मौसम की पहली बरसात ने ही केदारनाथ व बदरीनाथ पहुंचने
के तमाम रास्ते बंद कर दिये | जगह जगह पहाड़ की चट्टाने टूट
कर गिरने लगीं | ऐसा पहली बार नहीं है | बरसात के मौसम मे इसी तरह साल-दर-साल घायल होता हिमालय क्षेत्र आज हमारी
उपलब्धियों के तमाम दावों को झुठलाने लगा है | साथ ही विकास नीतियों की खामियों को
भी उजागर कर रहा है | वैसे तो पहाड़ की टूट फ़ूट प्रकृति का चक्र है लेकिन जिस तरह
से इधर हाल के वर्षों से पहाड़ मे भू-स्खलन की घटनाएं बढी हैं, यह हमारे लिए खतरे
का संकेत है | विडंबना तो यह है कि दूसरी तरफ़ हम पर्यावरण की रक्षा की बात करते
नही थक रहे |
अब तो स्थिति यह है कि थोडी सी बरसात मे ही
पहाड़ दरकने लगे हैं | आवागमन का ठप होना तो बरसात के मौसम मे रोज की बात है |
दरकते हुए पहाड़ इस बात का संकेत हैं कि पर्यावरणीय विनाश की सीमा अब खतरे के
निशान को भी पार करने लगी है | इससे पर्वतीय विकास की मूलभूत सरकारी नीतियों तथा
नजरिये पर एक प्रशनचिन्ह लग गया है | विकास की यह उल्टी चाल इस तथ्य को भी उजागर
कर रही है कि आज पर्वतीय विकास के लिए धन नही वरन नियोजन की अधिक आवश्यक्ता है |
साथ ही यह चेतावनी भी कि सिर्फ़ एक माडल के आधार पर पर्वतीय विकास की योजनाएं तैयार
नही की जा सकती हैं | इसके लिए जरूरी है इस अंचल की भौगोलिक परिस्थितियों ,
तराइ-भावर, मध्य हिमालय व उच्च हिमालय श्रेणियों मे विभाजित कर योजनाएं बनाई जानी
चाहिए |
दर-असल आज घायल होते हिमालय क्षेत्र की इस
पीडा के पीछे सरकारी गलत नीतियों तथा पर्यावरण के प्रति हमारी घोर उपेक्षा की एक
लंबी कहानी है | कभी यह क्षेत्र अपनी वन सपंदा के लिए जाना जाता था | लेकिन आज स्थिति यह है कि दूर दूर तक वन उजड
चुके हैं | यहां तक कि गांवों मे चारे ईधन तक का संकट उपस्थित हो गया है | खनिज
दोहन के लोभ ने भी पहाड़ की छाती पर गहरे घाव लगाए हैं | डायनामाइट विस्फ़ोट से
कच्चे पडे पहाडों से अब मिट्टी निकल निकल कर बहने लगी है | और परिणामस्वरूप
भू-स्खलन व भूक्ष्ररण की गति उत्तरोत्तर तेज हो रही है |
विनाश की यह प्रकिया आज भी जल, जानवर और जडी
बूटी की लूट, सडक और बांधों का क्रूरतापूर्ण निर्माण, निरन्तर हो रहे असंतुलित खनन
आदि के रूप मे जारी है | यह विनाश जिस बिंदु पर पहुंचा है उसी का परिणाम है
भू-स्खलन से टूटता पहाड़ और थोडी सी बरसात मे पहाड़ी नदी-नालों का ताडंव |
दर-असल पहाड़ के शोषण की परम्परा एक शताब्दी
पूर्व की औपनिवेशक शासकों की देन रही है | खास कर ईस्ट इंडिया कंपनी के काल खंड के
दस्तावेजों को देखने से पता चलता है कि इनकी नजर यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर थी
| फ़्रांसिस ह्वाइट ( 1837 ) के यात्रा विवरणों मे मसूरी की पहाडियों मे चूना खदाने
होने का उल्लेख मिलता है | लेकिन काफ़ी समय तक इन्हे कोई नुकसान नही हुआ | य्हां तक
की 1883 तक इनसे कोई छेड़छाड़ नही की गई |
लेकिन इसके बाद वनों के शोषण का काला अध्याय
शुरू हुआ | वनों का अंधाधुंध दोहन कर रेलवे स्लीपर बनाये जाने लगे | व्यापारिक
