | इस तरह बहुसंख्यक वर्ग के ध्रुवीकरण ने मुस्लिम वर्ग के ‘ टेक्टीकल वोटिंग ‘ के प्रभाव को शून्य कर दिया

     राजनीति के कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि मुस्लिम बहुल सीटों मे भाजपा की जीत मे मुस्लिम मतों का  भी योगदान रहा है , सही नही लगता | दर-असल इसका कारण सपा व बसपा के मतदाताओं के एक बडे वर्ग का मोदी के पक्ष मे मतदान करना है न कि मुस्लिम मतों का भाजपा के पक्ष में| अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे मोदी के जादू से यह जातीय समीकरण न टूटते तो तस्वीर कुछ अलग दिखाई देती |

     बहरहाल अब कांग्रेस सहित दूसरे दलों को अपनी धर्मनिरपेक्ष्ता को नये सिरे से समझने की जरूरत है और  यह समझना होगा कि वोट के लिए तुष्टिकरण की नीति को खारिज कर दिया गया है | दूसरी तरफ़ मुस्लिम समुदाय को भी स्वयं को वोट बैंक बनने से रोकना होगा और यह तभी सभव है जब वह साम्प्रदायिकता के नाम पर सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा के विरूध्द अपनी नकारात्मक सोच से मुक्त हो अपने को मुख्य्धारा मे समाहित करे | उसकी इस सोच का लाभ ही दूसरे दल उठाते रहे हैं | यही कारण है कि आज तक वह अपने बुनियादी सवालों पर इस देश मे कोई सार्थक बहस न करवा सका | सिर्फ़ धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता पर उलझ कर रह गये |

     अब समय आ गया है कि वह अपने समाज के हित के  बुनियादी सवालों , शिक्षा, रोजगार और अपनी युवा पीढी के भविष्य को प्राथमिकता दे तथा उनके लिए संघर्ष करे और इन मुद्दों पर किसने कितना किया के आधार पर मतदान के जरिये अपना समर्थन अथवा विरोध दर्ज करे | जिस दिन वह इन सवालों पर राजनीतिक दलों से जवाब मांगेगा, वह एक वोट बैंक नही रह जायेगा | यह इस विशाल लोकतंत्र के हित मे भी होगा |


बुधवार, 14 मई 2014

दैनिक जागरण में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण ब्लाग

दैनिक जागरण में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण ब्लाग । तलाश है एक .....29 मार्च,2014,  मजबूत लोकतंत्र के .....अप्रैल, 2014,  देशहित में नहीं.......12 मई, 2014 ।

बेस्ट ब्लागर आफ द वीक






दैनिक जागरण जंक्सन डाट काम में मेरे ब्लाग “ यात्रा “ मे प्रकाशित लेख “ हुक्मरानों ने छले हैं आदमी के ख्वाब “ को  “ बेस्ट ब्लागर आफ द वीक “ ( 09.05.2014 )

रविवार, 11 मई 2014

चुनाव प्रचार 2014 – कभी लौट कर न आना


     
     (एल.एस.बिष्ट) -  आखिर थम गया 2014 का चुनाव प्रचार | कई मायनों मे गिनीज बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड मे दर्ज कराने लायक रहा है | अमर्यादित भाषा, भाषण और व्यवहार का तो कोई सानी नही | बडे-बडे शांत स्वभाव साधू बोल पडे और जब बोले तो कफ़न फ़ाड कर बोले | ऐसा लगा मानो गंदा बोलने की मैराथन दौड हो रही हो, देखो कौन आगे बाजी मारता है | 


     यही नही, डरने-डराने और धमकाने की हारर फ़िल्म भी साथ साथ चलती रही | मोदी मैदान मे क्या आए, गुजरात दंगों के बहाने पूरी डरावनी फ़िल्म ही बना डाली | एक से बढ कर एक वीडियो, फ़ोटो और कार्टून | काट डालेगा, मार डालेगा, नरसंहार होगा, कत्ले आम होगा और तो छोडिये यहां तक कि अब मुर्गे नही इंसान काटे जायेगें तक के डायलाग से लबरेज रहा यह प्रचार | मुस्लिम समुदाय को इस कदर खौफ़ जदा कर दो कि टूट पडें मतदान बूथों पर |

     दूसरी तरफ़ का मोर्चा भी कम नही | दिग्गी राजा से लेकर केजरीवाल और फ़िर प्रियंका, राहुल की छिछालेदर भी कम नही हुई | 84 के सिख दंगों का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया गया | चल भाई तू ही मुकाबला कर सकता है गुजरात दंगों का |

     केजरीवाल वेचारे दिल्ली की कुर्सी छोड बहुत बुरे फ़ंसे | उनके गालों को मानो सभी ने अपनी हथेलियों के दमखम का पैमाना बना दिया हो | किसके थप्पड से कितनी सूजन | बात नही बनी तो जूतम पैजार से भी परहेज नही | भाग भगौडा भाग के नारों ने उनका पीछा ही नही छोडा |

