इसमे संदेह नही कि मूल्यों व आदर्शों से विहीन मौजूदा दौर की राजनीति को हम कोसने मे कहीं पीछे नही । लेकिन इस नकारात्मक्ता के बाबजूद इसी राजनीति ने कब हमे अपने मोहपाश मे बांध लिया, हम समझ भी न सके ।
यही कारण है कि हमारी राजनीतिक खबरों मे जितनी दिलचस्पी है उसकी आधी भी सामाजिक जीवन से जुडी खबरों मे नही । दर-असल आज की उपभोक्ता संस्कृति व हमारी आत्मकेन्द्रित जीवन शैली हमें मानवीय संवेदनाओं से कहीं दूर ले गई है । हमें या तो सरकार, शासन व चुनाव की खबरें रास आती हैं या फिर बाजार मे आने वाले नित नये उपभोक्ता उत्पादों की । कहां क्या सस्ता बिक रहा है, यह हमारी सोच की प्राथमिकताओं मे है । सच तो यह है कि हमारी चिंताओं , सरोकारों और सोच का दायरा सिमट कर रह गया है ।
शैक्षिक डिग्रियों की नौटंकी से लेकर दिल्ली मे सत्ता की कलाबाजियों तक मे तो हमारी पैनी नजर है लेकिन एक अदद नौकरी के लिए हो रही गला काट स्पर्धा के बीच युवाओं दवारा आत्महत्या की खबरें हमे विचलित नही कर रहीं ।
आज अगर हम अपने आसपास हो रही घटनाओं से मुंह न मोडें तो यह बात पूरी तरह से साफ हो जाती है कि विकास व उन्नति की तेज धारा के साथ बहते हुए हम कहीं न कहीं मानवीय संवेदनाओं से कटते जा रहे हैं । यही नही, विकास की सीढियां चढते समाज का ताना-बाना भी कुछ इस तरह से उलझने लगा है जिसमें जिंदगी ही बोझ लगने लगती है । आज किसी भी अखबार मे राजनीतिक खबरों के बीच ऐसा बहुत कुछ भी है जिस पर सोचा जाना चाहिए लेकिन यह खबरें बिना किसी का ध्यान अपनी ओर खींचे चुपचाप बासी हो जाती हैं और हम आसानी से भूल जाते हैं कि ऐसा कुछ भी हमारे आस-पास घटित हुआ था ।
शायद ही कोई ऐसा दिन हो कि अखबार मे किसी आत्महत्या की खबर न हो | आये दिन किसी भी शहर के अखबार मे आठ-दस ऐसी खबरें होना अब आम बात हो गई है | बल्कि हमे कुछ नया तब लगता है जब किसी दिन ऐसी कोई खबर पढने को न मिले | कभी कोई छात्र नौकरी न मिल पाने के कारण फ़ांसी से लटक जाता है तो कभी कोई युवती अपने असफ़ल प्रेम के कारण अपने हाथों की नस काट लेती है | कहीं कोई कर्ज मे डूब कर किसी अपार्टमेंट से नीचे कूद पडता है तो कोई रेल की पटरियों के बीच लेट कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है | गहरे अवसाद मे डूबे और फ़िर मौत को गले लगाते ऐसे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढती जा रही है |
देश मे इस समय आत्मह्त्या की दर प्रति एक लाख मे 11.2 है | आत्महत्या के कारणों को जानने के लिए अब तक जो शोध हुए हैं, उनसे प्रमुख रूप से एक बात उभर कर सामने आई है कि मनुष्य भीषण मानसिक विषाद के दौर मे ऐसा करता है | इसमे संदेह नही कि भारतीय समाज मे मानसिक विषाद मे लगातार बढोत्तरी हो रही है | दर-असल जिस तरह से हमारा सामाजिक ताना बाना उपभोक्तावाद के चलते छिन्न-भिन्न हो रहा है, इससे चिंताएं और कुंठाएं बढी हैं | जो अंतत: दिमाग को अपना शिकार बना रही हैं |
बडे शहरों मे अकेले पडते बुजुर्गों की हत्याएं भी हमे भावुक नही कर पा रहीं और न ही जिंदगी की परेशानियों से अवसादग्रस्त लोगों की असमय मौतों के बढते आंकडों से हमे कोई लेना देना है । यानी जिंदगी जिन ताने बानों पर चलती है उनका निरंतर कमजोर पडते जाना भी हमे कहीं से कचोट नही रहा ।
क्या वाकई मे हम एक ऐसे दौर मे पहुंच गये हैं जहां संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों पर राजनीति हावी होती जा रही है । कहीं हम जाने अनजाने एक निष्ठुर समाज मे तो तब्दील नही हो रहे ? वरना और क्या कारण हो सकता है कि भूख और प्यास से हो रही मौतों व किसानों की जानलेवा त्रासदी के बीच हमे राजनीतिक खबरों की चटनी ही आकर्षित कर रही है ।
इसे बदले जमाने का एक नया चेहरा मानें या फिर आत्मकेन्द्रित हो रहे समाज का एक रोग, लेकिन कुल मिला कर तमाम उपलब्धियों के ढोल नगाडों के बीच जिंदगी तो दांव पर लगी ही है । चाहे वह शहर की हो या गांव-कस्बे की या फिर किसी किसान की हो या लातूर, बुंदेलखंड के किसी ग्रामीण की या फिर कोटा के किसी युवा की । लेकिन मौजूदा दौर की दुखद त्रासदी यही है कि आज हमारी सोच व मिजाज मे राजनीति सामाजिक सरोकारों से ऊपर है ।