द्र्ष्टिकोण से ही चीड़ के वनों का विस्तार किया गया | इससे लीसा निकालने की
प्रकिया भी तभी शुरू हुई | एक तरफ़ व्यापारिक उद्देश्यों के लिए वनों का निर्मम
दोहन हुआ दूसरी तरफ़ कृषि योग्य भूमि के विस्तार के लिए भी वनों को साफ़ किया जाने
लगा परिणाम्वरूप 1930 के आसपास से हिमालय क्षेत्र मे भू-स्खलन और बाढ की घटनाएं
शुरू हो गईं |
1940 के बाद खनिज खनन का कार्य शुरू हुआ |
खुलेआम डायनामाइटों का प्रयोग शुरू हुआ | खनन कार्य के फ़लस्वरूप भू-स्खलन की गति
और तेज हो गई | यह सब आजादी के पूर्व की बात है परन्तु हिमालय क्षेत्र का
दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्रता के बाद भी उसके प्रति शासकों का द्र्ष्टिकोण नही
बदला | हमारे नीति निर्माता ऐसी विकास योजनाएं बनाने मे असफ़ल रहे जिनसे पर्यावरण
के साथ पहाड़ की अर्थव्यवस्था मे भी सुधार होता |
60 के दशक से विकास के नाम पर सड्कों का
निर्माण कार्य शुरू हुआ | इसका परिणाम यह निकला कि ठेकेदारों ने पहाड़ के जंगलों
तथा खेतों के साथ खूब मनमानी की | रही सही कसर सरकारी बिजली परियोजनाओं ने पूरी कर
दी | टिहरी जैसा विशालकाय बांध बनाना वह भी हिमालय क्षेत्र में, हमारी गलत नीतियों
का सबसे अच्छा उदाहरण है |
बहरहाल इन तमाम गलतियों का परिणाम आज सामने
है | परन्तु इससे बडी गलती यह रही कि समय समय पर समितियों की चेतावनियों को बार
बार नजर-अंदाज किया जाता रहा जो आज भी जारी है | इस हिमालय क्षेत्र के भू-स्खलन के
कारणों और पर्यावरण के असंतुलन पर न जाने कितने अध्ययन किए गये और सिफ़ारिशें सरकार को दी गईं लेकिन सभी
अलमारियों मे धूल खाती रहीं | उन्हें कभी गंभीरता से लिया ही नही गया | बद्रीनाथ
धाम के बिगडते पर्यावरण पर दी गई चेतावनी, नैनीताल मे पहाड धसकने की डा नौटियाल की
शंका को भी नजर-अंदाज कर दिया गया |
दर-असल हिमालय की पहाड़ियां कच्ची और नई हैं
और इसलिए संवेदनशील भी | इनके साथ थोड़ी सी लापरवाही भी घातक सिध्द हो सकती है |
इधर कुछ समय से उत्तराखंड मे टूरिज्म के विकास को गति मिली है | सड्कों का जाल
बिछा है और पहाडियों पर बढते वाहनों का दवाब निरंतर बढ रहा है | इससे भी जरा सी
बरसात भू-स्खलन को न्योता देने लगी है | आज यहां पांच
सितारा पर्यटन की अवधारणा के तहत तमाम होटल पूरी सज धज के साथ सडक किनारे स्वागत के
लिए खडे हैं | इनसे इन पहाडियों पर दवाब लगातार बढता जा रहा है
| गाड़ियों का आवागमन पिछ्ले वर्षों की तुलना मे कई गुना बढ गया है
| लेकिन इन सब बातों से यहां किसी को कोई लेना देना नही |
आज जरूरत
इस बात की है कि पहाड़ की योजनाएं यहां के भौगोलिक रचना के हिसाब से संतुलित व सुनियोजित
हों | आर्थिक विकास हेतु उठाये जा रहे किसी भी कदम से पूर्व पर्यावरणीय
पहलू पर भी उचित ध्यान दिया जाए | अन्यथा इस तरह तो एक दिन पहाड का अस्तित्व ही खतरे मे पड
जाऐगा |
एल.एस.बिष्ट,
11/508, इंदिरा नगर,
लखनऊ-16
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