केजरीवाल जी का दिल्ली को प्रदुषण मुक्त देखने की हसरत हो या फिर मोदी जी का स्वच्छ भारत का सपना , भला कैसे पूरे हों । यहां तो हर कुंए मे भांग पडी है । सामाजिक हित वाले इन प्रयासों के संदर्भ मे जब हम समाज की ओर देखते हैं तो यहां एक आत्मकेन्द्रित, स्वार्थपूर्ण समाज ही दिखाई देता है । जिसे देश व समाज के हित से ज्यादा अपने हित सुहाते हैं । अब ऐसे मे तमाम अच्छे प्रयासों की अकाल मौत का होना कोई अचरज की बात नही ।
मौजूदा प्रयासों के अतिरिक्त भी समय समय पर ऐसे तमाम प्रयास किये जाते रहे हैं । सामाजिक हित के लिए किये गये उन तमाम प्रयासों मे अपवाद छोड कर शायद ही आशातीत परिणाम मिले हों । बढते प्रदूषण को रोकने के लिए प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगाने के प्रयास किये गये । थोडे समय के लिए कुछ अच्छे संकेत मिले भी लेकिन बहुत जल्द सबकुछ भुला दिया गया । बाजारों व दुकानों मे तथा दैनिक उपयोग मे प्लास्टिक की पन्नियों का धडल्ले से उपयोग आज भी जारी है । चुनाव प्रचार मे भी प्लास्टिक से बनी सामग्री का उपयोग बद्स्तूर जारी है । इसी तरह सार्वजनिक स्थलों मे ध्रुमपाम न करने के लिए कानून बनाया गया । इसके लिए दंड का भी प्राविधान है लेकिन लचर क्रियांवयन के चलते यह भी बस एक कानून बन कर रह गया है । लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर ध्रुमपान करते देखा जा सकता है । तंबाकू गुटका पर रोक लगाई गई लेकिन कानून को बाई पास करके आज भी लोग धडल्ले से उसका उपयोग कर रहे हैं । बस फर्क यह है कि तम्बाकू पाउच और सादे मसाले के पाउच को अलग अलग करके बेचा जा रहा है ।
अभी हाल मे उत्तरप्रदेश सरकार ने खुली सिगरेट की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है । अब कोई भी दुकानदार सिगरेट की डिब्बी तो बेच सकता है लेकिन खुली एक या दो सिगरेट नही । लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ? आज भी खुली सिगरेट की बिक्री यथावत जारी है । बस फर्क इतना है कि पुलिस को एक और कमाई का जरिया दे दिया गया । उनकी मुट्ठी गरम कीजिए और खुली सिगरेट आराम से बेचिए ।
अब रही बात देश को स्वच्छ रखने की तो वह देश साफ सुथरे रह सकते हैं जहां के नागरिक कूडेदान न मिलने पर केले का छिलका या पैकेट का रेपर अपनी जेब मे डालना बेहतर समझते हैं बजाय इसके कि उसे सडक पर फेंक दें । आज हम जिन यूरोपीय देशों के अनुसरण करने की बात करते हैं वहां की बेहतरी मे कानून से ज्यादा नागरिकों के ' सिविक सेंस ' की भूमिका महत्वपूर्ण है । लेकिन यहां तो अपना कूडा पडोसी के घर के सामने डाल देने मात्र से ही सफाई का कर्तव्य पूरा हो जाता है । बाकी सफाई तो बहुत दूर की बात है । अब ऐसे मे कैसे पूरा हो स्वच्छ भारत का सपना । चार दिन का तमाशा करना एक अलग बात है ।
प्रदूषण से ज्यादा जहां दिखावे की प्रवत्ति सोच मे प्रभावी हो तथा कार एक स्टेटस सिम्बल हो और रिश्तेदारों को दिखाने की चीज हो वहां सडकों पर कारों की संख्या को सीमित किया जा सकेगा, मुश्किल ही लगता है । यहां स्वयं की कार से जाना समृध्दि का प्रतीक माना जाता है और बस व मेट्रो को आम आदमी के साधन के रूप मे समझा जाता है । वैसे यातायात के लिए सार्वजनिक साधनों की कमी को भी एक कारण माना जाता है । लेकिन अगर प्रर्याप्त संख्या मे सार्वजनिक साधनों को उपलब्ध करा दिया जाए तो क्या लोग उनके उपयोग को प्राथमिकता देंगे, इस सवाल का उत्तर मिलना बाकी है । बहरहाल बडा रोचक रहेगा केजरीवाल जी के प्रदूषण मुक्त सपने के भविष्य को भी देखना ।
दर-असल आजादी के बाद हमें वह संस्कार ही नही मिले जिनकी उम्मीद अब जनसामान्य से की जा रही है । जिन देशों का अनुसरण करने का प्र्यास किया जा रहा है वहां लोगों को राष्ट्र्भक्ति , राष्ट्रहित व सामाजिक सरोकार जन्म से ही घुट्टी मे पिलाये गये हैं । यहां तो विकास और समृध्दि को जो दिशा दी गई उसमें इन विचारों का कोई स्थान ही नही है । भारतीय समाज मे आत्मकेन्द्रित खुशहाली की सोच के बीच भला किसी को इन बातों से क्या मतलब ।
रही बात कानून की तो जिस देश मे कानूनों के क्रियान्वयन मे ही ईमानदारी न हो वहां बनाये कानूनों के परिणामों के बारे मे सोचा जा सकता है । सच तो यह है कि कानूनों को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली मशीनरी ही उनके क्रियांवयन के प्रति गंभीर व ईमानदार नजर नही आती । वैसे भी जहां कानून मानने से ज्यादा कानून तोडने की परंपरा हो वहां सकारात्मक परिणामों की उम्मीद स्वत: कम हो जाती है । वैसे भी कहावत है कि घोडे को खींच कर तालाब तक तो लाया जा सकता है लेकिन जबरदस्ती उसे पानी नही पिलाया जा सकता । ऐसा ही कुछ इन सुधार कार्यक्रमों के साथ भी है । गंदगी फैलाने के दस बहाने और कार सडक पर लाने के भी दस बहाने । कानून को बाई पास करने के भी दस तरीके । बेचारा भारतीय कानून बस टुकर टुकर देखता भर रह जाए ।
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