     फ़ेसबुक के मित्रों मे वर्षों पुरानी दोस्ती के बीच तलवारें खिंच गईं | कई ने तो एक दूसरे को अनफ़्रेंड ही कर डाला | जब अंत मे मित्रों की कुल संख्या देखी तो अच्छे खासे मित्र चुनाव की भेंट चढ चुके थे | मरता क्या न करता की तर्ज पर बेचारे ऐड फ़्रेन्ड की लिस्ट नये सिरे से तलाशने लगे | कहानी, गजल, कविता का कोई पुरसाहाल नही | बस राजनैतिक टिप्पणियों ने कब्जा जमा दिया |

     बहरहाल , कुछ भी हो बडा रगीला, सजीला, डरावना, बदतमीज और गुस्सैल रहा है 2014 का यह चुनाव प्रचार | हमेशा याद रहेगा लेकिन दिल नही चाहेगा कि इतिहास इसे कभी दोहराये | अलविदा , फ़िर कभी न आना अपने इस चेहरे के साथ 


     

मंगलवार, 6 मई 2014

हुक्मरानों ने छ्ले हैं आदमी के ख्वाब

    
     ( एल. एस. बिष्ट ) -आज हम फ़िर समय के एक ऐसे मोड पर खडे हैं जहां एक तरफ़ हमारे बिखरे सपनों, टूटी उम्मीदों की दुनिया है और दूसरी तरफ़ बदले हालातों मे उम्मीद की एक हल्की किरण | आखिर क्यों हुए हम नाउम्मीद, आज यह समझना जरूरी है जिससे हम नाउम्मीदी के गहरे अंधेरे से उबर सकें |

     सच तो यह है कि हम यह कहते नही थकते कि गोरी चमडी वाले अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए वह सबकुछ किया जो उनके हित मे था | किसानों के शोषण से लेकर आम आदमी के शोषण तक जो भी उन्हें ठीक लगा | यही कारण है कि एक तरफ़ आम आदमी की जिंदगी बदहाल होती गई दूसरी तरफ़ अंग्रेजी साम्राज्य की समृध्दि दिन दूनी रात चौगुनी बढ्ती गई | लेकिन क्या आजादी के बाद ऐसा नही हुआ |
     सच तो यह है कि शोषण की यह व्यवस्था आज भी कुछ दूसरे रूप मे बरकरार है, अंतर सिर्फ़ इतना है कि अब लंकाशायर, मैनचेस्टर का स्थान हमारे महानगरों ने ले लिया है | वरना क्या कारण है कि पशिचमी उत्तर प्रदेश का किसान गन्ने की सही कीमत के लिए हर साल गुहार लगाता है और उसका गन्ना खेतों मे ही सड्ता दिखाई देता है | तुर्रा यह कि देश मे चीनी के भाव आसमान छूते हैं |  महाराष्ट्र का किसान कपास की उचित कीमत के लिए जब-तब अपनी कमर कसता दिखाई देता है | परन्तु समय समय पर होने वाले संगठित आंदोलन भी बेअसर साबित होते दिखाई देते हैं | छोटे काश्तकारों का तो कोई पुरसाहाल नही | कुछ वर्ष पूर्व इंडियन कौंसिल आफ़ सोशल साइंस रिसर्च के तत्वाधान मे जो शोध उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवर्तनों के संदर्भ मे किया गया था , उसमे बताया गया था कि खेती पर लोगों की निर्भरता कम होने की बजाय बढी है | गांवों मे सर्वहारों की संख्या निरन्तर बढ रही है | इसी शोध मे आगे कहा गया था कि महंगाई के कारण कीमतें कई गुना बढी हैं लेकिन किसान को उस हिसाब से उसकी फ़सल की उचित कीमत नही मिल पा रही है |

     देखा जाए तो किसान ही नही बल्कि आम आदमी की स्थिती उत्तरोत्तर बदहाल हुई है | जो थोडी बहुत चमक-दमक दिखाई दे रही है, वह शहरी मध्यमवर्गीय समाज की है जिसने येनकेन अपने को ऐसी स्थिती मे ला खडा किया है कि विकास की बंदरबाट मे उसे भी कुछ मिलता रहे | दशकों के तथाकथित विकास की पड्ताल करें तो यह बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है कि स्वतंत्रता के बाद इस देश के हुक्मरानों ने आम आदमी के सपनों को छ्ला है |  जो उम्मीदें आम आदमी ने स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर आजाद भारत से लगाई थी, वह तिनकों की मानिंद बिखर कर रह गईं | आज उस पीढी को यह दुख कहीं गहरे सालता है कि क्या इन्हीं दिनों के लिए और ऐसे भारत के लिए उन्होने संघर्ष किया था |