और हम अपने आसपास की दुनिया के दुखों से उदासीन होते जा रहे हैं । यह मिजाज कब बदलेगा, पता नही ।
यही कारण है कि हमारी राजनीतिक खबरों मे जितनी दिलचस्पी है उसकी आधी भी सामाजिक जीवन से जुडी खबरों मे नही । दर-असल आज की उपभोक्ता संस्कृति व हमारी आत्मकेन्द्रित जीवन शैली हमें मानवीय संवेदनाओं से कहीं दूर ले गई है । हमें या तो सरकार, शासन व चुनाव की खबरें रास आती हैं या फिर बाजार मे आने वाले नित नये उपभोक्ता उत्पादों की । कहां क्या सस्ता बिक रहा है, यह हमारी सोच की प्राथमिकताओं मे है । सच तो यह है कि हमारी चिंताओं , सरोकारों और सोच का दायरा सिमट कर रह गया है ।
शैक्षिक डिग्रियों की नौटंकी से लेकर दिल्ली मे सत्ता की कलाबाजियों तक मे तो हमारी पैनी नजर है लेकिन एक अदद नौकरी के लिए हो रही गला काट स्पर्धा के बीच युवाओं दवारा आत्महत्या की खबरें हमे विचलित नही कर रहीं ।
आज अगर हम अपने आसपास हो रही घटनाओं से मुंह न मोडें तो यह बात पूरी तरह से साफ हो जाती है कि विकास व उन्नति की तेज धारा के साथ बहते हुए हम कहीं न कहीं मानवीय संवेदनाओं से कटते जा रहे हैं । यही नही, विकास की सीढियां चढते समाज का ताना-बाना भी कुछ इस तरह से उलझने लगा है जिसमें जिंदगी ही बोझ लगने लगती है । आज किसी भी अखबार मे राजनीतिक खबरों के बीच ऐसा बहुत कुछ भी है जिस पर सोचा जाना चाहिए लेकिन यह खबरें बिना किसी का ध्यान अपनी ओर खींचे चुपचाप बासी हो जाती हैं और हम आसानी से भूल जाते हैं कि ऐसा कुछ भी हमारे आस-पास घटित हुआ था ।
शायद ही कोई ऐसा दिन हो कि अखबार मे किसी आत्महत्या की खबर न हो | आये दिन किसी भी शहर के अखबार मे आठ-दस ऐसी खबरें होना अब आम बात हो गई है | बल्कि हमे कुछ नया तब लगता है जब किसी दिन ऐसी कोई खबर पढने को न मिले | कभी कोई छात्र नौकरी न मिल पाने के कारण फ़ांसी से लटक जाता है तो कभी कोई युवती अपने असफ़ल प्रेम के कारण अपने हाथों की नस काट लेती है | कहीं कोई कर्ज मे डूब कर किसी अपार्टमेंट से नीचे कूद पडता है तो कोई रेल की पटरियों के बीच लेट कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है | गहरे अवसाद मे डूबे और फ़िर मौत को गले लगाते ऐसे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढती जा रही है |
देश मे इस समय आत्मह्त्या की दर प्रति एक लाख मे 11.2 है | आत्महत्या के कारणों को जानने के लिए अब तक जो शोध हुए हैं, उनसे प्रमुख रूप से एक बात उभर कर सामने आई है कि मनुष्य भीषण मानसिक विषाद के दौर मे ऐसा करता है | इसमे संदेह नही कि भारतीय समाज मे मानसिक विषाद मे लगातार बढोत्तरी हो रही है | दर-असल जिस तरह से हमारा सामाजिक ताना बाना उपभोक्तावाद के चलते छिन्न-भिन्न हो रहा है, इससे चिंताएं और कुंठाएं बढी हैं | जो अंतत: दिमाग को अपना शिकार बना रही हैं |
बडे शहरों मे अकेले पडते बुजुर्गों की हत्याएं भी हमे भावुक नही कर पा रहीं और न ही जिंदगी की परेशानियों से अवसादग्रस्त लोगों की असमय मौतों के बढते आंकडों से हमे कोई लेना देना है । यानी जिंदगी जिन ताने बानों पर चलती है उनका निरंतर कमजोर पडते जाना भी हमे कहीं से कचोट नही रहा ।
क्या वाकई मे हम एक ऐसे दौर मे पहुंच गये हैं जहां संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों पर राजनीति हावी होती जा रही है । कहीं हम जाने अनजाने एक निष्ठुर समाज मे तो तब्दील नही हो रहे ? वरना और क्या कारण हो सकता है कि भूख और प्यास से हो रही मौतों व किसानों की जानलेवा त्रासदी के बीच हमे राजनीतिक खबरों की चटनी ही आकर्षित कर रही है ।
इसे बदले जमाने का एक नया चेहरा मानें या फिर आत्मकेन्द्रित हो रहे समाज का एक रोग, लेकिन कुल मिला कर तमाम उपलब्धियों के ढोल नगाडों के बीच जिंदगी तो दांव पर लगी ही है । चाहे वह शहर की हो या गांव-कस्बे की या फिर किसी किसान की हो या लातूर, बुंदेलखंड के किसी ग्रामीण की या फिर कोटा के किसी युवा की । लेकिन मौजूदा दौर की दुखद त्रासदी यही है कि आज हमारी सोच व मिजाज मे राजनीति सामाजिक सरोकारों से ऊपर है ।
और हम अपने आसपास की दुनिया के दुखों से उदासीन होते जा रहे हैं । यह मिजाज कब बदलेगा, पता नही ।
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