     गांधी जी के सपनों का क्या हुआ ? कहां गये समाजवाद और समतामूलक समाज के मूल्य ? आदर्श, नैतिकता और समर्पण की वह धारा क्यों सूख गई ? कहां से यकायक आ गया फ़रेब, भ्र्ष्टाचार, अनैतिकता और कुंठा का गहन अंधेरा | कहा गया था कि दस वर्षों के अंदर 14 वर्ष तक के सभी नौनिहालों को नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करा कर शिक्षित कर दिया जायेगा, लेकिन क्या ऐसा हो सका | इस बीच न जाने कितने शिक्षा आयोग और शिक्षा सुधार के लिए समितियां गठित की गईं, लेकिन सपना अभी भी कोसों दूर है | बल्कि कुछ मामलों मे तो हालात और भी बदतर हुए हैं | बाल शोषण घटने की बजाय लगातार बढता ही जा रहा है |
     न्याय आधारित व्यवस्था के स्थान पर हमने ऐसी कुव्यवस्था विकसित की कि आम आदमी न्याय की बात सोच भी नहीं सकता | धन बल और बाहुबल ने न्याय को उन इमारतों मे घुसने ही नही दिया जहां से न्याय का उजाला फ़ैलना था | न्याय का भ्रम जरूर बना हुआ है | शायद इसीलिए पुरानी पीढी के बचे खुचे बुजुर्ग यह कहने लगे हैं कि इस अंधेरे से कहीं अच्छा था अंग्रेजों का शासन | आखिर अपने स्वतंत्र राष्ट्र और अपनी ही बनाई प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति इतनी घोर निराशा क्यों ?

     तमाम बुराइयों से जकडे इस विशाल लोकतंत्र का यह बदरंग चेहरा न होता अगर स्वतंत्रता के बाद सत्ता मे आए लोगों ने ईमानदार प्रयास किए होते | दर-असल हुआ यह कि जिन चेहरों को ससंद और विधानसभाओं मे पहुंचना था, वह तो अपना सब् कुछ न्योछावर कर, सत्ता के लोभ मे न पड, चुपचाप बैठ गये लेकिन जिन्हें सत्ता सुख का लोभ था, वह भला क्यों पीछे रह जाते |

     इन स्वार्थी और धूर्त चेहरों ने बडी चालाकी से ईमानदार और राष्ट्रहित मे प्रतिबद्द लोगों को हाशिए पर डाल दिया | गौर करें तो पहले आम चुनाव से ही यह प्रकिया शुरू हो गई धी | धीरे-धीरे प्रत्येक चुनाव के साथ इनकी संख्या बढ्ती गई और फ़िर शासन की बागडोर पूरी तरह से इन्हीं धूर्त लोगों के हाथों मे आ गई | इन्होनें अपने निहित स्वार्थों के लिए जैसी व्यवस्था चाही, वह आज हमारे सामने है और यही कारण है कि इस व्यवस्था मे ऐसे ही चेहते फ़ूल फ़ल रहे हैं |

     राजनैतिक घटनाचक्र को देखे तो नेहरू का प्रधानमंत्री बनना ही गरीब के सपनों के लिए पहला आघात था | दर-असल गांधी जी को इस देश की सही समझ थी और वही थे जो खेत-खलिहान, कल-कारखानों और ग्रामीण भारत की बुनियादी समस्याओं को जानते थे | नेहरू का गरीबी और गांवों से कोई रिश्ता था ही नही | इसीलिए गांधी जी ने एक बार नेहरू जी से कहा था कि कोई भी फ़ैसला करना तो आंखे बंद करके भारत के किसी गरीब आदमी की तस्वीर अपनी आंखों के सामने लाने की कोशिश करना फ़िर अपने आपसे पूछना कि यह जो निर्णय लिया जा रहा है उससे उसकी आंखों मे चमक आयेगी कि नही | लेकिन नेहरू जी ऐसा न कर सके | इसके फ़लस्वरूप विकास का जो ढांचा खडा हुआ उसके तहत गरीब का हिस्सा नदारत रहा | रही समाजवाद की बात, वह पानी के बुलबुले की तरह कब गुम हो गया, पता ही नही चला |


कुल मिला कर आज भी ऐसी व्यवस्था कायम है जिसमे अमीर और ज्यादा अमीर, गरीब और गरीब होता जा रहा है | आर्थिक उदारीकरण की हवा ने भी इन्हें खुशहाली की बजाय बदहाली ही दी है | यही कारण है कि तमाम उपलब्धियों के बाबजूद एक बडा वर्ग बुनियादी जरूरतों से आज भी वंचित है | अलबत्ता दूरदर्शन और सरकारी पोस्टर खुशहाली की रंगनियां बिखेर रहे हैं | आज हम फ़िर एक मोड पर खडे हैं | अपने सपनों की सरकार चुनने | फ़ैसला कुछ भी हो, दुआ करें कि देश की गाडी अब सही पटरी पर चले औरे आम आदमी के बिखरे सपने पूरे हो सकें |